वीरेश्वर सेन{Veereshwar Sen}

प्रशस्त ललाट, चमकती भूरी आँखें, भावुक मुखाकृति और उभरी ठोड़ी-- वीरेश्वर सेन के बाहरी व्यक्तित्व पर उनकी भीतरी अनुभूति की गहरी छाप और जिन्दगी के ठोस तजुर्बाें से पुष्ट विचारधारा की झलक है। प्रारम्भ से ही उनकी विशेषता रही है कि उन्होंने परिस्थितियों की कभी दासता स्वीकार नहीं की और कला की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा भी उन्हें अपनी आंतरिक रसज्ञता और भावुक प्राणों को अभिमत करने वाली सरस संवेदना से ही प्राप्त हुई । उनके पितामह यज्ञेश्वर सेन, जो कलकत्ता हाईकोर्ट के एक सम्मानित कानूनी सलाहकार थे, चित्रकला में विशेष अभिरुचि रखते थे और कला-पुस्तकों का उनके यहाँ बहुत बड़ा संग्रह था। इनके पिता शैलेश्वर सेन शुरू में कलकत्ता युनीवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे, पूनरू कॉमर्शल कालेज, दिल्ली में प्रिंसिपल नियुक्त होकर कार्य करते रहे। वे अपने पुत्र को अपनी ही तरह अंग्रेजी का विद्वान बनाना चाहते थे, फलतरू वीरेश्वर सेन ने सन् 1921 में इंग्लिश में एम० ए० परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उसके दो वर्ष पश्चात बिहार नेशनल कालेज, पटना में अंग्रेजी के प्रोफेसर होकर चले गए। लखनऊ आर्ट कालेज के प्रमुख कलाचार्य के रूप में इन्होंने उत्तरप्रदेशीय कला-प्रवृत्तियों को विकसित किया ।
वीरेश्वर सेन की प्राथमिक कलाकृतियों में जलरंगों का प्रयोग हुआ है। बाल्यावस्था से ही इन्हें अपनी पाठ्य-पुस्तकों के दृष्टान्त-चित्रों में तरह-तरह के रंगों को भरने का शौक था। इनके दादा इनकी इन बाल-क्रीड़ाओं में अत्यधिक दिलचस्पी लेते थे और बच्चे का मन रखने के लिए तथा उसकी कलाप्रवत्तियों को प्रोत्साहित करने के लिए आकर्षक चित्रों से सुसज्जित पुस्तकें और भाँति-भाँति के रंग का सामान लाकर देते थे। बालक वीरेश्वर अपने दादा के साथ कलकत्ता की इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिण्टियल आर्ट की कतिपय कला-प्रदर्शनियों में जाकर विभिन्न कलाकृतियों के सौन्दर्य में अपनी आँखों को विभोर करता था। यद्यपि उनमें अनुभवी व्यक्ति की सी प्रखर दृष्टि तो तब न थी, तथापि उनकी प्रशंसक आत्मा उन जादूभरे रंगों और रंगों से उद्भूत आकृतियों में इतनी अभिभूत हो जाती थी कि वे घण्टों उनमें डूबे रहते । "माॅडर्नश् रिव्यू" में अवनीन्द्रनाथ ठाकूर और नन्दलाल बस के रंगीन चित्रों मे श्री सेन अत्यधिक प्रभावित हुए । सन 1918 में जबकि वे बी० ए० की तैयारी में संलग्न थे, तभी वे अवनीन्द्रनाथ ठाकूर और नन्दलाल बसु के सम्पर्क में आए । कला की ओर उनका अत्यधिक झुकाव होता गया और लगभग छरू वर्षों तक अवनी बाबू के तत्त्वावधान में वे कला की साधना में रत रहे ।
