‘माध्यम’ शब्द कलाकृित की आकृति निर्माण की सामग्री एवं पद्धति को व्यक्त करता है। कलाकार की चित्र रचना की विधि तकनीक कही जाती है। प्रत्येक कलाकार की तकनीक व्यक्तिगत होती है, जिसे वह सतत् अभ्यास से प्राप्त करता है। प्रत्येक कला काल के अनुसार विविध माध्यमांे तथा प्रविधियों को जन्म देती है। इन सभी प्रविधियों को कलाकार विभिन्न माध्यमों के साथ प्रयोग करता है।
किसी भी रंग पदार्थ के चित्रण हेतु साधन की आवष्यकता होती है, जो माध्यम के रूप में जाना जाता है। प्रत्येक माध्यम की अपनी विषिष्टताएँ होती है। प्रत्येक कलाकार को आत्माभिव्यक्ति हेतु अपने माध्यम के प्रयोग की विधि तथा सम्भावनाओं का ज्ञान होना आवष्यक है।
कला इतिहास की विवेचना से ज्ञात होता है कि कलाकार प्राचीनकाल से विभिन्न माध्यमों द्वारा अपने भावों को अभिव्यक्त करता आ रहा है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक चित्रकार अपने समयानुसार जो माध्यम सहज सुलभ थे उनका प्रयोग करता रहा है। प्रागैतिहासिक काल में गुफाओं में काले, सफेद एवं उपलब्ध प्राकृतिक व खनिज रंगों से, मध्यकाल की पच्चीकारी और रंगीन कांच के टुकडें; 15वीं व 16वीं सदी के फ्रेस्कोचित्र, आधुनिक काल के कैनवास, तैलरंग, एक्रेलिक आदि कई नये-नये आविष्कार से कलाकार अपने भावों को इनके द्वारा व्यक्त करता चला आ रहा है। विविध माध्यमांे का भी अपना स्वाभाविक व्यवहार एवं प्रकृति होती है, उसे भी कलाकार को समझना आवष्यक है। कोई भी कल्पना तब तक कलाकृति का रूप नहीं ले सकती है जब तक कलाकार को कला माध्यमों एवं उनके प्रयागे करने का ज्ञान न हो। माध्यम की प्रकृति को ध्यान में रखना ही रचना कौषल का रहस्य है। सफल कला सृजन माध्यमांे एवं विधियों की विधिवत षिक्षा द्वारा ही संभव है अन्यथा कलाकार अपने भावों को अभिव्यक्त करने में असमर्थ होगा। विविध माध्यमों व तकनीक का अध्ययन इस अध्याय में किया जा रहा है।
जल रंग
जल रगं का प्रयागे मुख्यतः कागज पर ही किया जाता है। हाथ से बना कागज जलरंग चित्रण के लिए उपयुक्त रहता है। जलरगं चित्रण के लिये ऐसे कागज की आवष्यकता होती है जो रंग को आसानी से फैलने दे, पानी को सहन कर सके। कागज पर चित्रण करने से पहले कागज को गीला करके किनारों पर गोंद या टपे द्वारा बोर्ड की सतह पर चिपका दिया जाता है फिर उस पर रंग लगाना उचित रहता है ताकि रंग आसानी से फैल सके व कागज पर रंगों के धब्बे न पडे़। इस तरह कागज लगाने से कागज खिंच जाता है आरै रंग लगाने पर ऊंचा-नीचा भी नहीं होता। जलरंगों को पानी में घाले कर पतला लगाया जाता है जिससे रंगों मंे पारदर्षी प्रभाव व ताजगी रहती है। श्वते व काले रंग का प्रयोग इसमें नहीं करना चाहिये। जलरगं चित्रण के लिये सेबल (नेवले की जाति का जानवर) के बालांे की तूलिका उपयुक्त रहती है। आजकल कृत्रिम बालों वाले ब्रष का प्रयोग होने लगा है। तूलिका गोल , चपटी तथा विभिन्न मोटाई की मिलती है। बारीक काम के लिये गोल व बड़े स्थानांे हेतु चपटी तूलिका का प्रयोग करना चाहिये। जलरंग की शद्धुता का भी ध्यान रखना चाहिये। समय-समय पर पानी गदंा हो जाने पर बदलते रहना चाहिये।
चित्र 1 - सरस्वती, राम जैसवाल, जलरगं
