प्रमोद कुमार चटर्जी {Pramod kumar Chatterjee}

प्रमोद कुमार चटर्जी का जन्म सन 1885 ई० मे हुआ था। प्रमोदकुमार चटर्जी की प्रारम्भिक कला-चेतना हिमाच्छादित पर्वतों की उज्ज्वल गरिमा में जाग्रत हुई । एक घरेलू अप्रिय प्रसंग ने इन्हें तरुणावस्था में ही घर छोड़ने को वाध्य किया था और जोवन-संघर्षों से श्रांत-क्लांत ये हिमालय के प्रशांत प्रदेश की ओर चल पड़े थे। कालान्तर में कितने ही पवित्र स्थलों का इन्होंने निरीक्षण किया, कैलाश और मानसरोवर की अलभ्य सुषमा के दर्शन किये, तिब्बत और वहाँ की कला को निरखा-परखा । हिमानी सौंदर्य के प्रति इस प्राथमिक आकर्षक का स्थायी प्रभाव इनके जीवन पर छाया रहा।
पर्वत्य प्रदेश के नारव वातावरण में मानसिक क्लान्ति बहुत कुछ कला की मूक साधना में परिणत हो गई । विपन्न स्थिति और मानसिक ऊहापोहों में भी ये अपने साथ रंग और कूची ले जाना न भूले थे । ज्यों-ज्यों इनकी अनुभूतियाँ परिपक्व होती गई वे इनके भीतर प्राणो मे गहरी उतरती गई । हिमालय के रजत शिखर, हरी-भरी तलहटी और वहाँ वसने वाली विचित्र पहाड़ी जातियों का इन्होंने  सुन्दर चित्रण किया । इस खानाबदोश शिल्पी के तूलिका-स्पर्श ने उस सजीव कला को मूत्र्तिमान किया जिसमें निराकार की अनुभूति और गहरा आध्यात्मिक चिंतन निहित था । तिब्बत में भ्रमण करते इन्हें एकान्त साधना का सुअवसर मिला था। प्रकृति के साहचर्य और वहाँ की सौंदर्य-श्री में मानो इनका समग्र व्यक्तित्व उद्भासित हो उठा । एकान्त निष्ठा ने इनकी अंतरंग वृत्तियों को इस हद तक उभाड़ा कि इनकी कला-चेतना किसी अज्ञात, इन्द्रियातीत के प्रति दृढ आस्था में बद्धमूल हो गई।
ये आध्यात्मिक संस्कार इनके भीतर इतने धंस गए कि इनका असर मृत्यु तक न मिटा । संघर्षों और परेशानियों में ही इन्होंने कला के ,सत्यं, शिवं, सुन्दरम, को पाया था । तिब्बत के भयंकर शीत, घृणोत्पादक गन्दगी, गरीबी और बीमारियों ने इनमें सृजन की चाह जगाई और कलात्मक संकेतों के प्रति इनकी उत्तरोत्तर निष्ठा बढती गई। अपने चारों ओर के पर्यवेक्षण और जीवन के प्रति अंतःप्रेरित व काल्पनिक अनुभूति के फलस्वरूप, किन्तु साथ ही पर्वतों की गोद में पले भोलेभाले लोगों के सम्पर्क ने इनमें ऐसी संवेदना जगाई कि वे उनकी आत्मीयता में खो से गए। भीतर के मूक समाधान और सहृदय वातावरण की अनिर्वचनीय अनुभति ने इनकी की सीमाओं को विराट् बना दिया था। अखंड सौन्दर्य-चेतना से इनका अन्तर्वांह्य दीप्त हो उठा था। क्या कभी ये अपनी जन्मभूमि भारत लौट सकेंगे-इसकी इन्हें आशा तक न थी।
किन्तु एक दिन दुर्दम्य इच्छा इन्हें स्वदेश ले आई । फक्कड़ जिन्दगी से सुस्थिर हो जाने ओर बेगाने लोगों से आत्मीय जनों के बीच प्रश्रय पाने में इन्हें विचित्र सुख की अनुभूति हुई। हिमालय की ओर प्रस्थान करने से पहले इन्हें पोर्टेट चित्र बनाने का शौक था जिससे अभी तक उनका पूरा लगाव न छटा था। अन्य समवयस्क साथियों के साथ इन्होंने कलकत्ता के स्कूल आफ आर्ट में. शिक्षा पाई थी, पर उनसे इनका मत-वैभिन्न्य था । हेवेल और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा चलाए अभिनव कला-आन्दोलन के ये घोर विरोधी थे। बर्जा कलादर्शों को अपनाना अथवा अजंता की और वापसी इन्हें मान्य न थी। आखिर कला में पुरानी लीक को पीटते रहने से ही कौन-सा चमत्कार उत्पन्न होगा यह इनकी समझ में न आया था। इसके विपरीत टिशियन, वालस्केज, रेम्बरेंट आदि विदेशी कलाकारों के ये अनन्य भक्त थे और यामिनी राय की भाँति कला में वैचित्य और नवीनता के कायल थे।
