क्षय-वृद्धि या परिप्रेक्ष्य (Foreshorting or perspective)


क्षय-वृद्धि वह वैज्ञानिक ढंग है जिसकी सहायता से ठोस आकारों को समतल सतह पर इस प्रकार अंकित किया जाता है जिससे कि उनका रूप आकृति की तरह ही ठोस व प्रमाण युक्त दिखाई दे। मानो उसे एक विषष्ेा दृष्टि बिन्दु से देखा गया है। सामान्यतः हमारी दृष्टि प्रत्येक वस्तु को अन्तराल में उस वस्तु की लम्बाई, चैड़ाई तथा ऊँचाई अथवा गहराई इन तीनों आयामों मंे ग्रहण करती है, परन्तु चित्र-भूमि में मात्र दो ही आयाम होते है -लम्बाई व चैड़ाई।

इस चित्र तल पर किसी भी वस्तु के केवल दो ही आयाम प्रस्तुत किये जा सकते है। अतः तीसरे आयाम का भ्रम उत्पन्न करने के लिए जिस विषिष्ट विधि का प्रयोग किया जाता है, वह ‘‘परिपे्रक्ष्य-प्रणाली’’ कहलाती है। इस परिप्रेक्ष्य-प्रणाली का प्रयोग चित्र-भूमि पर अंकित वस्तुओं के आकार मंे हुए क्षय एवं वृिद्ध तथा वातावरण में दूर जाती र्हइु समानान्तर रेखाओं के एक निष्चित बिन्दु पर मिलन के रूप में किया जाता है। यह ‘‘दृष्टि-भ्रम’’ भी कहलाता है। जैसे - आसमान एक निष्चित दूरी पर पृथ्वी से मिलता हुआ प्रतीत होता है। रेल की पटरी एवं सड़क दूर होती हुई आगे जाकर बन्द होती दिखाई देती है। जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं होती है। कलाकार इसे दिखाने के लिए दूर की वस्तु को छोटा तथा पास की वस्तु को बड़ा बनाता है और वास्तविकता का भ्रम उत्पन्न करता है।

कला के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न समय के कलाकारांे ने ‘‘परिप्रेक्ष्य’’ की समस्या को भिन्न-भिन्न प्रकार से सुलझाने का प्रयत्न किया है। जैसे कि रेखीय क्षयवृद्धि द्वारा, वातावरणीय क्षयवृद्धि द्वारा आदि।
Û रेखीय क्षयवृद्धि: पास की आकृति बड़ी व दूर की आकृति छोटी अर्थात् आकृतियों की आकार भिन्नता से परिपे्रक्ष्य के प्रभाव को उत्पन्न किया जाता है। इस प्रकार दर्षायी गई क्षय-वृद्धि रेखीय क्षय-वृद्धि कहलाती है।
Û वातावरणीय क्षयवृद्धि: दूर की आकृतियों की रंगत पास की आकृतियांे के परिप्रेक्ष्य मंे धुंधली और कम प्रकाषमान होती है। दूर से दूरतर होने पर प्रत्येक रंगत का स्वभाव ठण्डा होता जाता है। इस प्रकार केवल धुंध और वर्ण को पृष्ठगामी बनाकर भी वातावरणीय क्षय-वृद्धि दिखाई जा सकती है। सपाट सतह पर शीतल एवं पीत रंगों द्वारा दूरी का प्रभाव दिखाया जाता है। सिद्धान्तः आकार दूरी के प्रभाव से शीतल एवं पीत अनुभव होते है क्योंकि उनकी रंगत प्रकाष, वायु तथा दूरी से प्रभावित होती है।

Û आकारों की नन्दतिक क्षयवृद्धि: केवल आकार के क्षय अथवा वृिद्ध के आधार पर नन्दतिक दूरी का प्रभाव उत्पन्न करने को नन्दतिक क्षय-वृद्धि कहते हंै। यह वातावरणीय एवं रेखीय क्षय-वृद्धि के वैज्ञानिक सिद्धान्त से भिन्न है। भारतीय लघु-चित्रांे मंे इस सिद्धान्त का ही प्रयोग हुआ है।


अंकन ()

रेखाआंे द्वारा आकृति या चित्र बनाना अंकन कहलाता है। अंकन का तात्पर्य चित्रांकन आरेखन, आरेख, रेखाचित्र, रेखांकन, खाका व खिंचाव आदि से लिया जाता है। प्रागैतिहासिक काल मंे ही मानव ने अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए रेखांकन का प्रयोग किया था।
अंकन का अर्थ है भाव-भंगिमा सहित रेखांकन करना या दर्षाना। अंकन का आषय नकल करना नहीं है। किसी विचार को स्पष्ट करना, पूर्व योजना चित्रण करना है, इससे हम अपनी कल्पना को प्रकट करते हैं। यह विवरणात्मक रूप में बनाई जाती है। जब हम किसी वस्तु को व्यक्तिगत रूप से, किसी रूप मंे देखते हैं और उसका उसी रूप में चित्रण करते है तो वह अंकन कहलाती है।
किसी धरातल पर पेन्सिल, पैन, चाॅक, चारकोल, निब, स्याही व तूलिका जैसे साधनों से आवष्यकता-अनुरूप, कल्पना-अनुरूप चित्र बनाना अथवा आकृतियाँ अंकित करना अंकन कहलाता है। 

 
अर्नुअंकन ()

किसी भी देखी हुई आकार, वस्तु अथवा समूह के अंकन को अपने मन से बनाना अथार्त् विचारों, भावांे एवं कल्पनाओं को समाहित करते हुए, नवीन प्रयोगों के साथ प्रमाण-परिवतर्न कर चित्र-रचना करना अर्नुअंकन कहलाता है। जिसमें अनुकृति मूलक रचना को गुण-संषोधन द्वारा व्यक्तिगत अनुभूित की सूक्ष्म अभिव्यक्ति करने को अर्नुअंकित करते है।
अर्नुअंकन द्वारा रचनात्मक क्षमता को बढा़ने एवं कलाकारों को अपने विचारों की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। जब चित्रकार किसी वस्तु या आकार को देखता है तब उसके मस्तिष्क पर उसका सम्पूर्ण प्रभाव अंकित हो जाता है। अर्नुअंकन करते समय चित्रकार चित्रण के प्रमुख तत्त्व-बिम्बों को ही सृजन-पे्ररणा का आधार बनाता हैे, देखे हुए आकारों का स्वतन्त्र चित्रण करता है और अपने कलात्मक गुणों की अभिवृद्धि करता है। अर्नुअंकन बन्धन मुक्त होता है। इसका अभ्यास करने से चित्रकार अपनी सृजन क्षमता का विकास करता है। 


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