टेम्परा
ज्लरंग की तरह इसका संवाहक भी जल है। इसमें अपारदर्षीय रंगतों का प्रयोग किया जाता है। इसकी मुख्य विषष्ेाता इसकी पायस (लेई) है। ये पायस गोंद, सरसे, अण्डे की जर्दी, शहद, मोम, दूध आदि पदार्थ है जिसे रंगों मंे मिलाया जाता है, जिससे रंगों में अपारदर्षीता रहती है। इस विधि में चित्रांकन करने में सुविधा रहती है। इसमें रंगतों द्वारा विभिन्न प्रभाव उत्पन्न कर सकते है। इसे तैयार करने में खड़िया पाउडर का प्रयोग किया जाता है जो आजकल पोस्टर रंगों के रूप में बाजार में उपलब्ध रहता है। 15वीं शती के यूरापे के चित्रकारों का प्रिय माध्यम टेम्परा था जिसमें अण्डे की जर्दी को मिलाया जाता था। अण्डे मंे से जर्दी वाला भाग सफदे भाग मंे से सावधानी पूर्वक अलग किया जाता है, फिर उसे जलरंग के लिये प्रयुक्त होने वाले पाउडर मंे मिलाकर पेस्ट के रूप मंे बना लेते हैं और पानी को संवाहक के रूप मंे प्रयोग करके चित्र पर लगाया जाता है। इसे सूखी दीवार पर या कागज पर रेखांकन करने के बाद तूलिका की सहायता से लगाया जाता है। सूखने पर एक हल्की चमकदार झिल्ली बन जाती है। इससे चित्र में अपारदर्षिता आती है और चित्र को सुरक्षा भी देती है। अन्य विधि से गोंद का पायस मिलाकर तैयार किया जाता है। रंग के पाउडर में गोंद या सरसे मिलाते हैं। चित्र धरातल खुरदरी दीवार, लकड़ी का बोर्ड, कागज आदि होता है जिस पर यह तैयार लेप लगा देते हैं। सूखने के बाद दूसरे रंग को उसी के ऊपर लगाकर नवीन प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।
चित्र 2 - सीता, गणेश पाइन, टेम्परा
वाष
वाष चित्र की तकनीक बंगाल स्कूल की देन है। अवनिन्द्रनाथ टैगोर ने जापनी कला से प्रेरणा लेकर वाष टैकनीक अपनाई। इसका सवांहक जल ही है। इस माध्यम में धरातल हेतु अंग्रेजी व्हाटमैन कागज का प्रयोग किया जाता था। श्वेत काॅट्रजे पेपर पर भी इसका प्रयोग किया जाता है। चित्रकार चित्र बनाने के लिये सर्वप्रथम चित्र की आकृतियांे को लाल रंग की रेखाओं से अंकित करता है। फिर चित्र को पानी मंे भिगोकर समतल बोर्ड पर सुखाकर चित्र की सीमा रेखाआंे को स्थायी कर लेता है। इसके पष्चात् चित्र के विभिन्न भागांे मंे रंग भर दिया जाता है। कागज को पुनः पानी में भिगोकर सपाट पट पर सुखाकर चित्र के रंगों को स्थायी किया जाता है जिससे कि ऊपर से रंग की सपाट वाष लगाने पर यह रंग कागज से न छूट जाये। इस क्रिया के पष्चात् वातावरण उत्पन्न करने के लिये एक या अनके रंगों को सम्पूर्ण चित्र के ऊपर पारदर्षी ढंग से बहा दिया जाता है या वाष लगा दी जाती है। इससे सम्पूर्ण चित्र मंे धूमिल वातावरणीय प्रभाव आ जाता है। इसके पष्चात् चित्र की आकृतियों को उभारने के लिये रेखांकन को पनु: कत्थई या किसी अन्य रंग से उभार दिया जाता है। आकृतियों मंे डौल लाने के लिये छाया तथा प्रकाष का भी आवष्यकतानुसार प्रयोग किया जाता है।
चित्र 3 - नन्दलाल बोस, वाश
तैल रंग
