भारतीय चित्रकला के सिद्धान्त: षडांग (Six limbs of painting)


सृष्टि में जीवन के साथ ही कला का भी जन्म हुआ। काल की गति के साथ-साथ कला का स्वरूप परिवर्तित होता रहा एवं धीरे-धीरे कला के व्यावहारिक पक्ष के साथ-साथ सैद्धान्तिक पक्ष का भी विकास हुआ। जिसमें नियम निर्धारण कर कला को सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया गया।

प्राचीन भारतीय साहित्य में विविध कलाओं की विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। जिसमें वात्स्यायन के कामसत्रू मे वर्णित 64 ;चैंसठ कलाओं में चित्रकला ;आलेख्य को चतुर्थ स्थान पर रखा गया है। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यषोधर पंडित नामक विद्वान ने अपनी पुस्तक "जय मंगला" में चित्रकला ;आलेख्यद्ध के छः अंगों का वर्णन एक श्लाके के रूप में किया है। वस्तुतः उन्होंने पहली बार कला के नियमों का उल्लेख किया है। उनके श्लोक की व्याख्या श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा उनकी पुस्तक "भातीय शिल्प षंडग" में की गई जिसका हिन्दी अनुवाद डाॅ0 महादेव साहा ने किया।

रूपभेदाः प्रमाणानि भाव, लावण्य योजनम्।

सादृष्यं वर्णिका भगं इति चित्र षडंगकम्।।

 

(1) रूपभेद                        -      सभी प्रकार की आकृतियों और उनकी विशेषताओं का ज्ञान।

(2) प्रमाण                          -      अनुपात, नाप तथा शरीर रचना।

(3) भाव                             -    आकृतियाॅ मे दर्शक को चित्रकार के हृदय की भावना दिखाई दे।

(4) लावण्य योजना             -     कलात्मकता तथा सौन्दर्य का समावेश होना।

(5) सादृष्य                         -     अनुरूपता देखे हुए रूपों की समान आकृति।

(6) वर्णिका भंग                 -      रंगों तथा तूलिका के प्रयोग मे कलात्मकता।

 

(1) रूपभेद


रूपभेद का शाब्दिक अर्थ है रूप.रूप में विविधता एवं भेद का अर्थ है मर्म या रहस्य अर्थात् रूप के रहस्य को समझना रूप कहते है आकृति के लिए। प्रत्येक आकृति मे ऐसी भिन्नता तथा विशेषता दर्शित होनी चाहिए जो कि सर्वथा मौलिक हो और जिसकी किसी दूसरी आकृति से समानता न बैठती हो। वस्ततु जिस विशेष गुण के समावेष से किसी आकृति में सौन्दर्य की अभिव्यक्ति हो उसी गुण विशेष का नाम रूप है।

रूप अनन्त है उसको किसी परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। रूप की पहचान दो प्रकार से की जा सकती है। एक तो आँखों के द्वारा और दूसरा आत्मा के द्वारा। दृष्टि के द्वारा हम किसी लम्बी छोटी चैरस गोल मोटी पतली और काली वस्तु को ग्रहण कर सकते हैं और मन या आत्मा के द्वारा उसके भेद या स्वरूप को समझा जा सकता है।

भारतीय कला मे रूपभेद का सबसे अच्छा उदाहरण हैं अजन्ता के चित्र। इनमें भीड़.भाड़ वाले चित्रों में भी प्रत्येक रूप मे भेद है। सभी की अपनी चारित्रिक विशेषताए है। जिन्हें मन की आँखों से अनुभव किया जा सकता है।

 चित्र -1


(2) प्रमाण

वस्तु के विषय में निर्मित ज्ञान प्राप्त करना उसकी निकटता, दूरी, लम्बाई, चैड़ाई अनुपात आदि का मान ही प्रमाण कहलाता है। प्रमाण, चित्रविद्या का वह अंग है, जिसके द्वारा हम प्रत्येक चित्र का मान (लम्बाई-चैड़ाई) निर्धािरत कर सके, मूल वस्तु की यथार्थता का ज्ञान उसमें भर सकें।

प्रमाण के द्वारा हम मनुष्य, पषु, पक्षी आदि की भिन्नता और उनके विभिन्न भेदों को ग्रहण कर सकते हैं। पुरूष और स्त्री की लम्बाई में क्या भेद है,उनके समस्त अवयवों का समावेष किस क्रम से होना चाहिए, अथवा देवताओं और मनुष्यों के चित्रों के कद का क्या मान है। ये सभी बातें प्रमाण के द्वारा ही निर्धारित की जा सकती है। प्रमाण के द्वारा ही समुद्र की असीम दूरी व आकाष के विस्तार आदि को एक छोटे धरातल में प्रस्तुत किया जाता है।