किन्तु वापिस स्वदेश लौटकर इनकी अभिरुचि में पर्याप्त परिष्कृति आ गई थी। इनकी विचारधारा आवेशपूर्ण न होकर शान्त व सहज थी और ये प्राचीन कला-परम्पराओं के विरोधी से उनके प्रबल समर्थक व प्रशंसक हो गये थे। इन्होंने सामान्य वस्तूत्रों को भी एक भिन्न दृष्टि से देखा। भ्रमणशील जीवन में जो संस्कार भीतर रम गये थे वे नये स्वर से फूट पड़े । पुरानी स्मृतियों ने इनमें एक नई प्रेरणा जगा दी । इन्होंने अपनी कला द्वारा आत्मज्ञान का प्रतिपादन किया। कला को शाश्वत मानकर जीवन के अनुभवों का उपयोग इन्होंने आध्यात्मिक और रहस्यात्मक दोनों रूपों में स्वीकार किया है । हिन्दू देवीदेवताओं को शक्ति का स्रोत मानकर इन्होंने रूपक एवं प्रतीकों का प्रश्रय लेकर चित्र-कल्पना सी की, यद्यपि ऐसा चित्रण भावातिरेक में आध्यात्मिक गाम्भीर्य तो लेकर प्रकट हुआ, पर उसमें सौन्दर्य की समग्रता का समावेश कम हुआ । सांख्य दर्शन से प्रेरित पुरुष और प्रकृति में लंगड़े वृद्ध और अंधी तरुर्णी की चित्र-कल्पना प्रस्तुत कर प्रकृति और पुरुष से सादृश्य व सहभाव स्थापित किया गया है । लंगड़ा वृद्ध व्यक्ति (जो पुरुप है) नेत्रहीन सुन्दर युवती (जो प्रकृति है) के कन्धों पर चढ़ा हुआ है । पुरुष पथ-निर्देश कर रहा है और अंधी युवती के रूप में प्रकृति दुर्बल कन्धों पर असह्य भार लिये लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़ रही है । इस प्रतीक कल्पना से यह व्यंतित होता है कि प्रकृति और पुरुष एक दूसरे पर निर्भर हैं, दोनों परस्पर के सहयोग से ही पूर्ण हैं तथा प्रगति और विकास में एक के बिना दूसरे का काम चल नही सकता । लक्ष्मी, दुर्गा और शारदा इन तीनों देवियों के चित्रण में पृथक-पृथक भाव और उनकी शक्ति रूपायित हुई है । अक्षय रूप-श्री और ऐश्वर्य की भण्डार लक्ष्मी, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों गुणों को चार हाथीे द्वारा (जो मेघों की सी रूपच्छविऔर धनता लिये हैं) व्यंजित कर रही है। चारों हाथी देवी की अम्यर्थना में जल-सिंचन कर रहे है जो समस्त मानवता का कत्मष धोकर कल्याण और भौतिक सुख-समृद्धि के द्योतक हैं । दुर्गाश् में भैसे के रूप में तामसी शक्ति का दमन और शारदा में देवी के सिर के ऊपर चमकते तारे के अवतरण से अंतर्ज्योति का आलोक झरता हुआ दर्शाया गया है । इन त्रिदेवियों के चित्रण में धार्मिक भावना का आवेश तो है, पर सूक्ष्म सौंदर्य-तत्त्वों का विश्लेषण अथवा गुप्त सत्य के निस्तल में पैठने की चेष्टा नही की गई है। उषा और वरुण, मनसा देवी, गायत्री, चित्रगुप्त, अश्विनी कुमार आदि चित्रो में प्रतिरूप तो उभर आए हैं, किन्तु सूक्ष्म कल्पना गौण पड़ गई है । विराट सौन्दर्य देवत्व की मात्र छाया बनकर उसी के वृत्त में समाया हुआ सा ज्ञात होता है। इसके विपरीत इनका सुप्रसिद्ध चित्र श्चन्द्रशेखरश् शिव की केन्द्रीय चेतना से दीप्त हो उठा है। प्रमोद कुमार चटर्जी की यह कृति असाधारण है और इसमें अद्भुत विराट के दर्शन होते हैं । सर्वप्रथम जब यह चित्र कलकत्ता की प्रदर्शनी में रखा गया तो इस पर कलाविदों का विशेष ध्यान न गया था, पर अकस्मात् एक जर्मन प्रेक्षक ने इसके सौन्दर्य पर दृष्टिपात किया। वह इसके ज्योतिर्मय, शांत, महिमोज वल रूप पर मुग्ध हो उठा और इसमें धार्मिक विशिष्ट गणों से पृथक सौन्दय का संधान किया। तत्पश्चात् डाक्टर कजिन्स ने इस चित्र पर कितने ही महत्त्वपूर्ण भाषण देकर और पत्रों में छापकर इसकी खूबियों को दुनियाँ के सामने रखा और इसका महत्त्व बढ़ाया।
