विनोद बिहारी मुखर्जी {Vinod Bihari Mukherjee}

☆☆☆विनोद बिहारी मुखर्जी ☆☆☆
विनोद बिहारी मुखर्जी का जन्म 7 फरवरी 1904 ईसवी में पश्चिम बंगाल के बहेला नामक गांव में हुआ विनोद बिहारी मुखर्जी व्यक्ति चित्रकार कोलाज वुडकट कैलीग्राफर आलोचक आदि थे 
सन 1919 में शांति निकेतन में नंदलाल बोस व असीत कुमार हलदर से शिक्षा ली 
सन 1942 ई० में शांति निकेतन के चीन भवन में ग्रामीण जीवन चित्र बनाया 
सन 1948 ई० में विनोद ने समकालीन भित्ति चित्र कला का सबसे बड़ा चित्र "मध्यकालीन संत" (मेडिकल हिंदू संत) 77×8 फिट चित्र शांतिनिकेतन के हिंदी भवन में बनाया इस चित्र को बनाने में "के०जी०० सुब्रमण्यम" ,"जितेंद्र कुमार"," लीला मुखर्जी" ने सहयोग दिया
"कलाकार और कवि समाज के प्रति गम्भीर दायित्व रखते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक युग में कलाकार समाज का एक सदस्य माना जाता रहा है और समाज का उसे आश्रय भी प्राप्त रहा है। उसके दायित्त्व की सरल व्याख्या यह है कि शब्द, ध्वनि, रंग आदि द्वारा विशिष्ट प्रकार का आनन्द उत्पन्न करने का उसका दायित्त्व है। आनन्द के किसी अद्भुत रूप को जन्म देना कलाकार का प्राथमिक कर्तव्य है। जब कोई ताश के पत्तों की करामात, घुड़दौड़ आदि खेल देखता है तो वह अपनी चिन्ताओं को भुला सकता है, किन्तु वह किसी प्रकार का सुनिश्चित् आनन्द प्राप्त नहीं करता, जब कि कला द्वारा हम किसी विशिष्ट प्रकार का आनन्द प्राप्त करते हैं। कला से हमें विशिष्ट प्रकार के आनन्द प्राप्त होने का कारण यह नहीं कि कला हमें किसी महान् सत्य का ज्ञान कराती है अथवा किसी सामाजिक या राजनैतिक स्थिति सम्बन्धी हमें कोई जानकारी देती है, प्रत्युत सभी प्रकार के कलात्मक आनन्द का मूल, जीवन और समाज के किसी नूतन मूल्य का रहस्योद्घाटन करने की शक्ति रखती है। कला किसी वस्तु के आन्तरिक मूल्य के प्रति हमे जागरूक करती है।"
उपर्युक्त उद्धरण में वह तथ्य निहित है जो कलाकार को समयोचित जागरूकता, उसकी भावात्मक एवं बौद्धिक चेतनाजन्य सृजनोन्मुखी वृत्ति और कला के प्रति गम्भीर दायित्वों की ओर अभिमुख करता है। विनोद बिहारी मुखर्जी बुजुर्ग पीढ़ी के उन सचेत कलाकारों में से हैं जो आज नई पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिलाकर अविरत गति से आगे बढ़ रहे हैं। यद्यपि उनकी कला पर बुजुर्गी की छाप है, पर उन्होंने अत्यधिक भाव-प्रवणता या पुरानेपन की झोंक की मदहोशी में नवीन मान्यताओं की अवहेलना नहीं की है। समयानुकूल कला को ढालते हुए अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए वे एकनिष्ठ होकर विघ्नों को रोदते-चीरते कला-साधना में लीन हैं और उनकी तूलिका आज भी श्रान्त नहीं हुई है। पौराणिक आख्यान, कल्पित कहानी-किस्से, प्राचीन शास्त्रीय चित्रशिल्प और अतीत युग की कष्टसाध्य मत कला-सज्जा में उनकी सृजन-चेतना भ्रान्त नहीं हुई, बल्कि सशक्त रेखांकनों में कितने ही चित्र-विचित्र रूप उनके सामने उभरे है और उन्होंने उन्हें मूर्त रूप दिया है। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें अपनी प्राचीन कला-थानी पर गर्व नहीं, इसके विपरीत वे तो सबसे बढ़कर उसमें रुचि लेते हैं । अजंता और एलोरा की कला के प्रति उनकी गहरी निष्ठा है-उन कलाकारों से कहीं बढ़कर-जो वहाँ की वास्तविक कला को आत्मसात् न कर केवल ऊपर ही ऊपर से लीपापोती सी करते हैं और उसके महत् शस्त्रीय रूप को समझने में अक्षम रह कर केवल वाह्य चारुता पर मुग्ध होकर ही रह जाते हैं। किन्तु कला के संवर्द्धन और महत्तर मानवीय मूल्यों को अधिकाधिक प्रश्रय देने के लिए विनोद बाबू मक्तता के कायल हैं। 
उनके मत से- "सभी प्रकार का कलात्मक आनन्द अमूर्त होता है, अतएव कलात्मक आनन्द का मूल्य है मुक्तता । और मुक्तता में पलायन होता है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि कला का अर्थ ही पलायन है। पलायन का अवसर प्राप्त करने के लिए सामान्य मानवीय अनुभवों के क्षेत्र से पलायन करके महत्तर मानवीय अनुभवों के जगत में पहुँचना होता है।" सामाजिक व्यवस्थाओं के बन्धन की एक बन्दीगृह से तुलना करते हुए वे लिखते है श्आदर्श के नाम पर ब्यक्ति इस प्रकार बन्दी कब तक बना रह सकेगा? व्यक्ति को इस सामाजिक व्यवस्था के बन्धन से बचाने के लिए ही मनुष्य ने चिन्तन के मूल्य अथवा महत्त्व को स्वीकार किया है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होते हुए भी चिन्तन द्वारा अपनी मुक्तता के आनन्द का अनुभव करता है । दार्शनिक चिन्तन द्वारा उसने मुक्ततापूर्वक सोचना सीखा है, विज्ञान द्वारा उसने मुक्ततापूर्वक आचरण करना सीखा है और कला द्वारा उसने भावात्मक मुक्तता का आनन्द लेना सीखा है।ष्
विनोद बाबू की कला-प्रतिभा उन दिनों विकसित हुई थी जब कि विदेशी सत्ता के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन का बोलबाला था। पाश्चात्य प्रभाव से बचने के के लिए पौरसत्य कलादर्शो-चीनी, जापानी, फारसी--और पूर्वकालीन विस्मृत शास्त्रीय कला-तत्त्वों तथा जैन एवं राजपूत चित्रण शैलियों का आश्रय लिया जा रहा था। ऐसे अनिश्चित् वातावरण में विनोद बाबू एक निश्चित् दिशा खोज रहे थे। समस्त विदेशी कला-पद्धतियों को वर्जनीय बता कर जिन-जिन देशी स्रोतों से सृजन की प्रेरणा का आग्रह किया जा रहा था वे राष्ट्रीय दृष्टिकोण से तो अवश्य उपादेय हो सकते थे, पर नियंत्रण एवं अपनी सीमाबद्धता के कारण कला को नया बल या . किसी नवीन पथ पर उत्प्रेरित करने में असमर्थ थे। विनोद बाबू ऐसी आत्मविश्वासहीन में न बहना चाहते थे जो उन्नति के मार्ग में अवरोधक या प्रतिगामी सिद्ध होती। कितने ही नौसिखिए अन्धाधुंध अनुकरण का प्रयास तो कर रहे थे, पर कोई भी देश के गौरव के अनुरूप कला की सुविचारित कलाशैली प्रस्तुत करने के काबिल न था। अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस मौके पर शास्त्रीय, किन्तु अधिक मानवीय भावनाओं को, जिनमें कवि के अन्तर का स्पन्दन मुखरित था, व्यंजित किया, मानो उनकी कोमलता और पुलक कला में साकार हो उठी थी। दूसरी ओर नन्दलाल वसु देशी ढंग से चित्र बनाने में संलग्न थे। उनकी कला में अभी कोई सुनिश्चित् विराम