पाल शैली (9वीं सदी से 12वीं सदी तक)



8वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भित्ति चित्रण परम्परा के अपकर्ष (पतन) के फलस्वरूप भारत के उत्तरी पूर्वी राज्य बंगाल-बिहार और पश्चिम भारत के गुजरात एवं मालवा के मैदानी क्षेत्रों मंे कला का लघुचित्रण स्वरूप सचित्र पौथीयों में परिलक्षित हुआ। हर्ष के पश्चात मगध एवं बंगाल पर पाल राजवंश का शासन स्थापित हुआ। इस वंश के राजा धर्मपाल जो धार्मिक प्रवृत्ति, दूरदर्शी और कला का आश्रयदाता था, जिसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया। इसके पश्चात् उसका पुत्र देवपाल मूर्ति, वास्तु और चित्रकला का महान उन्नायक सिद्ध हुआ। इसी समय सारनाथ, कुशीनगर, नालन्दा आदि स्थानों पर मूर्तन और स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण दृष्टव्य होते है। अन्य शासकों ने भी इस क्षेत्र में कला को संरक्षण प्रदान कर सांस्कृतिक विरासत को हरितमायुक्त बनाया। 

पाल शैली का नामाकरण
16वीं सदी के इतिहासकार-लामातारानाथ के अनुसार भारत मंे दो शैलियां मुख्य थी। एक पूर्वी शैली और दूसरी पश्चिमी शैली। भारत के पूर्वी प्रान्त बंगाल एवं बिहार में पाल राजाओं द्वारा बौद्ध धर्म से सम्बन्धित विषयों के सचित्र ग्रन्थ पाल शैली मंे मिलते है। इस शैली के चित्रकार धीमन और वितपाल ने उत्कृष्ट कार्य कर पाल शैली को उत्कर्ष पर पहंुचाया। बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा, नेपाल, तिब्बत आदि क्षेत्रों से प्राप्त ग्रथों-प्रज्ञापारमिता, साधनामाल, पिंगल मत, गन्धव्यूह, महामयूरी आदि के आधार पर इसको प्रादेशिकता की बजाय पाल शैली के नाम से पुकारा जाने लगा, जो तर्कसंगत जान पड़ता है।

विशेषताएँ

तकनीक और विषय वस्तु
लघुचित्र शैली परम्परा का प्रारम्भ पोथी चित्रण से माना जाता है। सवर्प्रथम चित्रण माध्यम के रूप में पाल शैली मंे बौद्ध धर्म के चित्र ताड़पत्र पर सृिजत किये गये और यही धर्म के प्रसार-प्रचार के प्रमुख माध्यम भी बने। ताड़ पत्रांे की आकार सीमितता के कारण चित्र एक निश्चित आकार में ही बने जो 2 ईंच 22 ईंच आकार में काष्ठपटीकाओं के मध्य सुरक्षित रखे जाते थे। इन चित्रांे मंे विषयवस्तु के रूप मंे बौद्ध धर्मों से सम्बद्ध साहित्य जैसे प्रज्ञापारमिता, साधनमाला, पिंगलमत, नन्दाव्यूह, नित्यहिनकातिलक, महामयूरी आदि गन््रथों की सचित्र रचना महत्वपूर्ण है। इनके अलावा बद्धु जन्म, जातक कथाएं, बुद्ध चरित्र, देवी देवताओं का चित्रण देखने को मिलता है।

रूप-अन्तराल
ताड़पत्रों के सीमित आकार के कारण पाल शैली के चित्रों में संयोजन की दृष्टि से चित्रतल को प्रायः दोनों ओर लम्बवत तथा मध्य में आलेख्य स्थान निश्चित किया जाता था। मध्य में मुख्य दैवी आकृित अन्य सहयोगी आकृतियों से संयोजित की जाती थी। चित्रित आकृति के दोनों ओर स्याही से सुन्दर लिपि मंे कथानक का लेखन और अंतिम किनारे अलंकृत हाशियों से सुसज्जित किये जाते थे। संयोजन सरल एवं संतुलित है जहाँ रूप एवं आकारांे का आधिक्य नहीं है। वृक्षों में कदली व नारियल का अंकन और हाशियांे को ज्यामितिय आकारों, बेलबूटों तथा पुष्पों से अलंकृत किया जाता था। 

वर्ण-विधान
ताड़ पत्रीय चित्रों मंे मुख्यतः प्राथमिक विशेषता वर्ण-विधान की प्रतीकात्मक रंग संगति रही है। लाल रंग की प्रधानता लिए रंगतांे मंे सिंदूरी हिंगुली, गुलाबी, नीले में लाजवंती, नील और फाखताई रंगते पीले, हरे श्वेत व श्याम रंगों के सहयोग से चित्र को अधिक प्रभावशाली बनाती है। प्रतीकात्मक परिपे्रक्ष्य में हरा रंग वर्षा तथा सम्पन्नता का प्रतीक और लाल रंग उत्तेजना एवं भाव प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
 
आकृति विधान
आकृतियां अजंता की भांित लोच एवं माधुर्य के स्थान पर चित्र स्थान की सीमितता के कारण एक निश्चित मुद्रा मंे चित्रित की जाने लगी, किन्तु विषयगत आग्रह अजंता से प्रेरित रहा। विशेष रूप से बुद्ध को अभिप्राय मूलक स्वरूप में बोधिसत्व रूप - पद्मपाणि, अवलोकितेश्वर, वजप्र ाणि और मैत्रेय बुद्धा के रूप मंे चित्रित किया गया है वहीं देवियों के रूप में तारादेवी, मंजुश्री, मायादेवी आदि आकृतियों का साम्य और भयंकर मुद्राओं मंे अंकन दृष्टव्य है।
 

चित्र 1 - अष्ठषस्त्रिका प्रज्ञापारमिता सचित्र पांडुलिपी, पाल शैली, 12वीं षताब्दी
 
चित्र 2 - वज्र के साथ कमल पर विराजमान ममाकी, पाल शैली, 11वीं षताब्दी

चित्र में ममाकी को वज्र को धारण किए हुए कमल पर विराजमान दिखाया गया है। संयोजन स्थान की सीमितता के कारण लम्बवत चित्रित किया गया है। हाशियें के दोनों ओर स्वर्ण पृष्ठभुमि में आलेख्य से सुसज्जित किया गया है। ममाकी को नील वर्ण मंे संयोजन के मध्य में कमल पुष्प पर विराजमान दिखाया गया है। ममाकी को अधिक प्रभावशील दिखाने के लिए श्वेत पृष्ठभूमी में चित्रित किया है। दोनों हाथ की मुद्राएँ भंगिमा पूर्ण, चेहरे की सौम्य भाव भंगिमा, गुठली के समान चिबुक, पतली व लम्बी नासिका, सवाचश्म चेहरा, उभार लिए वक्ष स्थल, परवल की फांक के समान आँखें, भौंहे ऊपर की ओर तनी हुई, पैरांे की अंगुलियां सेम की फली की भांति चित्रण किया गया है। रंग विधान में लाल पृष्ठभुमि में नील वर्ण का प्रयोग किया गया है। आलेख्य को स्वर्ण पृष्ठभुिम पर काली स्याही से सीमांकित किया गया है। रंगों का प्रयोग सपाट व समतल हुआ है। यह चित्र पाल शैली के चित्रों मंे से उत्कृष्ठ चित्र है।

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