वीरेश्वर सेन ने हिमाच्छादित हिमालय की रुपहली सौन्दर्य-राशि को रंगों में अन्वित किया है। हिम की कर्पूर-सी श्वेतिमा की घनीभूत एकप्राणता में कलाकार की आत्मा समरस हो उठी है । प्रकृति और उसका विखरा वैभव उनके प्राणों में स्पंदन बनकर रम गया है और निस्सीम कुहेलिका की उमड़ती नीरवता को तुलिका से समेटने के लिए उनके हल्के-गहरे रंग भी त्वरा के साथ गतिमय सम्पूर्णता से रूपायित हुए हैं। कितने ही मूक भाव अभिव्यक्ति की विह्वलता में डूबकर वातावरण और भावना की पार्श्वभूमि को रंजित करते हैं और कितने ही देखे-अनदेखे चित्र विविध आकारों में कल्पना के साथ उभरे हैं। प्रारम्भ में इन्हें वृक्षों और पर्वतों के चित्रांकन में रुचि थी। श्श्रृंगारश् चित्र में एक मुड़े-तुड़े वृक्ष और एक अस्पष्ट से धंधले पर्वत की ओट में सुन्दर बंगाली महिला चैकी पर बैठी हुई हाथ में दर्पण लेकर एक परिचारिका द्वारा केशों की श्रृंगार सज्जा में संलग्न है ।"दमयन्ती में शाल वृक्ष की मोटी शाखा के छाया तले मिट्टी के टीले पर नल की राजमहिषी दमयन्ती जीर्ण वस्त्रों में अपना लावण्य समेटे बैठी है। कालान्तर में ज्यों-ज्यों उनकी कला-प्रवत्तियाँ विकसित होती गई, उनके स्थूल आकार धूमिल हो गए और प्रकृति का प्रसार सघन होकर अधिकाधिक चित्रों की पृश्टभूमि में समाता गया। सन 1932 में इन्होंने हिमालय की कुल्लू घाटी में स्थित विश्वविश्रुत कलाकार निकोलस रोरिक के स्थान पर जाकर उन से भेंट की, तत्पश्चात् ये काश्मीर गए और वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को निरखापरखा । एक महान् कलाकार का सम्मिलन-सुख और काश्मीरी सुषमा के ज्वार ने वीरेश्वर सेन की कला के रुख को अकस्मात् दूसरी दिशा में मोड़ दिया। हिमालय की अनन्त नीरव महिमोज्ज्वल गरिमा उनकी आत्मा की गहराइयों में पैठकर अनुभति बन गई और यह आन्तरिक चिन्तन, ये नूतन भाव अनेक प्रकार के बिम्बों की सृष्टि कर सके । अपनी परिपक्व कला-प्रवृत्तियों को उन्होंने हिमालय की शोभा के संधान में लगा दिया। वे उसमें नया अर्थ पाने और उसकी अलौकिक दृश्य-योजना के रहस्य और हिमखण्डों की निसर्ग रूपच्छटा से स्थापित करने के प्रयत्न में लग गए। हिमशृंग की दिव्य शोभा, भयानक नदी नाले और हरहराते जल के त्वरित वेग को उन्होंने कितने ही लैण्डस्केप चित्रों में दर्शाया है। हिमालय के प्रति उनका राग और आकर्षण ही उनकी कला के भीतरी स्तरों को अनुरंजित कर सका है।