न आ पाया था, फिर भी लोक-रुचि में बैठ कर सादा जीवन और दिव्य एवं उदात्त भावनाओं को प्रश्रय देकर वे नये कलारूपों को प्रस्तुत कर रहे थे। उनके प्लास्टिक प्रतिरूपों में गांधी और टैगोर का मिश्रित प्रभाव द्रष्टव्य था। विश्व कवि के विस्मय भरे कलासत्य एवं सौन्दर्य-सम्बन्धी नूतन तत्त्वबोध से विनोद बाबू को प्रोत्साहन मिला और नन्दलाल वसु के देशी प्रभावों को उन्होंनेश्रद्धानत हो ग्रहण किया। किन्तु उनमें और भी अधिक पाने व जानने की जिज्ञासा थी। भारतीय कलारूपों की मौलिकता अथवा उसका मूल्यांकन करने के लिए समसामयिक निर्धारित मानदण्डों तक ही सीमित रहना उनकी दृष्टि में आवश्यक न था, अपितु परम्परा के प्रभाव से मुक्त होकर उनका सृजनशील मन तात्कालिक गत्यवरोध को मिटाना भी था।
चीन और जापान की सूदूर यात्रा ने प्राच्य शिल्प के प्रति इनमें और भी गहरी दिलचस्पी पैदा कर दी। अब तक भारतीय शिल्पियों की असाधारण उद्भावना-शक्ति एवं रूप-वैशिष्ट्य को देखने, समझने और उसके ऐश्वर्य को स्वायत्त करने की बलवती आकांक्षा तो इनमें थी ही, चीन-जापान की चित्रकला, मिस्र एवं नीग्रो कलाकृतियाँ, यहाँ तक कि एशियाई देशों की तथाकथित अलभ्य शिल्प-संस्कृति के प्रति इनमें बड़ा तीव्र आग्रह जगा। यह आग्रह ऐसा न था जो केवल दुविधापूर्ण मनःस्थिति से छुटकारा पाने के लिए हो, बल्कि एक नये कलात्मक धरातल पर पाश्चात्य और प्राच्य निरूपित कलारूपों में जो अन्तनिहित है वह कहाँ तक उच्चतम अभिव्यक्ति में सफल हुआ है-इसे परखने की प्रेरणा उत्पन्न हुई । एक भावुक की सी अनुशीलन दृष्टि उनमें न थी जो स्वभावतः अपनी वैयक्तिकताजन्य सीमाओं तक टकरा कर रह जाती है, वरन् एक तटस्थ मनीषी द्रष्टा की भाँति विविध कलापक्षों का विश्लेषणात्मक अनुसंधान करके वे उसमें बहुत कुछ पाने की चेष्टा करने लगे। हर रेखा को उन्होंने बारीकी से तौला, हर रिक्त स्थान को निर्माण से पूरने का प्रयत्न किया तथा रंगों व रेखानों में कैसे संतुलन बैठे आदि बातें उन्होंने गणितज्ञ की सी पैनी दृष्टि से भाँपने की चेष्टा की । सौंदर्याविष्ट क्षणों और रसोपलब्धि तथा शिल्प और कला-सौंदर्य की मीेमांसा करते हुए विनोद बाबू एक स्थल पर लिखते हैं- जिस समय हम सोच-समझ कर कलाकृति का आनन्द ले रहे होते हैं. उस समय हम उस समूची कलाकृति का आनन्द नहीं ले रहे होते बल्कि विभागशः, खण्डशः, क्रमशः उसका आनन्द ले रहे होते हैं । जब हम तल्लीन नहीं हैं, भावना में विभोर नहीं हैं तो हमारी चेतनबद्धि कलाकृति के विश्लेषण में लगी है। हम उसके विषय में जितना अधिक कह.चलते हैं हम बौद्धिक स्तरों के उतना ही समीप पहुँचने लगते हैं, मन समग्र-दर्शन, खण्ड-दर्शन में उतरने लगता है और यों पृथक्करण करते-करते रसानन्द के बजाय एक जिज्ञासा के पीछे चलने लगता है। किन्तु कला की महान् कृतियों में यह गुण होता है कि वे मन को कोरे औत्सुक्य या जिज्ञासा में भी बहुत देर तक विलमने को चैका नहीं देतीं। सौंदर्याविष्ट आत्म-विस्मृत क्षण-जिज्ञासा की ओर, जिज्ञासाविश्लेषण की ओर, विश्लेषण-आश्चर्य की ओर, आश्चर्य फिर भावना की ओर, अन्त में भावना मन को पुनः रसविभोरता की ओर खींच ले जाती है । किसी महान् कलाकृति के सौंदर्य का बोध जैसे एक आविष्कार ही होता है। रसानुभव कर सकने वाली हमारी भीतरी शक्तियाँ हमें विभिन्न लोकों और विभिन्न स्तरों में घुमाती हैं। किन्तु इस भ्रमण की गति इतनी तीव्र और इसके मोड़ इतने आकस्मिक होते हैं कि हम इस पथ को पकड़ नहीं पाते।" 
