रमेन्द्रनाथ चक्रवर्ती {Ramendranath Chakraborty}

1902 में त्रिपुरा में कुछ हद तक रूढ़िवादी और सीखा परिवार में जन्मे, रामेंद्रनाथ की औपचारिक कला शिक्षा तब शुरू हुई जब वे 1919 में सरकारी स्कूल ऑफ आर्ट में शामिल हो गए और अपनी पारंपरिक पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। दो साल के भीतर उन्होंने कलकत्ता छोड़ दिया और 1921 में नव स्थापित कला भवन में शामिल होने के लिए शांतिनिकेतन पहुंचे
यह सम्पूर्ण सृष्टि, यह समस्त दृश्य-जगत उन कलाकारों को, जो कि चित्रण पद्धति में विभिन्न साधनों का प्रयोग करके रेखाओं और ...ष् लकीरों की सहायता से अपनी कल्पना एवं अन्तरंग भावनाओं को साकार करते हैं, सर्वथा उन्हें कवि और नृत्य अपनी पृथक् दृष्टिभंगी से एक रेखामय जीती-जागती तस्वीर-सा ज्ञात होता है । उन्हें संसार की प्रत्येक वस्तु में वास्तविकता की प्रतीति होती है, उसके रहस्यमय अन्तर में उस शाश्वत सत्य का आभास होता है, जो कि दृष्टि-शक्ति की सजगता एवं कर्मशक्ति की सहायता से प्रकृति की रंजित शोभा और उसकी कलामय मधुर रंगीनियों में खो-सा जाता है। उनकी कल्पना कभी थकना नहीं जानती, उनकी अभिव्यंजना का आवेग कभी कम नहीं होता, उनकी कलात्मक सृजन-शक्ति कभी परिश्रांत होकर विश्राम नहीं करती। जो निरन्तर बिना थके, अविचल भाव से, विस्मय भरे विमुग्ध नेत्रों से इस सृष्टि की आश्चर्यजनक वस्तुओं को निहारा करते हैं और जिनकी उत्सुकता कभी नष्ट नहीं होती, जो जगत् के मर्म में पैठना चाहते हैं, जो अखिल विश्व ब्रह्माण्ड की प्रत्येक कौतुक क्रीड़ा में ओतप्रोत हो जाना चाहते हैं, वे ही वस्तुतः चिरन्तन कला की सूक्ष्मताओं को रेखाओं द्वारा पकड़ पाने में सक्षम हैं । रेखा-चित्रकारी में वृक्ष, पाषाण, मानव आकृति अथवा किसी गाँव या नगर की गली बहुत अस्पष्ट और धुंधली हो जाती है तथा वुड-कट अर्थात् लकड़ी पर की गई चित्रकारी या खुदाई में तो वह और भी छायामय हो जाती है, किन्तु सूक्ष्मद्रष्टा कलाकार, जो कि रेखा-चित्रकारी में पूर्ण पारंगत है, अलंकरणमयी स्फूट रेखाओं से सजीवता लाने का प्रयास ही नहीं करता, प्रत्युत् एक आश्रम का कुत्रा सीधी गहरी रेखा से चित्र और आकृति का निर्माण भी सम्पन्न कर देता है। यह प्रमुख रेखा एक बार अच्छी प्रकार उभर आने पर चित्रित विषय को सजीव और वास्तविक बना देती है। सुप्रसिद्ध बंगाली रेखा-चित्रकार श्री रमेन्द्रनाथ चक्रवर्ती इस प्रकार की रेखा-चित्रकारी में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन्होंने रेखाओं की मोड़-तोड़, लकीरों की विविधता, बनावट तथा लकड़ी में गहराई से चित्रण करने की पद्धति को निजी ढंग से विकसित किया था । एक सीधी-गहरी रेखा द्वारा चित्र बनाने की कला में भी वे पूर्ण दक्ष थे। अतएव सीधी अथवा आयताकार रेखा से ही बहुत शीघ्र सरलतापूर्वक बत्तख, कबूतर, वृक्ष आदि चित्र बना डालते थे।
