पुलिन बिहारी दत्त कलकत्ता में देवीप्रसाद राय चैधरी और प्रमोद कुमार चटर्जी के समकालीन थे और उन्हीं की भाँति अवनी बाबू के शिष्य थे, पर एकान्त अनुभूति और रागात्मक संस्पर्श में सभी से निराले थे। अल्पवय में ही कला के मर्म में पैठने की इनकी वृत्ति सजग हो गई और रंग व रेखांकन के आजादी का गीत सौंदर्य को परखने की क्षमता भी अद्भुत थी। तत्कालीन, गवर्नर लॉर्ड रोनाल्डशे, जो सौंदर्य-प्रेमी और कला-मर्मज्ञ था, इनके बनाये चित्रों को देखकर इतना मुग्ध हुआ कि इस किशोर कलाकार से मिलने को आतुर हो उठा और स्वयं मिलकर पीठ ठोकने तथा चित्रों की सर्जना के लिये देने का लोभ संवरण न कर सका । लॉर्ड रोनाल्डशे से हुई इन्टरव्यू और उन दिनों के अपने चित्रों की चर्चा करते हुए पुलिन दत्त लिखते हैं "मैने जो कुछ चित्र उधर बनाये, वे भावोत्तेजना से प्रेरित होकर आँके गए। अतएव वे मेरे हृदय के अधिक निकट हैं। हमारे परिवार में एक बार एक दुख घटना घटी जिससे मेरे दिल पर गहरा सदमा पहुँचा। मेरा कृतित्व इसके असर से अछूता नहीं रह सका। मैंने उस समय दो चित्र बनाये थे जिनके शीर्षक थे मृत्यु। रोनाल्डशे ने इन चित्रों को बड़े चाव से खरीदा। उन्होंने मुझसे मिलने की भी इच्छा प्रकट की। वे मुझसे चित्रों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना चाहते थे । उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरी उम्र इतनी कम है। उन्होंने पूछा कि इस कच्ची उम्र में भी मृत्यु जैसी वीभत्स वस्तु को चित्रण करने के क्या अर्थ हैं । मैंने उन्हें बताया कि सिर्फ प्रयोग के लिए नहीं, अपितु इन चित्रों को चित्रण किये बगैर मैं रह नहीं सकता था। जिन्दगी ही क्यों, दृश्यमान जगत का समस्त सौन्दर्य भी उस समय मुझे अस्थिर और नाशवान जान पड़ता था, केवल मृत्यु ही मुझे सत्य और अवसादमयी वास्तविकता जान पड़ी। मृत्यु जैसी घटना अप्रतिम तो न थी, किन्तु इनके जीवन पर उससे गहरा प्रभाव पड़ा। फिर भी वे ऐसे कलामय वातावरण में पले थे कि शीघ्र ही मन को संयत कर वे एक निश्चित पथ के अनुगामी बन गए।
अपने अन्य साथियों की भाँति पुलिन दत्त ने कभी अंधाधुंध चित्रण नहीं किया। उन्होंने चित्रांकन के लिए जो कुछ प्रयास किया-बड़े धैर्य से, आत्म-विश्वास से और अपनी धीमी श्रम-साधना से सम्पन्न किया। इसका कारण है कि वे अपनी भावना का खुला प्रदर्शन अथवा छिछला बौद्धिक विलास पसन्द नहीं करते । वे जीवन की सूक्ष्मताओं में गहरे उतर कर उसके मर्म में पैठना चाहते हैं। नन्दलाल बसु की भाँति वे भी अल्पभाषी हैं. वे संयत. सहज प्रणाली को अपनाने के कायल हैं और सच्ची गति से कला-सौन्दर्य के विविध पहलों पर दृष्टिपात कर अपने एक खास नाज-अन्दाज से देखते-परखते. समझते-बूझते, उसकी खूबियों और अंतविरोध को पहचानते हैं । जब उनकी भावनाएँ अधिक वेग और आवेग से उमड़ती हैं तो इनके नेत्र वाणो की अपेक्षा अधिक मुखर हो उठते है। मूक रह कर उनकी चेतना ज्यादा जागरूक रहती है । वे अपने लक्ष्य, उद्देश्य, स्थिति, सामर्थ्य, साधन और गति की ओर निर्द्वन्द्व अनुधावित होते हैं।
"संन्यासी के वेश में बुद्ध" "सिद्धार्थ और यशोधरा" "अशोक" "उत्सव का दिन" आदि उनके कुछ सुप्रसिद्ध चित्र नव्य बंगाल कला शैली और परंपरा का निर्वाह करते हुए धुंधले रंग, सुकोमल रेखाओं और हल्के ब्रष से अवनी ठाकूर से प्रेरित होकर आँके गए हैं। इनकी सौंदर्य ग्राहिणी वृत्ति संयत संस्थिति और सर्वातिशयता को पाने के लिए प्रारम्भ से ही इतनी तन्मय रही है कि भावाधिक्य में इनकी व्यंजना अत्यन्त सूक्ष्म, पर सचेत होकर प्रकट हई है। कभी-कभी इस चिन्तक कलाकार की अन्तश्चेतना उस शीर्ष-बिन्दु के पार झाँकती है कि जहाँ उसकी सृजन-शक्ति बुद्धि स्थिति से मुक्त होकर अद्भुत सौंदर्य-रूपों को स्फरित करती हई