विनोद बाबू के कला-सृजन का ढंग भी बड़ा ही निराला है। शतरंज के खिलाड़ी की सी बेखबरी, जो अपनी मुहरों को इतमिनान से खूब सोच-विचार कर चलता है ये भी नीले, पीले, हरे, काले मिश्रित रंगों के ठप्पे से मारते हैं और क्रमशः इन्हीं बिखरे रंगों से मनुष्य, पेड़, जानवरों की प्राकृतियाँ साकार हो जाती हैं जो अत्यन्त सजीवता लिये होती हैं। इनकी चित्रकृतियाँ प्रायः भावात्मक होती हैं, रेखांकन जटिल-ज्यामितिक क्लिष्टता और प्राचीन जैनचित्रण की सी दुरूहता के साथ ही इनके रंग भरने का तरीका और प्राकृतिनिर्माण की पद्धति गत्यात्मक, पर अमूर्त होती है ।
काली घाट की पट-शैली और ग्राम्य खेल-खिलौनों ने इन्हें अत्यधिक प्रभावित किया है। उन्हीं से प्रेरित काम करने का एक खास अन्दाज इन्हें मिल गया। भारत के अनेक कलातीर्थों का भ्रमण करने के कारण इनकी कला अधिकाधिक जीवन के निकट आती गई। ये उपयोगिता के कायल हैं। इन्हें ऐसी कला से नफरत है जिसका सृजन सिर्फ शृंगार और सज्जा के लिए होता है। इन्होंने अपने चित्रों के प्रसंग जन-जीवन से सँजोये हैं। वे कहते हैं, "अरे ! कला का स्वाद क्या लफ्जी शीशों में बन्द करके दुनिया को पहुंचाया जा सकता है। कला को जानने के लिए तो उसके ही दर की कुंडी खटखटानी पड़ती है।" मानव-चरित्र की गुत्थियाँ और मनोभावों में झाँकने के लिए जीवन-सम्पर्क अपेक्षित है। विनोद बाबू ने अपने चित्रों में संवेदना और सहानुभति का रंग भरा है। दैनन्दिन जीवन-प्रसंगों को लेकर आसपास का वातावरण चित्रित करते हुए-जिसे गली में चलते-फिरते सामान्य व्यक्ति, औरतें, बालक, वृद्ध तक समझ सकें उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का दायरा बड़ा ही फैला दिया है। बंगाल की जन-कला में उनका तन रमा है और उनके चित्र उसी सजीवता, उसी सक्रियता तथा उसी मूर्तिमत्ता के साथ रूपायित हुए हैं। विनोद बाबू प्रयोगी हैं और उनका हर चित्र प्रयोग के रूप में सिरजा गया है, किन्तु वे ऐसे रूपाकारों में निर्जीव शिल्पाभास और केवल ऊपरी कौशल तो हो, पर महत्त्व का कुछ न हो। 
आधुनिक कलाकार के सम्बन्ध में अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं ष्आधनिक कलाकार आगे कदम बढाने के लिए उतावला रहता है। नई घटनाओं और नये तथ्यों की टोह में रहने के कारण उसे अपने जीवन की गहराई में उतरने का अवकाश नहीं । मानव इतिहास के प्रत्येक युग में सामाजिक जीवन में कुछ न कुछ मूर्खतापूर्ण मान्यताएँ स्थान पाती चली आई हैं। अतः हमारा आधुनिक युग भी मूर्खतापूर्ण मान्यताओं से मुक्त नहीं है। आधुनिक कला का प्रशंसक दम्भी, बुद्धिवादी जागरूकता कहलाने वाली मूर्खतापूर्ण मान्यता का दाम बना हुआ हैं। उसकी कलाई की घड़ी और उसके घर के पास का घण्टाघर उसके जीवन को प्रेरणा देने वाले और समाचार पत्र उसके लिए दैवी सन्देश हो गए हैं। मान लीजिए किसी दिन, प्रातःकाल सभी घड़ियाँ और समाचार पत्र दोनों बन्द हो जाएं तो हमारी जागरूकता का क्या हाल होगा। मुझे तो लगता है कि इम पीड़ा से हम सभी का दम घुट जाएगा। अधिकांश में हमारी आधुनिक कला इन्द्रिय जनित ज्ञानवाद का मूर्त रूप है ।