प्रारम्भ से ही कला-शिक्षण इनका महत्त्वपूर्ण ढंग का रहा । स्वयं कलागुरु अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रारम्भ में इन्हें कला की दिशा में अग्रसर किया था। कलकत्ते में दो वर्ष तक शिक्षण प्राप्त कर ये बाद में शांतिनिकेतन की उस अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षण संस्था में आ गए जिसे कुछ वर्ष पूर्व विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने हाथों जन्म दिया था। वहाँ नन्दलाल वसु के चरणों में बैठकर ये कला की साधना में प्रवृत्त हुए । नन्द बाबू ने कला-टेकनीक और रेखांकन के उन गोपनीय रहस्यों से इन्हें अवगत कराया जो अनेक सम्मिश्रित कला-शैलियों को वहन करने में इन्हें समर्थ कर सका। चक्रवर्ती की कला पर प्राचीन भारतीय, फारसी और चीनी चित्रण पद्धति की गहरी छाप पड़ी। शिव-विवाह, भगवान तथागत की जीवन-घटनाओं को लेकर आँके गए चित्र तथा और कितने ही पौराणिक एवं धार्मिक विषयों के चित्रण में यही पद्धति अपनाई गई। इनकी कला यहीं तक सीमित नहीं रही, इन्होंने टेम्परा में अजन्ता की रेखांकन-शैली पर रोजमर्रा के दश्यों का चित्रण किया। चूंकि नये-नये विषयों के लिए नये-नये तौर-तरीके ईजाद करने थे, इन्होंने रंग-मिश्रण की अपनी विशिष्ट प्रणाली और अति प्रचलित एवं रूढ़ कला-सिद्धान्तों को एक दूसरे ही रूप में अख्तियार किया । छः वर्ष तक शांतिनिकेतन में रह कर इनकी सृजन-बुद्धि का इतना व्यापक प्रसार हुआ कि ये कला में विरोधाभासों और असंगतियों का भी समचित सामंजस्य दर्शा सके। इन्होंने समयानुसार भारत और लंका का भ्रमण करके अजन्ता, सिगिरिया और भारत की प्राचीन कला-परम्पराओं को हृदयंगम किया। हिमालय पर्वत, बदरीनाथ के हिमाच्छादित श्रृंग और केदारनाथ की पैदल यात्रा करके इन्होंने वुडकट पर चित्रावली तैयार की जो ष्हिमालय की पुकारश् के नाम से प्रख्यात है। नन्दलाल वसु के प्रोत्साहन से ग्राफिक कलाओं को ओर भी इनका झुकाव हो गया। सुचित्रित वुडकट पद्धति पर इनके घर का आँगन चित्रों की एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भूमिका लिखी है।
धातुओं पर इचिंग का अभ्यास करने पर इस शिल्प के पाश्चात्य कलाचार्यों के विशिष्ट तरीकों को सीखने की इनमें आकांक्षा जगी। सन् 1937 में इन्होंने यूरोप के लिए प्रस्थान किया। लन्दन के सेण्ट्रल स्कूल ऑफ आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स में डब्ल्यू. पी० राबिन्स के तत्त्वावधान में इचिंग, एक्वेटिंट और प्रिटिंग की टेकनीक का इन्होंने विशेष अध्ययन किया। इरिक गिल और सर मूरहेड बोन ने लकड़ी की खुदाई और ड्राइ-प्वाइंट की कला में इन्हें दक्ष कर दिया। शुरू में जब ये भारतीय कला-पद्धतियों को हृदयंगम करने में लगे थे, तब लाइफ-ड्राइंग और लैण्डस्केप पेंटिंग का दायरा बड़ा ही सीमित था। यूरोप में रह कर मानव-जीवन और प्रकृति का व्यापक रूप से अध्ययन करने का इन्हें सुअवसर मिला और इन्होंने कितने ही सुन्दर तैल-चित्रों का निर्माण किया। पेरिस जाकर एन्द्रे ल्होत, किसलिंग एन्द्र कार्पलीज और अन्यान्य कलाकारों से इन्होंने मैत्री स्थापित को और उनके साथ मिलकर कार्य किया। दक्षिणी फ्रांस में इन्होंने गर्मियाँ बिताईं और हालैण्ड, स्विट्जरलैण्ड, इटली आदि देशों में भ्रमण किया, तत्पश्चात् लन्दन और पेरिस में अपने चित्रों की प्रदर्शनी की।
