जार्ज कीट {Jaarj Keet}

जॉर्ज कीट का जन्म 1901 में हुआ था। जार्ज कीट सिंहली हैं, पर उनकी कला-निष्ठा और विश्वासों की जड़ें इसी धरती की मिट्टी और खास कर बम्बई की संस्कृति से पोषित हुई हैं। उनकी चित्रांकन-पद्धति और मुख्यतः डिजाइनों के रूपान्तर पर यूरोपीय कला-शैलियों का प्रभाव है, पर उनकी हर कृति अपने रूप और अभिव्यक्ति में अनिवार्यतः भारतीय होती हैं और यहीं के वातावरण से अपनी शक्ति और अस्तित्व ग्रहण करती है।  जार्ज कीट की निर्माण-पद्धति में एक अद्भुत वैचित्य और रंगमयता है जो सधे हाथ की सफाई और शैली की गहराई से युक्त उनकी कल्पना को ऐसे ऊँचे अनन्त में उड़ा ले जाती है जहाँ चमकीले रंगों की एकतानता अर्थात् इनके अपने जन्मस्थल कैंडी के खलिहानों की हरीतिमा, संध्याकालीन सूर्यास्त की स्वर्णाभा, दोपहर की चिलकती तेजी और मंद, सुखद, गंभीर बासंती सौम्यता जिनमें सिंहल द्वीप (सीलोन) के थिरकते-मचलते रंगों का मोहक सम्मिश्रण है-एक अजीब मस्ती या ऊँघ की सी व्यंजना करती हैं । ये रंग ही इनकी सृजनप्रतिभा को शह देते हैं, पर ये रंग यत्र-तन्त्र छिटके हुए नहीं अपितु सुसज्जित आकारों में तरतीव से संश्लिष्ट हैं जिसमें हर रेखा के साथ दूसरी अनुवत्ती रेखाओं का रंगों से समन्वय कर चित्र की पृष्ठभूमि में सुरुचिपूर्ण पद्धति और कल्पना की सशक्तता के साथ उन्हें सयुक्त कर दिया गया है।
रेखाएँ इनकी कला में विशेष महत्त्व रखती हैं। ज्यामितिक ढांचों में त्रिकोण चतुष्कोण, समकोण, दीर्घ वृत्ताकार, चक्राकार, घुमावदार, पेंचदार अथवा यदा कदा सीधी-सपाट रेखानों को गूंथकर तथा एक संदर्भ से दूसरे का मिलान कर इन्होंने विभिन्न श्मडोंश् का या कहें कि स्वभावगत चारित्रिक विशेषताओं का बड़ा ही अपूर्व दिग्दर्शन कराया है । आकार के अनुरूप ढाले हुए इनके कोमल तरल रंग आवेगमय, भावात्मक स्थितियों तथा प्रेम, भय, उदासी, उत्फुल्लता आदि की अभिव्यंजना करते हैं। इस प्रकार इन्होंने अपनी संवेदनाओं आदि को इन ज्यामितिक बिम्बों में सजीव और सप्राण बनाने की चेष्टा की है । इनकी कुछ प्राथमिक कृतियाँ-"गट्ठर उठाए औरतें", "सारंगीवादिनी बालिका" , आदि कतिपय कला कृतियो में कोण युक्त वक्रता होते हुए भी गेय भावमयता है जो विभोर कर लेती है, परन्तु इनकी परवर्ती कृतियों में दुरूह गढता और अव्यंजकता जिनमें मंश्लिप्ट विषय प्रमुख और व्यंजक भाव गौण हो गए हैं।
जार्ज कीट के चित्रों में बौद्धिक विवरणात्मकता के बावजूद कोमलता का संस्पर्श भी है जिसमें व्यक्ति की स्नायविक प्राकृति की निर्माण-प्रक्रिया को मुक्ष्मता से आँका गया है । यद्यपि इनका कला-विधान निराला और विचारस्वातंत्र्य का द्योतक है तथापि इस प्रकार इन्हें एक नई दृष्टि मिली है। यह शैली इनके कृतित्त्व में मानो अपने पाप रूप ग्रहण करती गई है।
कहना न होगा कि यह अजीबोगरीब शैली इनकी अपनी है. सर्वथा मौलिक पौर स्वतःप्रेरित, किन्तु जहाँ तक भावमय रूपाकारों के अन्वेषण का प्रश्न है इनकी कला पर फ्रांसीसी चित्रकला-मुख्यतः पिकासो, सेजाँ और ब्राक का प्रभाव पड़ा है। भारत और लंका की कला-परम्पराएँ, आधुनिक युग की कितनी ही कला-धाराएँ, महाभारत के प्राख्यान और प्रसंग, पौराणिक कथा-उपकथाएँ, गौतम बुद्ध सम्बन्धी जातक और जैन-गाथाएँ, दक्षिणी भारत के मंदिरों की गोपुरम् पर अंकित मूत्र्तियाँ, अजंता और सिगिरिया के भित्ति-चित्र, भरतनाट्यम् की विविध नृत्यभंगिमाएं, वाद्य संगीत और राग-रागिनियों ने इन्हें बेहद प्रभावित किया है। अपनी अभिनव जीवन-दृष्टियों और नित-नई सामंजस्यशील कलाटेकनीक द्वारा इन्होंने पूर्व और पश्चिम के छोरों को छुआ है।