ष् यूरोपियन कलाकारों में वे कदाचित् यूफी के सबसे अधिक निकट हैं, किन्तु इनके कृतित्त्व में अपेक्षाकृत सार्थक, नूतन व सशक्त मानवीय कल्पना के दर्शन होते हैं। इनके चित्र सक्रिय तो हैं ही, प्रेरणास्वरूप भी हैं, उनमें मांसल व्यक्तित्त्व प्रशित होता है। उनकी रेखा बड़ी सुप्ठ और सुसंयत है, उनमें सुलिपि सी सहज एकरूपता और सस्थितिसौष्ठव है।
शांतिनिकेतन में नन्दलाल वसू की सन्निधि में वर्षों रह कर इन्होंने कला की साधना की है। वहाँ ऐसे विमोहक भित्ति-चिवों का निर्माण इन्होंने किया है जिनमें वैविध्य, प्रौढ़ता, कला का प्रोज और सामान्य भावनाओं का संस्कार होता है। भित्ति-चित्रों में ऐसे-ऐसे विषय और प्रसंग हैं जिनमें जीवन के अनुभव और परिस्थितियाँ बिखरी हुई हैं । विनोद बाबू काष्ठ-खुदाई, बर्तनों की गढ़ाई और डोरों की बुनाई में भी रुचि लेते हैं और जब कभी समय मिलता है तो नये प्रयोग करते रहते वस्तुतः इनकी ग्राह्य चेतना इतनी विशद है कि विभिन्न कला-शैलियों से अनुप्राणित करने वाले गुणों से सुसम्पन्न करने का प्रयास करते हुए वे अपनी कला को सामान्य स्तर से ऊपर ले जाते हैं जिसके समझने में भ्रान्ति सी हो जाती है। यह इनका अपना ढंग है जो मौलिक और जनाभिमुख है। शुरू से ही ये किसी भी वाद, सम्प्रदाय या गुटबन्दी में शरीक नहीं हुए, फलतः इनकी कला भी एकांगी एवं एकदेशीय नहीं हो पाई। इन्होंने कला के नवोत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रह कर निर्माण की भावभूमि तैयार करने में सतत योग दिया है जो कला-जिज्ञासुओं को आगे बढ़ने की सद्प्रेरणा देता रहेगा। 
सत्यजीत रे ने कोलकाता में सन 1947 में फिल्म सोसाइटी की स्थापना की तथा अपने गुरु विनोद बिहारी मुखर्जी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म "द इनर आई "(1972 ई०) में बनाई 
"जया अप्पसामी ने इन्हें "भारतीय कला से आधुनिक कला का सेतुबध" कहा" 
11 नवंबर 1980 ईस्वी को विनोद बिहारी मुखर्जी का स्वर्गवास हो गया
                                                          
🔯प्रसिद्ध चित्र🔯
 1 ⇨ट्रि लवर 
 2 ⇨ मंदिर का घंटा 
 3 ⇨ इन द गार्डन 
 4 ⇨ वृक्ष प्रेमी .
 5 ⇨ चक्रव्यूह में अभिमन्यु 
 6 ⇨ अर्जुन का लक्ष्य भेद 
 7 ⇨ कुरुक्षेत्र युद्ध 
 8 ⇨ लक्षागृहा 
 9 ⇨ राम वन गमन 
10 ⇨ अहिल्या उद्धार 
11 ⇨ नेपाल सुरक्षित कला संग्रह की प्रदर्शनी

🔯 सम्मान  🔯
⇨ सन 1974 ईस्वी में भारत सरकार द्वारा पदम विभूषण 
⇨ सन 1977 ईस्वी में विश्व भारती द्वारा देसी कोत्तम की उपाधि 
⇨ सन 1980 इसमें भारतीय भाषा परिषद द्वारा रविंद्र  पुरस्कार

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