चक्रवर्ती में रेखा-अनुभूति स्वतः स्फुरित थी, यही कारण है कि उनकी रेखा-चित्रकृतियों में इतनी गति एवं सजीवता है। साधारण आड़ी-तिरछी रेखाएँ कलात्मक-सृजन करने में समर्थ हो सकी है। मामूली लकीरों द्वारा हृदय का आवेग और संचित स्वप्न साकार हो उठे हैं। लकड़ी एवं काष्ठ को पट्टी पर रेखाएँ आविर्भूत होकर एक नई दुनिया का निर्माण करती हैं. चिरसंचित कलाकार के भावों को एक नये रूप में प्रदर्शित करती हैं, छिपा हुआ खजाना नजरों के समक्ष खोल देती हैं, नवीन दृष्टिकोण और नवीन अभिरुचि जाग्रत करती हैं तथा जगत् की वस्तुओं को नये सिरे से गढ़ने और नवीन से नवीनतर का आविष्कार करने में सहायक होती हैं ।
श्री चक्रवर्ती के कई वुड-कट चित्र अत्यन्त उच्च कोटि के बन पडे हैं। उनकी रेखा-शैली इतनी मॅजी हई और स्पष्ट चित्रण की क्षमता रखती है कि कलाकार की विलक्षण प्रतिभा की दाद देनी पड़ती है। उनकी रेखाएँ अत्यन्त कोमलता, स्पष्टता और गहराई से उभार कर दर्शायी गई, कोई भी लकीर एवं लाइन व्यर्थ नही होती, रेखाएँ खींचने में उनके हाथ इतने सधे हुए थे कि वे प्रत्येक विषय के मर्मस्थल में घुस कर उसका तत्त्व निचोड़ लाते थे। चाहे हिमालय का सुन्दर, आकर्षक चित्रण हो अथवा गोधूलि- बेला में पशुओं के लौटने का आकर्षक दृश्य, चाहे निर्झर का संगीतमय स्वर हो अथवा बहती हुई इठलाती, मचलती नदी का मनोरम दृश्य-श्री चक्रवर्ती ने अपने रेखा नेपुण्य से चित्रों में जान-सी डाल दी है । बर्दवान की पोखर के वृक्षों की छाया से आच्छादित जल का दृश्य, आम्र वृक्षो का सुन्दर चित्रण, अर्जुन और चित्रांगदा, का प्रेमाभिनय मदन का चित्रांगदा को वरदान, कलकत्ता की बरसाती रात, ग्रामीण घर, स्नान के पश्चात् लौटती हई संथाल नारी. कलकत्ते की गली, आश्रम का कुआँ, लखनऊ की बस्ती और संथाल नत्य आदि चित्र रेखाओं और लकीरों की सहायता से ही मर्म को स्पर्श करते हुए से प्रतीत होते हैं । गली में दुकानों की श्रेणीबद्ध कतार, बाली पुल का आयताकार घुमाव ऐसी स्वाभाविक स्पष्टता से चित्रित किया गया है जैसा कि झोंपड़ी के समक्ष खड़ी हई बैलगाड़ी का सजीव चित्रण है। एक अन्य चित्र में प्रकाश स्तम्भ के समीप गली का मुख्य द्वार प्रकाशित पथों की ओर निर्देश कर रहा है और द्वार के पास ही एक आधुनिक ढंग का नया मकान है, जो कि बहुत ही परिश्रम पूर्वक सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है । बंगाल के ग्राम्य दृश्यों को इन्होंने बड़ी ही प्रेरणामय भव्य झांकी प्रस्तुत की है। इनके बहुत से वुड-कट चित्र रंगमय हैं और श्यामली के सुप्रसिद्ध चित्र की