किरण सिन्हा {Kiran Sinha }

किरण सिन्हा ने शान्तिनिकेतन की कला-परम्परा को अपने ढंग से आगे बढ़ाया है। चित्रकार, मूत्र्तिकार, व्यावसायिक कलाकार जिन्होंने भित्ति-चित्रों और स्मारक प्रतिमाओं के निर्माण में दक्षता हासिल की है. लगभग 25 वर्षों से इस दिशा में अग्रसर हैं । सन् 1936 में इन्हें साइनो-इण्डियन कल्चरल सोसाइटी की ओर से छात्रवृत्ति प्रदान कर चीन की क्लासिकल पेंटिंग के गम्भीर अध्ययन के लिए वहाँ भेजा गया था। तभी से इन्हें चित्रण की सूक्ष्मताओं और उसके गहरे विश्लेषण में दिलचस्पी है। लोककला की ओर भी इनकी गहरी अभिरुचि है जिसका श्रेय इनकी माता को है जो कि स्वयं एक दक्ष लोक चित्रकार थीं। भारत सरकार ने इनके कतिपय चित्रों को रूस, इण्डोनेशिया और यूगोस्लाविया की सरकार को भेंट रूप में दिया है।
इनके चित्रण की खुबी सर्वसामान्य और रोजमर्रा की जिन्दगी में नित्य नजरों के सामने से गुजरने वाले वे नजारे हैं जिन्हें स्मृति पटल से मिटा नहीं सकते, जो बरबस प्राणों को कचोटते हैं, प्रात्मा में अविभाज्य रूप से धंस जाते हैं और जिनसे सहसा पलायन करके कहीं दूर नहीं भागा जा सकता। काल की अराजकता ने भले ही भारत की मूल संस्कृति को झकझोर दिया हो, किन्तु जीवन का सत्य हर युग में विभिन्न प्रकार से मानव ने स्वीकार किया गया है। मनुष्य जब विषम परिस्थितियों से घबर जाता है तो उसकी आत्मा ऐसे स्वप्न संसार को खोजने निकलती है जहाँ उसकी क्लान्त मनः स्थितियों को विश्राम मिले। जन-जन की आत्मा से तादात्म्य स्थापित कर कला उच्च धरातल को छूती हुई जीवन तथ्यों का मार्मिक उद्घाटन करती है। 
इनके कृतित्व में सर्वत्र मानवीय रूप बिखरा मिलता है । आधुनिक जीवन की अनेक समस्याओं से सम्बन्धित बौद्धिक कशमकश आज के अनुभवों का अंग है जिसने कला को बुरी तरह आक्रान्त किया है । उसका उपयोग तो बौद्धिक उड़ान वाले तर्कशील कलाकारों के लिए ही है । निरी बौद्धिकता के बदले अनुभूतिजन्य बोधवृत्ति को लोकर सृजन के रसास्वाद से हम वंचित होते जा रहे हैं जिसने कलात्मक रुचियों को असंतुलित कर दिया है। इसका उपाय क्या है ? एकान्त साधना द्वारा इस युग में भी इस खोई दुई क्षमता को प्राप्त करना। थोड़ी सी श्रमसाधना द्वारा कला के इस चरम निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है जिससे यह प्रत्यक्ष प्रमाणित हो सकता है कि कला हृदय को प्रभावित करती है, न कि मस्तिष्क को। राजस्थान में जब कुछ समय के लिए इनका वहाँ आवास था तो वहाँ के जन-जीवन में आनन्द की विविध और बहुमुखी धाराएं इन्हें प्रवाहित होती हुई मिलीं। राजस्थानी महिलाओं की सक्रिय चेष्टाओं का उल्लेख करते हुए इन्होंने लिखा-ष्उनमें से अधिकतर अपने सिरों पर तरबूज रखकर नगर के बाजार में बेचने के लिए ले जाती हैं। यह उनके जीवन का एक पक्ष है। उनमें से अधिकतर सुन्दर और स्वस्थ चेहरे वाली हैं । वहाँ भी उन पर सूर्य चमकता है और मैं आनन्दविभोर होकर उनके चित्रों का निर्माण करता हूँ। मैं उनके घाघरों, चोलियों और यौवनोन्मत्त सुडौल अंगों पर धूप दिखाता हूँ।
किरण सिन्हा ने राजस्थानी और संथाल जीवन की अछूती भंगिमाओं को आँका है। "तीसरे दर्जे में यात्रा" "नहर खोदने वालों का परिवार" "बर्षा ऋतु में संथालिने" "बढ़ा माली" "स्वर्णिम प्रकाश" और कितने ही पेंसिल स्केचों एवं काष्ठशिल्प के माध्यम से गढ़े गए प्राकारों तथा भित्ति.चित्रणों में इन्होंने रूप.बहुलता और उन्मुक्त चेतना का परिचय दिया है। "दो फूलवती स्त्रियाँ" नामक इनका एक चित्र आस्ट्रेलिया की कला प्रदर्शनी में बहुप्रशंसित हुआ । 
इन्होंने कलम-स्याही और ब्रश के प्रयोग भी किये है। राजस्थान में इन्होंने रंगीन मिट्टी और अनेक मिश्रणों के माध्यम से सूक्ष्मताओं को उभार कर दर्शाने में दक्षता प्राप्त की। फ्रांसीसी कला धारा की "बिन्दुबाद" पद्धति को इन्होंने देशी ढंग से विकसित करने का प्रयास किया है। टेम्परा के अतिरिक्त मिट्टी और तेल के मिश्रण से इन्होंने अनेक प्रयोग किये हैं, रंगों में वैविध्य और परिपक्वता को प्रश्रय दिया है, साथ ही अपनी अभिव्यक्ति का क्षेत्र विस्तृत बनाया है। कला का उद्देश्य मानवीय संवेदनाओं को जगाना है, उसमें कुछ ऐसे चमत्कारिक तत्त्व होने चाहिए जो दर्शक के अन्तर को द्रवित कर दें। कला की प्रवंचना में फंस कर चैंकाने की प्रवृत्ति गहित हैं, क्योंकि सच्चा पारखी सहज मानवीयता से प्रभावित होता है, कौतूहल से नहीं, अतएव अतिरंजित तत्त्वों को कभी शह नहीं देनी चाहिए। उन्हीं के शब्दों में-ष्जब कोई कलाकार चाहे जिस युग का वह क्यों न हो, ईमानदारी के साथ चित्र बनाता, आँकता या ढालता है तो उसका चित्र कभी पुराना नहीं पड़ता। उसकी कृति आने वाले सभी युगों में नई बनी रहेगी, क्योंकि उसकी कला में शाश्वत की शक्ति विद्यमान है।ष्
चीन से लौट आने के पश्चात मद्रास के बेसेंट थियोसाफिकल कला-प्रशिक्षणालय में जब ये कला शिक्षक का कार्य कर रहे थे तो इनका परिचय एक वियना युवती से हुआ जो क्रमशः प्रणय और अन्त में सुखद परिणय में परिणत हो आया। दोनों ने श्रमसाध्य यात्रा-पथ पर दृढ़ कदमों और परस्पर सहयोग से कला-साधना के पथ को प्रशस्त किया है । एक दूसरे के प्रेरक और पूरक बन कर शांतिनिकेतन के समीप "बुलबुल स्टूडियो "की स्थापना की

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