चित्रकला चित्रकार के गूढ़ भावों की अभिव्यंजना है, उसके अन्तर्मन की सजीव झाँकी है । सच्चा कलाकार वह है जो न केवल एक रुकी हुई परम्परा का पुनरुद्धर करता है, प्रत्युत् उस उदात्त कला का दिग्दर्शन कराता है जो श्सत्यं शिवं सुन्दरमश् की ससृष्टि है, व्यष्टि नहीं, जो झिलमिल नीलाकाश के रजत प्रांगण में सौन्दर्य के समस्त प्रमाधन बिखेरती है, जो श्रेय, प्रेय व प्रेरणा की लहर है और जिसमें मानव जीवन की बड़ी से बड़ी और लघु से लघु रंगीनियाँ क्रीड़ा करती हैं। भारतीय नारी-कलाकारों में श्रीमती अमृत शेरगिल का नाम विशेष महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उन्होंने अल्पकाल में ही आधुनिक कलाकारों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था । कला-क्षेत्र में नारियों का सदैव से प्रभाव रहा है। एक पाश्चात्य विद्वान् ने तो यहाँ तक कहा है कि विश्व में जितने भी बड़ेबड़े चित्रकार या मूर्तिकार हुए हैं, वे सब पुरुष ही हैं । यह कथन आंशिक रूप से सत्य होते हुए भी श्रीमती अमृत शेरगिल के दृष्टान्त से इस बात की प्रत्यक्ष पुष्टि करता है कि यदि सुविधाएं दी जाएँ तो नारी पुरुष से बहुत आगे बढ़ सकती है।
30 जनवरी, सन् 1913 ई० मे हंगरी की राजधानीे बुडापेस्ट में बालिका अमृत ने जन्म लिया था। उनके पिता खास पंजाब के रहने वाले थे, किन्तु माता हंगेरियन थीं। बाल्यावस्था से चित्रकला की ओर उनकी विशेष अभिरुचि थी । “मुझे ऐसा लगता है मानो मैंने किसी एक घड़ी में चित्रांकन का श्रीगणेश न किया हो, बल्कि मैं सदा से ही चित्र आँकती रही हूँ, और यह विचित्र विश्वास भी मेरे हृदय में बद्धमूल रहा है कि मेरे जीवन का ध्येय केवल चित्रकार बनना ही था, और कुछ नहीं। मैंने सदैव-सभी बातों में अपना मार्ग स्वयं खोजा है।ष् जब ये पाँच वर्ष की हई तो अपने बाग के पेड़-पौधों के चित्र कागज पर बनाया करती और उनमें रंग भरा करती थीं। पहले तो किसी का भी ध्यान उनकी चित्रकारी पर नहीं गया, किन्तु शनैः शनैः उनकी माँ अपनी पुत्री की चित्रकारी से प्रभावित हुई और भारत आने पर उन्होंने अमृत के लिए एक अंग्रेज चित्रकार नियुक्त कर दिया । तीन वर्ष तक उस अंग्रेज शिक्षक के तत्त्वावधान में वे चित्रकला का अध्ययन करती रहीं और अपनी विलक्षण प्रतिभा, सच्ची लगन, कठोर श्रम और दृढ़ इच्छा-शक्ति से बहुत कम आयु में ही कुशल चित्रकार बन गई। अमृत की योग्यता और बुद्धिमत्ता पर वह अंग्रेज चित्रकार भी दंग रह गया और उसने शेरगिल दम्पति को बाहर विदेशों में अपनी पुत्री को चित्रकारी की उच्चकोटि की शिक्षा देने की सम्मति दी।
सन 1928 ई० में शेरगिल परिवार इटली चला गया। वहाँ जाकर अमृत आर्ट-स्कूल में दाखिल हो गई, किन्तु उन्हें पूर्ण संतुष्टि नहीं हई। भारत लौटने पर उन्होंने घर पर अभ्यास करना प्रारम्भ किया और सामने किसी को बैठाकर अथवा तैल.रंगों में चित्र बनाने लगीं। 15 वर्ष की अवस्था में ही वह इतनी सुन्दर चित्रकारी करने लगी कि जो कोई भी उनके बनाए चित्रों को देखता सहसा विश्वास न करता । अन्त में अपने माता-पिता के साथ वे पेरिस गई और विश्वविश्रुत कलाकार पीरे बेना की शिष्या हो गई। प्रोफेसर ल्यूरियन साइमन भी इनकी कृतियों की ओर आकर्षित हुए और उन्होंने श्इकोल डि बो आर्टसश् नामक अपनी चित्रशाला में इन्हें भरती कर लिया । तब के अनुभव लेखनीबद्ध करती हुई वे लिखती हैंकृष्मेरी उन दिनों की कृतियाँ धारणा और निर्माण में पूर्णतः पाश्चात्य थीं, यद्यपि वे कभी भी पूर्णतः रूढिवादी और पृष्ठपोषक नहीं रहीं । तब तक मैं यह नहीं सीख सकी थी कि पूर्णत्व का मार सादगी है । जब हम आयु के प्रारम्भिक वर्षों में होते हैं तो हमारा उत्साह कुछ ऐसा बढ़ा-चढ़ा और विवेचक दृष्टि से रहित होता है कि हम उन अनावश्यक विवरणों के लिए जो हमारी आंखों को अच्छे लगें कलात्मक सम्पूर्णता की ओर से आँख मूंद लेते हैं । उस विवेक-बुद्धि से हम काम नहीं ले पाते जो सच्ची कला के सृजन के लिए अत्यन्त आवश्यक है ।