स्वप्न और सत्य के सूक्ष्म बिन्दु तक पहुँचने के लिए उन्होंने बिम्ब-विधान की प्रक्रिया को प्रायः हल्के और छायादार रंगों में आँका है। रेखाएँ इतनी धुंधली और रंग ऐसे अखण्ड हैं कि उनकी निःस्तब्ध धनता में प्रात्मपूर्णता घुली जा रही है। मूक साधना में निरत प्रकृति के व्यापक रहस्य में श्री सेन ने अपने प्राणों के ज्वलन्त आवेग को डुबा दिया है । इनके सुप्रसिद्ध चित्र "हम किसको बलिदान दें" में एक प्रचलित वैदिक मंत्र का दृष्टान्त-चित्र उपस्थित किया गया है, जिसमें एक उपासक प्रभातकालीन सूर्य की किरणों के प्रकाश से आलोकित प्रस्तर-स्तम्भ को यज्ञाहूति दे रहा है। इस चित्र में प्रज्ज्वलित अग्नि के सम्मुख एक युवक का हाथ पसारे और घुटने टेके नतशिर होना जीवात्मा का परमात्मा की खोज में भटकने का द्योतक है। जीवन न जाने कब से उस अज्ञात को पुकार रहा है । दुर्भेद्य कुहासा उस ज्योतिर्मय रूप का अजीब नशा भर देता है, पर आज तक उसका कोई पूर्ण आभास न पा सका । इस अद्भुत आँख-मिचैनी में मनुष्य ठगा-सा रह जाता है। यहीं से श्री सेन की कला में एक नया मोड़ उत्पन्न हुआ। उन्होंने अपनी जागरूक चेतना को सृष्टि के कण-कण में व्याप्त कर अपना क्षेत्र व्यापक बना लिया। शुरू में उनकी कला-प्रतिभा बंगाल-स्कूल की छाया तले पनपी थी। उस समय उन्होंने "दूधवाली" "उषा" "स्नान के बाद"  आदि चित्रों में नारियों के सुन्दर चित्र अंकित किये थे, किन्तु तब तक मन के भीतर का गम्भीर सृजन संस्कार न जागा था। कलाकारोचित तटस्थता और कला से तन-मन की एकता भी तब तक स्थापित न हुई थी, यों उन चित्रों में भी उनकी गम्भीर दार्शनिकता झाँकने लगी थी। कुछ समय के लिए एडमंड ड्यूलाक से वे अत्यन्त प्रभावित रहे । तुर्की सौन्दर्य के द्योतक तंग पायजामें और क्षीण कटि को उन्होंने अत्यन्त नजाकत से चित्रित किया । मुगल सम्राट अकबर और शाहजहाँ के समय बने चित्रों के अनुकरण पर श्चिन्सनश् नामक चित्र में उन्होंने मगल शाहजादे की छवि अंकित की और "समुद्री किनारे पर" ड्युलाक द्वारा चित्रित दम्पति की हूबहू अनुकृति की । लेकिन ऐसे चित्न अस्वाभाविक और वीरेश्वर सेन जैसे विद्रोही कलाकार के अनुरूप न जंचे । शीघ्र ही वे इस प्रभाव से मुक्त भी हो गए। अपने वृहदाकार चित्रों में गतिमय स्फूर्ति लाने के लिए उन्होंने पेस्टल में बनाना उन्हें अधिक पसन्द किया। श्स्वर्ण पर्वतश् में नील वर्ण पहाड़ियों की सुनहरी चोटियाँ और देवदार के काले वृक्षों के बीच इठलाती, बलखाती जलधारा, श्जीर्ण आवरणश् में पर्वत से नीचे ढुलकता हुआ बर्फ और श्सोते सिंहश् में भूरा, गुलाबी और नीला रंग अत्यंत कौशल से प्रयुक्त हुआ ।श् तीर्थयात्रीश् चित्र में जलरंगों में बद्रीनाथ के दर्शनों के इच्छुक यात्रियों को दुर्गम पथ पर चढ़ते हुए दिखाया गया है और श्नीली पहाड़ियोंश् में सुनहरे, भूरे, हरे और नीले रंगों का अद्भुत समन्वय है।