भीतर से शक्ति खीच कर नये-नये अचरज भरे प्रतीकों में उभरती है। "मीरा" इनकी एक ऐसी ही असाधारण कृति है। कृष्ण-प्रेम में विह्वल मीरा के भाव-बिम्ब का बड़ा ही अपूर्व गत्यात्मक चित्रण है। अपने इष्ट बालक कृष्ण की मूत्र्ति के समक्ष उसकी नृत्य भंगिमा और मेरे तो गिरिधर गोपाल दुसरो न कोईश् की अविभाज्य अनुभूति चित्र की घनीभूत एकप्राणता में रम गई सी प्रतीत होती है। मीरा का भावोन्माद और अंतः प्रेम की उच्छल हिलोरें इतनी प्रबल और आवेगपूर्ण है कि शरीर की गतिशील आकूल त्वरा, दोनों कोमल करों और पैरों की थिरकन, साड़ी की सिहरती लहरें, उद्भ्रान्त निराली आँखें और मुख का समर्पण भाव सार्वजनीन रसोद्बोधन करता हुआ समताल, मय लय और समगति में एकाकार सा लगता है। पूर्वदेशीय टेकनीक व पद्धति पर समतल शैली में यह इकरंगा चित्र अंकित हुआ है । रेखाएँ इतनी मुखर और सजीव बन पड़ी है कि मीरा की आँखों में जो विराट् अचिन्त्य भाव है वह चित्र में उसकी मर्मान्तक व्यथा और प्रिय को पाने की प्राकुलता को सहज रूप में व्यंजित कर रहा है। मीरा का जो महामानवी रूप है वह इम इकरंगे चित्र में अधिक स्पष्ट और गहरा हो उठा है।
"बुद्ध" का रंगीन चित्र भी बड़ा ही मार्मिक और प्रभावशाली है। "आजादी का गीत" और "चिन्तनरत वृद्धा" में भावव्यंजना सुन्दर है। जहाँ इनके चित्रों की सत्ता भाव-व्यापार में लीन हुई सी लगती है वहाँ रंगों का स्तर हल्का, प्रायः नगण्य और पृष्ठिका धूमिल हो जाती है । श्चित्तौड़ की पद्मिनीश् पर इनका एक अधुरा चित्र है जो राजपूती शान और सौंदर्य का दिग्दर्शक है। राजस्थान की चमचमाती धुप में यह वीर क्षत्राणी अपने सौंदर्य को विखेरती हुई बड़ी ही शानोशौकत में खड़ी है जिसके एक संकेत पर कितनी ही राजपूत ललनाएँ प्रचण्ड अग्निशिखा में हँसते हँसते कूद पड़ी थीं और न जाने कितने वीर योद्धाओ ने रणक्षेत्र में खून की होली खेली थी। हरे, काले, लाल, सफेद रंगों के मिश्रण से एक बालिका की शीर्ष प्राकृति बड़े ही आकर्षक ढंग मे निमित हुई है। पुलिन दत्त ने महात्मा गांधी का भी एक सून्दर चित्र बनाया है, जिमको उनके कतिपय अनुयायियों ने खूब सराहा है । इनमें सृजनकांक्षा श्स्वान्तः सुखायश् है। अपने बनाये चित्रों को प्रदर्शित करना अथवा सहज आर्थिक दृष्टि से बेचना उन्हें पसन्द नहीं । वे अपनी प्रशंसा से प्रोत्साहित हुए हैं, परन्तु प्रभाव की व्यंजना में अपने कृतित्व या व्यक्तित्व में कभी श्स्वंमश् को विस्मृत नहीं किया। भाव-सौंदर्य के ऐश्वर्य की वृद्धि के लिए इन्होने मुख्यतः चित्र-सृष्टि की है । एक सच्चे कलाकार की भाँति अनंत चिर सुन्दर की शाश्वत अभिव्यक्ति ही इनकी कला का उद्देश्य रहा है । प्रायः प्रत्येक कलाकृति में उनके हृदय के भाव-विशेष की उदभावनाएँ उनके विकासशील चेतना की साक्षी रही हैं । इन्होंने बालकों को कला की शिक्षा देने में अपने जीवन की अधिकांश शक्ति व्यय की है । बम्बई के शिक्षणकेन्द्र में "दत्त सर" के नाम से वे अपने छात्रों में अत्यंत प्रिय रहे हैं। उनके अनेक विद्यार्थी उच्चकूलीय हैं, साथ ही सामान्य वर्ग के भी कम नहीं हैं, फलतः उनमें सबके प्रति सामंजस्यपूर्ण स्नेहिल भाव की आर्द्रता है । अमीर-गरीब, छोटे-बड़े-जिनमें अधिकतर बच्चे हैं-उन्होंने न केवल ड्राइंग बनाने की शिक्षा दी है, अपितु भारतीय जीवन में सच्चे अर्थों में वास्तविक सौंदर्य को खोजने की प्रवृत्ति भी जाग्रत की है।
पुलिन दत्त ने बम्बई में श्चाइल्ड आर्ट सोसाइटीश् की स्थापना की है। यह संस्था समय-समय पर कला-प्रदर्शनियों और बच्चों के शिक्षण की व्यवस्था करती रहती है। बच्चों के स्नेह से इनका कलामय जीवन अधिक सुन्दर और सरस हो उठा है। इनकी अंतरंग और बहिरंग अनुभति समयोचित महिमा की उपलब्धि कर कला-विकास के स्वर-संधान में संलग्न है