इस प्रकार इन्होंने कला परम्परा में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये हैं। फ्रान्स का घनवाद(बनइपेउ),अतिवस्तुवाढ ;नततमंसपेउ) और नव्यरूपवाद  रूप-विधान सर्वथा नये ढंग से । इनकी कला में उजागर हुआ। है, पर इस नवीनता के आग्रह में वह बहुतों को दुरारूढ़ और अविश्वसनीय प्रतीत होता है। कुछ लोगों के मत में पिकासो किसी बेमेल पद्धति इनकी कला की भी विशेषता है। इन्होंने अपने तरीके से सेजाँ का ठोस घनत्व, ब्राक की सतही सतर्कता शिरिको का भीड़ से भय, दयफी का रूप-विधान सर्वथा नये ढग से की कला के प्रणेता रेखांकन-वैलक्षण्य, मातीस के पैटर्न और डिजाइन, फाब्ज की रंग-नियोजना, यहाँ तक कि हेनरी मर का अंतर्मनोविज्ञान प्रच्छन्न रूप से निजी कला पर विघटित किया है, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि इनकी कला एक अनर्गल रूपान्तरण अथवा प्रायासपूर्ण अनुकृति मात्र है । बौद्धिक रागात्मक उन्नयन के स्तर पर बिना किसी की सहायता लिये, किन्तु निरन्तर क्रियाशील रहकर इन्होंने अन्य कलाकारों के प्रभावों को प्रशंसात्मक रूप में आत्मसात् किया और कला के सूक्ष्म अंत मूत्रों और कल्पों में रेखाओं और रंगों को कुछ अपने ही खास निराले ढंग मे गंथ दिया है। इन्हें सर्वाधिक प्रेरणा भारतीय मूर्तिकला और लोक कला से मिली है। नारियों के आकार द्रावडी पद्धति पर भारतीय और लंका की संस्कृति के सजीव उदाहरण हैं जैसे अंग-प्रत्यंगों के अनुपात, केशविन्यास, त्वचा के रंग, शरीर गठन और आँख-नाक की बनावट और कितनी ही रुचियों, सक्षम प्रक्रियाओं और व्यवहृत रूपों और सूक्ष्म से सुक्ष्म ब्यौरों में मानव सम्बन्धों की विविधता और बहुरूपता है। किन्तु कई बार इन मानवी प्राकृतियों में अनेक तरह के अजीब मोड़-तोड़ और विपर्यय नजर आते हैं जो इस कलाकार के अपने अंतर्द्वन्द्व के द्योतक हैं। इनकी संवेदनाओं की वक्र अभिव्यक्ति, जो एक प्रकार का वैचित्र्य लिये है, हरेक की समझ के बूते की चीज नहीं है। वह ऐसी सीधीसादी नहीं जो चुपचाप हृदय को छू ले, बल्कि अपने खास नाज-अन्दाज में नये युग की उलझन और वैषम्य को समेटे अजीब आकर्षक रखती है और कला के मर्मज्ञ को समेटे अजीब आकर्षक रखती है और कला के मर्मज्ञ को विमुग्ध कर लेती है । यही कारण है कि अपनी इस विशिष्टता से ही इनकी कला इतनी लोकप्रिय और हृदयस्पर्शी बन सकी है। 
जार्ज कीट बौद्ध धर्मानुयायी हैं । लंका के सरल ग्राम्य जीवन के स्वच्छन्द वातावरण में रहकर इनकी । कला-चेतना अधिकाधिक मुक्त होती गई है।  "कोलम्बो, बम्बई और नई दिल्ली में इनके चित्रों " की कई प्रशिनियाँ हई हैं। सीलोन में लायनेल , वेनडेट मेमोरियल और एच.पेयरिस और भारत में 5 मार्टिन रसेल और मुल्कराज प्रानन्द के कला-संग्रह में इनकी अनेक महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ सुरक्षित हैं । इनकी एक विशेषता जिसने कला की दिशा में नई लीक कायम की है वह यह कि इनकी अपनी भिन्न शैली का एक मौलिक और नितान्त निजी ढंग है । उसी के सहारे ये आगे बढ़े हैं। अपने नये-नये प्रयोगों और एस्थेटिक अनुभूति को जगाने वाली निर्माण प्रक्रिया द्वारा वे अपना सामहिक प्रभाव छोड जाते हैं जंमन और प्राणों को छूता है।
इनकी मृत्यु 1993 मे हुई

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