(3) भाव

भाव कहते हैं आकृति की भंगिमा को, उसके स्वभाव, मनोभाव एवं उसकी व्यंग्यात्मक प्रक्रिया को। चित्रकला में भावाभिव्यंजन को बड़ा महत्व दिया गया है। भिन्न-भिन्न भावों की अभिव्यंजना से शरीर में भिन्न-भिन्न भंगिमाओ का जन्म होता है। भाव एक मानसिक प्रक्रिया है, जिसके लक्षण कायिक धर्मों द्वारा अभिव्यक्त होते  है।

 

भाव का कार्य है रूप को भंगिमा देना और व्यंग्य का कार्य है रूप की ओट मे भाव के इषारे को अभिव्यक्त रूप से प्रकट करना। भाव विषेष में अंगों की निष्चित क्रियाएँ होती हैं। इनके अनुसार आकृतियाँ समभंग, अभंग, त्रिभंग व अतिभंग मुद्रओंमे बनाई जाती है।


(4) लावण्य योजना -

लावण्य कहते हैं रूप की संचति या परिमिति के लिए। रूप, प्रमाण और भाव के साथ चित्र में लावण्य का होना भी आवष्यक है। प्रमाण जैसे रूप को परिमिति देता है वैसे लावण्य भी परिमिति देता है।

भाव, आभ्यन्तर सौन्दर्य का बौधक है और लावण्य बाह्य सौन्दर्य का अभिव्यंजक। चित्र में बाह्य अलंकृति का समावेष लावण्य योजना द्वारा ही संभव है। लावण्ययोजना से चित्र में कान्ति और छाया का सुन्दर समावेष होता है। विद्वानों ने लावण्य की तुलना एक प्रकार की चमक से भी की है जो असली मोतियों में होती है। इस प्रकार लावण्य एक चमक के समान है जो आकृतियों को मधुर बनाता है।

लावण्य का एक अर्थ नमक के लिए भी प्रयुक्त होता है। अर्थात् जिस प्रकार भोजन नमक के बिना स्वादहीन होना है उसी प्रकार चित्र लावण्य के बिना कांतिहीन होता है। लावण्य के साथ योजना शब्द चित्र की परिकल्पना की प्रक्रिया को भी प्रस्तुत करता है। अर्थात् योजनाबद्ध रूप में कार्य करना।

(5) सादृष्य

किसी मूल वस्तु के साथ उसकी प्रतिकृति की समानता का नाम ही सादृष्य है। किसी रूप के भाव को किसी दूसरे रूप की सहायता से प्रकट कर देना ही सादृष्य का कार्य है, सादृष्य के तीन अर्थ किये जा सकते हैं -

1.  किसी वस्तु को उसी रूप में चित्रित करना।

2.  वस्तु के देष, प्रवृत्ति, स्थान आदि को समझकर चित्र बनाना।

3.  किसी चित्र को उचित चिन्हों प्रतीकाे उपमाओं व अलंकाराे से युक्त चित्र बनाना। जैसे भारतीय कला मे प्रायः निम्न उपमाओं का प्रयोग हुआ है।

 

1.    अण्डाकृति या पानाकृति  

2.    भवे             - धनुषाकार

3.    कमर          - डमरू   

4.    नासिका      - शुक चंचु     

5.    नत्रे             - कमल पत्र             

6.    नेत्र             - मीनाकृत

7.    गला            - शंखाकृति

8.   अंगुलियाँ     - सेम की फली

 

(6) वर्णिका भंग

नाना वर्णों की सम्मिलित भंगिमा को वर्णिकाभंग कहते  है। किस स्थान पर किस रंग का प्रयोग करना चाहिए तथा किस रंग के समीप किसका संयोजन होना चाहिए। ये सभी बातें वर्णिका भंग के द्वारा ही जानी जा सकती है। रंगों के भेद-भाव से ही हम वस्तुओं की विभिन्नता व्यक्त करने में समर्थ हो सकते  है।

चित्र षडंगों मे वर्णिका भंग का स्थान सबसे बाद में इसी लिए रखा गया है क्योंकि वह षडंग साधना का चरम बिन्दु है। शेष पाँचों अंगों की सिद्धि हम कागज पर बिना एक भी रेखा खींचे, केवल मन और दृष्टि की गंभीर चिन्तना के द्वारा भी कर सकते हैं।, किन्तु वर्णिका भंग के ज्ञान के लिए हमे हाथ में तूलिका लेकर दीर्घ अभ्यास करना ही पड़ेगा।

भारत में कला की जो अपार थाती सुरक्षित है। उसके महत्व का एक कारण यह भी रहा कि उसके निर्माता कलाकारों को उक्त षडांगों का पूर्ण ज्ञान था। भारतीय कला के ये अंग चित्रकारों के लिए साधना का विषय रहे क्योकि उनका मानना था कि इन अंगों को प्रतिपादित करने पर ही हम चित्र को पूर्ण कह सकते हैं।

 

 

 

 

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