शिव का यह चित्र अभूतपूर्व बन पड़ा है। अंतर्द्रष्टा कलाकार ने अशेष अंतर्भाव को स्वप्निल सम्मोहन में परिणत कर दिया है। शोभा से वेष्टित शिव का मंगलमय रूप ऊपर से जितना ही शांत और सौम्य है उतना ही अतुल्य ऐश्वर्य से मंडित भी। सिर पर सर्प की फुकार और भीतर तीव्र विषदाहक ज्वाला को छिपाए हुए भी अंतरतम की तन्मय लय में भावोल्लास की रश्मियां भाल पर विकीर्ण हो रही हैं, चन्द्र के संयोग से वह और भी दीप्त हो उठा है तथा मूक द्युति से सज्जित शिव की रूपच्छटा स्वर्गिक आभा बिखेर रही है। इस चित्र में कलाकार ने आध्यात्मिक शक्ति की समग्रता को साकार करने की चेष्टा की है। जल रंगों में यह इकरंगा चित्र प्रवहमान गहरी रेखाओं द्वारा आंका गया है। भाल पर की श्वेत चन्द्ररेखा (जिमने शिव की जटाओं, सर्प और नासिकाग्र को ज्योतित किया है), मस्तक पर चतुर्दिक मण्डलाकार प्रकाश और गले में धारण की हुई मुण्डमाल-यह सब--सफेद कागज की पृष्ठभूमि से दर्शाया गया है । केवल एक रंग से ही शिव की महत् कान्ति प्रस्फुटित हो उठी है।
धार्मिक चित्रों के अतिरिक्त प्रमोद कुमार चटर्जी ने योद्धाओं और ऐतिहासिक महापुरुषों के चित्र भी अंकित किये हैं। इन्दौर के श्होम ग्राफ ग्रेटनेसश् के लिये अशोक महान् का खास तौर से चित्रांकन किया था । यह वह विस्मयकारी ऐतिहासिक क्षण है जबकि सम्राट अशोक राजसी ठाठबाट में स्वर्ण-सिंहासन पर बैठा हा कलिंग युद्ध की अकल्पनीय भीषणता का स्मरण कर और कत्ल हुए शत्रुओं का चिन्तन कर हिंसा की प्रतीक तलवार को बायें हाथ में धारण किये मन में अहिंसा का संकल्प कर रहा है। वह अपनी समस्त क्रूरताओं और विजयाकांक्षाओं का दमन फर बौद्ध धर्म को गले लगाने और उसके प्रचार की बात सोच रहा है। उसके चेहरे पर विषाद, मोहहीन तन्द्रा और क्रमशः उभरती स्थिति साकार हो उठी है। अशोक के जीवन के इस महान क्षण को चित्रांकन करने का कलाकार ने प्रयास किया है और वह इसमें एक हद तक सफल भी हुआ है। "भगीरथ और गंगा" "नर्तकी अम्बपाली" "श्यामांग शारदा" और "अश्विनीकुमार" आदि चित्र आध्यात्मिक भाव से प्रेरित हैं।
प्रमोद कुमार चटर्जी ने आन्ध्र प्रान्त में कला का खूब प्रचार किया। इनके शिष्यत्व में कितने ही उत्साही कलाकार बनकर निकले और उन्होंने ख्याति भी पाई। मछलीपट्टम के श्नेशनल कालेजश् में ये वर्षों अध्यापन कार्य करते रहे और फिर बड़ौदा के गवर्नमेंट टेकनीकल स्कूल में कार्य किया। मैसूर के जगन्मोहन पैलेस की चित्र गैलरी में और त्रिवेन्द्रम के श्रीचित्रालयम में इनकी कितनी ही कलाकृतियाँ सुरक्षित हैं। ये पुनः आन्ध लौट आये हैं और कला एवं संस्कृति के प्राचीन केन्द्र अमरावती के समीप अपना निजी शिक्षणालय स्थापित कर आज भी कला की मूक साधना में निरत हैं।
प्रमोदकुमार चटर्जी की मृत्यु सन 1979 ई० मे हुई।

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