ष् पाँच वर्ष तक निरन्तर पेरिस में रहकर इन्होंने चित्रकला का परिमार्जित ज्ञान प्राप्त किया और शनैः शनैः पाश्चात्य पद्धति पर तैल रंगों में, बड़े-बड़े कैनवसों पर, चित्र बनाने का अभ्यस्त हो गई । इनके चित्र विशिष्ट कला-प्रदर्शनियों द्वारा प्रदशर््िात किए जाने लगे और पत्रों में भी छापे गये। तत्पश्चात् वे श्ग्रेड संलों की सदस्या बना ली गई जो कि एक भारतीय युवती के लिए बहुत ही सम्मान और गौरव का पद था ।
भारत आने पर उन्होंने भारतीय चित्रकला का गहरा अध्ययन किया और उसकी विशेषताओं और बारीकियों को समझा । एक ओर पेरिस का विलासमय वातावरण, दूसरी ओर भारत की दयनीय दशा, एक ओर वैभव की चमक दमक, दूसरी ओर मुक वेदना का करुण चीत्कार । अमृत दुविधा में पड़ गई, किसे छोड़े, किसे अपनाये । अन्त में उन्होंने अनुभव किया कि वे एक ऐसी स्थिति में पहुँच गई हैं कि जहाँ वे स्वतन्त्र हैं, उन्हें कोई बन्धन नहीं, वे अपनी इच्छानुसार अपनी कला का मुख मोड़ सकती हैं । उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में भारतीय चित्रकला पर इण्डो-ग्रीक और बौद्ध कला का विशेष प्रभाव था । शनैः शनैः गुप्तकालीन कला पर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ और भारतीय कलाकारों ने गुप्तकालीन चित्रकला की सूक्ष्मांकन प्रणाली को अपनाया। ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के पश्चात् तो रही-सही भारतीय कला भी नष्ट हो गई। किन्तु अकस्मात् बंगाल में कला की पुनर्जागृति हुई और अवीद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल वसु, वेंकटप्पा और यामिनी राय जैसे कला विदों का प्राकट्य हुआ। उनकी चित्रकला में बाहरी चमक-दमक और आकर्षक रंगों का तो बहुलता से प्रयोग किया गया, किन्तु मौलिक कला-तत्त्वों का प्रस्तुतीकरण न हो सका । अमृत शेरगिल की कला ने इस क्षेत्र में एक नवीन प्रतिक्रिया पैदा की और आधुनिक भारतीय कला को विकसित और संवद्धित करने के लिए एक नया कदम उठाया। उन्होंने अन्य कलाकारों की भाँति अजंता और राजपूत कला का अंधानुकरण न करके अपनी कला में पाश्चात्य और पूर्वीय कला के आवश्यक तत्त्वों को लेकर उनका सफल समन्वय किया। उनकी प्रारम्भिक भारतीय पद्धति की चित्रकृतियों में तो राजपूत कला का कुछ प्रभाव झलकता है, किन्तु बाद में तो उन्होंने कला-क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की और दो सर्वथा स्वतंत्र एवं भिन्न देशों के प्रमुख कला-तत्त्वों को लेकर एक मौलिक रूप दिया और सर्वथा नवीन शैली का प्रवर्तन किया । ष्एक विचित्र, अवर्ण्य ढंग मे यह भावना मुझ में जगी कि चित्रकार के रूप में मेरा यथार्थ कार्यक्षेत्र भारत ही है।...मेरे प्रोफेसर प्रायः कहा करते थे कि रंगों के वैभव को देखते हुए पश्चिम की चित्रशालाओं में मैं अपनी प्रकृत प्रतिभा का विकास नहीं कर पा रही हूँ और यह कि पूर्व के रंगों और प्रकाश में ही मेरे कलात्मक व्यक्तित्व के उपयुक्त यथार्थ वातावरण मिलेगा । उनका सोचना सही था, लेकिन पूर्व से मैंने जो प्रभाव ग्रहण करने की आशा की थी, उससे यह इतना भिन्न था और इतना गम्भीर कि आज तक उसकी छाप मेरे मन पर है।ष् ।