वहदाकार चित्रों के साथ-साथ वीरेश्वर सेन ने लघु चित्रों का भी निर्माण किया है । उनके परवर्ती चित्रों में प्रकृति इतनी व्यापक रूप धारण कर गई है कि जानवरों और मनुष्यों की प्राकृतियाँ गौण हो गई है। ग्रामीण नारियाँ, घुड़सवार, गड़रिये, किसान और गाय, भैंस, बकरी, घोड़े आदि पशु बड़ी-बड़ी भयंकर चट्टानों और पर्वतों के मुकाबले में नगण्य से जान पड़ते हैं--मानो प्रकृति को दुर्द्धर्ष शक्तियों के सम्मुख प्राणी का कोई महत्त्व ही नहीं है। कहीं-कहीं बिना प्रयास के कूची के एक ही झपाटे में उन्होंने घड़ा ले जाती हुई औरत, चिलम पीता गड़रिया, गेरुए वस्त्र पहने साधू इतनी आसानी से आँक दिये प्रतीत होते है कि उनको पातशी शीशे में देखकर ही विश्लेषण किया जा सकता है। श्री सेन के लैण्डस्केप और प्राकृतिक दृश्यों के चित्र बड़े ही कौशल और सूक्ष्मता से अंकित हुए हैं । सूर्य की विकीर्ण रश्मियाँ अथवा चंद्र-तारों के प्रकाश में पहाड़ी लोगों का झुण्ड या घूमते-फिरते साधू, चट्टानों या ऊबड़खाबड़ पत्थरों के सहारे विश्राम करते एकाकी लामा, कभी काले-काले पर्वतों पर अथवा श्वेत हिमखण्डों पर अठखेलियाँ करता हुआ नीले अंतरिक्ष का रंगबिरंगा प्रकाश, कभी उषाकालीन धुंध में उदित होते हुए सूर्य की किरणों का नर्तन, पर्वत शृंगों पर फिसलते बादल और नीचे लाल चट्टानों पर पड़ती उनकी छाया, हिम से मंडित ऊँचे-ऊँचे पर्वत और छोटी पहाड़ियों पर जहाँ पगडंडियाँ आकर मिलती है, वर्षा की हल्की फुहार और विभिन्न प्राकृतियों में बनते-मिटते मेघ--यों इस प्रकृति प्रेमी कलाकार ने प्राकृतिक दृश्यों को नाना रंगों में समाविष्ट कर अपनी मनोभावनाओं को व्यक्त किया है।
वीरेश्वर सेन की कला के सौंदर्य-पक्ष में प्रकृति का मोहक आकर्षण अनुभूति की गहनता और सर्जनात्मक निष्ठा है। चित्र की विशालता एवं लघुता उनकी दृष्टि में विशेष महत्त्व नहीं रखती, वे तो कला में अंतर्निविष्ट सौंदर्य और रूप की अखण्डता के हामी हैं। अपने अंग्रेजी ज्ञान के सहारे उन्हें विषयों के चुनाव और अपनी चित्राकृतियों का नामकरण करने में विशेष सुविधा रहती है। उन्होंने कला पर काफी पढ़ा और लिखा है। बंगाल स्कूल की प्रचलित कला-रूढ़ियो और आज के कतिपय वादों-"क्यूबिज्म", "सुरियलिज्म आदि से उन्हें नफरत है। उनके मत से भारतीय कला विश्व की कला से विशेष भिन्न नहीं रहीं, हाँ-उसके विकास की परिस्थितियाँ और वातावरण भिन्न अवश्य रहा । कला सदैव से एक व्यापक संस्कृति की संदेशवाहिका और उसके स्तर एवं स्थितियों की सूचक रही है । यही उसकी शक्ति है और यही उसकी क्षमता का प्रतीक भी । जो कलाकार अद्भुत सत्य एवं चरम चेतन के प्रति जितना ही सजग होगा वह उतना ही कला के भीतर पैठ सकेगा। श्री सेन उन सच्चे कलाकारों में से हैं जो प्रकृति के रहस्यों के ज्ञाता तो हैं ही, उसकी शक्ति में आस्था और मानवता के प्रति भी आत्मीयता रखते हैं। उनकी कृतियाँ समय से ऊपर उठकर अमर कला का प्रतिनिधित्व कर सकी हैं।

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