भाँति अत्यन्त आकर्षक और हृदयस्पर्शी हैं। पूराने लखनऊ की गली वुडकट कला-शैली में अत्यन्त मसक्ष्मता एवं संतुलन अपेक्षित है । रेखाओं का निर्वाह हर व्यक्ति के बल-बूते का काम नहीं । एक कला-समीक्षक के मत से रंगीन कठ-खुदाई का काम सरल और नौसिखिए का नहीं है, क्योंकि उसमें न केवल रेखा पर बहुत अधिकार आवश्यक होता है, परन्तु उनमें एक समचे प्रभाव को समन्वित रूप में प्रस्तुत करने की शक्ति आवश्यक होती है। विशेषतः यह कला इस लिए और भी कठिन है कि इसमें रंगों की सीमाएँ स्पष्ट हैं, जिनके बाद भी एक आकर्षक कलात्मक पूर्णता अपेक्षित है।
काष्ठशिल्प में चक्रवर्ती की कलात्मक बुद्धि बहुत ही प्रखर एव सजग रूप में व्यंजित हुई है । इन्होंने विदेशों और भारत के विभिन्न हिस्सों में भ्रमण करके जो अपने ज्ञान की अभिवृद्धि की थी उससे कला-सम्बन्धी इनकी जानकारी बड़ी हो व्यापक और बहुमुखी होकर प्रकट हुई। इन्होंने एक ग्रामीण घर कला की विभिन्न प्रणालियों का अध्ययन कर रेखा-चित्रकारी, वुडकट, लकड़ी पर इम प्रकार की खुदाई और चित्रण की कला में विशेष दक्षता प्राप्त की। सर मूरहेड बोन, जो कि आधुनिक युग के सम्भवतः सबसे बड़े रेखा-चित्रकार और इनके गुरु रहे हैं, अपने पत्र में श्री चक्रवर्ती को लिखते हैं, “यह कलात्मक सृजन शक्ति, जो तुम में और मुझ में समान रूप से अन्तर्निहित है, बहुत ही अपूर्व एवं विलक्षण वस्तु ज्ञात होती है। कला में एक विचित्र रागात्मक शक्ति है, जिसके कारण यह अन्तर्राष्ट्रीय खपरैल के नीचे जगत में गौरव प्राप्त करती है और समस्त विश्व के सम्मान एवं समादर की वस्तु है। काष्ठ कला देश, भाषा और जाति के भेदभाव से रहित है. वरन वह भिन्न देश एवं जातियों के पारस्परिक गूढ़ भावों को समझने की मूक भाषा है।
उनके मत में सच्ची रेखा-चित्रकारी समचे विश्व को एकता के सूत्र में जोड़ती है। वह ऐक्य और पारस्परिक स्नेह भावना की संदेशवाहिका है। केवल कुछ रेखाओं का आकर्षक नर्तन सच्चे सष्टा कलाकार की प्रतिभा का प्रदीप विश्वव्यापी अन्धकार को भेद कर अपनी प्रभा का विस्तार कोने-कोने में पहुंचा देता है और संसार उससे आनन्द और सुख का वरदान पाकर तादात्म्य का अनुभव करता है।
रमेन्द्रनाथ चक्रवर्ती ने यथार्थ रूपान्तरण की कलकत्ता की एक घनी बस्ती क्षमता और ठोस रेखा-सामंजस्य के वर्तमान भारतीय कलातत्त्वों में प्राचीन-नवीन की एक गहरी दरार को पाट दिया है। विभिन्न प्रणालियों और असंलग्न प्रभावों को आत्मसात् करके भी इनकी कला में कहीं विसंगति दृष्टिगोचर नहीं होती। पाश्चात्य और प्राच्य के नयेपुराने, एशियाई और यूरोपीय कला-तत्त्वों का गठन करके वे जीवन-पर्यन्त उम सौंदर्य के सन्धान में लगे रहे जो भीतर से उभर कर व्यापक मानवीय संवेदना को उदबद्ध कर सकने की क्षमता रखता है।
1955 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गयी

अर्जुन और चित्रांगदा

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