अमृत शेरगिल ने अपने चित्रों में पहाड़ी दृश्यों का बहुत सुन्दर चित्रण किया है । साधारण जीवन-दशा, आशा-निराशा, सुख-दुःख के आकुल-विह्वल भावों को उन्होंने अपने आकर्षक रंगों और रेखाओं द्वारा अत्यन्त खूबी से व्यक्त किया है । नव युवतीयाॅ , कहानी वक्ता , नारी आदि चित्रों में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के सफल समन्वय की अद्वितीय झाँकी मिलती है । अमत शेरगिल ने पाश्चात्य कला-तत्त्वों का अन्वेषण कर, साथ ही भारतीय चित्रकला पर दृष्टिपात कर अपनी तन्मयता में एक नवीन प्रेरणा पाई । उन्होंने कला के मर्मस्थल में पैठकर जीवन के निगूढ सत्य के सम्मिश्रण का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप प्रस्तुत किया और इस प्रकार उनके चित्रों में अन्तर का चिंतन साकार हो उठा । “मैं व्यक्तिवादिनी हूँ और अपनी नई टेकनीक का विकास कर रही हूँ जो रूढ़िवादी दृष्टि से देखने पर अनिवार्यतः भारतीय शैली तो नहीं है, लेकिन उसकी आत्मा बुनियादी तौर पर भारतीय है। रूप और रंगों की अनन्त लाक्षणिकता द्वारा मैं भारत को, विशेषतः भारत के गरीब मानव को. इस स्तर पर चित्रित करने में संलग्न हूँ जो केवल भावुकतापूर्ण रुचि से कहीं ऊँचा स्तर है।ष्
उनके अन्तस्तल का बोझिल भार कला का आलोक बनकर छा गया। इसके अतिरिक्त उनकी कला में ऐसी निर्भीकता, शक्ति-सामर्थ्य और यथार्थता थी कि वे अपनी तूलिका के सूक्ष्म रेखांकनों एवं पूर्व और पश्चिम के मिश्रित अलौकिक कला-समन्वय से दर्शकों को मुग्ध कर लेती थी। तीन बहिनें , पनीहारिन , वधु श्राृंगार आदि उनके चित्रों में जीवन का निगूढ़ सौन्दर्य सन्निहित है। उनका "प्रोफेशनल मॉडेल" एक अमर चित्र है, जिसमें धार्मिक भावों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। अमृत शेरगिल की कला पर गॉगिन और अजंता की चित्रकला का विशेष प्रभाव है।
कलात्मक सजगता के साथसाथ वे एक संवेदनशील नारी और आदर्श पत्नी भी थीं। सन 1932 ई० में उनका विवाह विक्टर एगन से सम्पन्न हुआ। उनका दाम्पत्य जीवन बहुत ही सुख और आनन्द से बीता। वे अत्यन्त स्नेहशील, मिलनसार और मधुर स्वभाव वाली थीं। जो कोई भी उनसे एक बार मिल लेता वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।
उन्हें निर्धन, निर्दम्भ, निःस्पृह बूढ़ा-कहानी वक्ता लोगों से बातचीत करने में बहुत सुख होता था। यदि कोई साधारण गरीब व्यक्ति, जिसे चित्रकारी का कुछ भी ज्ञान नहीं होता था उनके चित्रों को पसन्द करता और उनकी प्रशंसा करता था, तो वे फुली न समाती थीं। उन्हें ऐसे व्यक्तियों से सख्त नफरत थी, जो कला की पूर्ण जानकारी का दावा तो करते थे, किन्तु कला परखना और समझना नहीं जानते थे। ऐसे ही एक अवसर पर उन्होंने शिमला कला-प्रदर्शनी से पुरस्कार लेना अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि प्रदर्शनी ने अमृत शेरगिल के उन चित्रों को वापिस कर दिया था जो उनकी दृष्टि में उच्चकोटि के कलात्मक चित्र थे और जिन पर पेरिस कलाप्रदर्शनी से स्वर्ण पदक मिल चुके थे। उन्होंने ऐसी संस्था से पारितोषिक लेने में अपनी हेठी समझी, जिसे चित्र परखने तक की योग्यता नहीं थी।
05 दिसम्बर, 1941 ई० में लाहौर में अमृत शेरगिल का देहावसान हुआ। अपनी 28 वर्ष की अल्पाय में ही उन्होंने इतनी ख्याति प्राप्त कर ली थी कि वे विश्व-प्रख्यात कलाकार मानी जाने लगी थीं। निःसन्देह, यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहतीं तो कला-क्षेत्र में एक असाधारण क्रान्ति मचा देतीं और भारतीय कलाकारों के लिए एक नई कला-साधना का मार्ग प्रशस्त कर जातीं। किन्तु विधि की विडम्बना ! वे एक ऐसी अविकसित कली थीं जो अपनी सुगन्ध विखेर कर अममय ही आँखों से प्रोझल हो गई।
चित्र:- वधु , भारतीय माँ , मदर टैरेसा , भिखारी , तीन कन्याएँ , अछुत बालिकाएँ , चारपाई पर विश्राम करती महिला , फल बेचने वाली आदि।