तैल माध्यम स्थायी है। इस पर पानी का प्रभाव नहीं पड़ता। इसमें छाया प्रकाष को स्वाभाविक व प्रभावषाली ढंग से बनाया जा सकता है।ं इसमें टैक्सचर देने में सरलता रहती है। चैडे़-चैेड़े तूलिकाघातांे का प्रयोग कर सकते हैं। साधारणतया चित्रण तीन विलेप (कोट्स) में होता है। पहले लेप मंे छाया, दूसरे में मान व तीसरे लेप मंे प्रकाष दिखाने के लिये होता है। कलाकार अपने अनुभवों से कुछ हेर-फेर भी कर लेता है। तैल रंग मंे निम्न बातांे का ध्यान रखना चाहिये।
तैलचित्रण के लिये विभिन्न प्रकार के धरातलों का प्रयोग होता है जैसे कैनवास, कागज, हार्डबोर्ड, काष्ठफलक, कैनवास बोर्ड आदि। तैलचित्रण के लिये कैनवास सबसे सुिवधाजनक व अच्छा आधार होता है। कैनवास से तात्पर्य अच्छे मजबूत धागे द्वारा बुनकर तैयार किये श्रष्ेठ कपड़े से कैनवास को लकड़ी के फ्रेम मंे खींचकर कीलांे से तान दिया जाता है अथवा लकड़ी के बोर्ड पर चिपका दिया जाता हैं। कागज के अलावा हार्डबोर्ड और काष्ठफलक पर भी चित्रण कर सकते है जिनका चयन कलाकार अपनी आवश्यकता और पसंद के अनुसार कर सकता है।
तैयार कैनवास पर सरेस, या प्राइमर को पानी से पतला कर उस पर ब्रुष से लगा देतेे हंै ताकि कपडे़ के छिद्र बंद हो जाये। इस प्रक्रिया को साइजिंग कहते हैं। इसके उपरांत प्राइमिंग की जाती है। कैनवास पर सफेदा (जिंक टिटेनियम या लैड आक्साइड) तारपीन या अलसी के तेल का मिश्रण तैयार करके चैड़े ब्रुष से लगाया जाता है।
चित्र 4 - राजा रवि वर्मा, तले चित्रण
तेल चित्रण के लिये सफेद बालों वाली चपटी तूलिका उपयुक्त रहती है। इन्हे फ्लैट ब्रुष भी कहा जाता है। कुछ फ्लैट बु्रष किनारे से गोलाई लिये रहते हैं। गोल ब्रुष को भी बारीक काम के लिये प्रयोग करते हंै। चित्रण हेतु पंेटिग नाइफ व फ्लैट नाइफ को भी चैडे़ आघातांे हेतु उपयागे किया जाता है। तैल चित्रण के लिये शुद्ध अलसी का तेल, शुद्ध तारपीन का तैल व वार्निष माध्यम हेतु प्रयोग करते हंै।
एक्रलिक चित्रण
सन् 1950 के पष्चात् ही एक्रेलिक माध्यम विकसित व परिष्कृत हो स्थायी चित्रण माध्यम के रूप मंे आया है और वर्तमान मंे अधिक प्रचलित हो गया। एक्रेलिक रंगों में कई विषेषताएं है। इसे जलरंग माध्यम की तरह पतले वाष के रूप मंे और तैल रंग की तरह मोटेे-मोटेे घातों मंे काम कर सकते हैं। रंग शीघ्र सूखता है जिसके कारण दूसरी सतह पर रंग शीघ्र लगा सकते हंै। इसे पारदर्षी व अपारदर्षी दोनों ढंग से व कई तरह के पाते बनाते हुये प्रयागे कर सकते हंै। विभिन्न प्रभाव डालने के लिये इसमें मीडियम का प्रयोग भी कर सकते हैं। चमक लाने के लिये ग्लोस मीडियम व मैट मीडियम चमक रहित व पारदर्षी प्रभाव के लिये प्रयोग करते हंै।
चित्र 5 - मदन सिंह राठ़ौड़, अध्यात्म एक्रेलिक
पेस्टल चित्रण
पेस्टल रंगों का प्रयोग 15वीं शती के आरम्भ से और 16वीं शती मंे दिखाई देने लगा था। कई कलाकारांे ने इसका प्रयोग किया परन्तु सबसे सफल रूप में 20वीं शती के यूरोपीय कलाकार ‘एद्वार देगा’ रहे जिन्होनें इस माध्यम को अन्य माध्यमों के मिश्रण से नये प्रभाव उत्पन्न किये। पेस्टल रंगों की मुख्य विषेषता इसका धूमिल प्रभाव है। पेस्टल रंग भी चित्रण का एक माध्यम है जो चित्रण के साथ रेखांकन के लिये भी प्रयुक्त किया जाता है। जरासा तिरछा कर, घुमाकर, नोक से या एक तरफ से कागज पर घिसकर विभिन्न प्रभाव उत्पन्न कर सकते हंै। चित्र में पूर्णता, जटिल अध्ययन व त्वरित प्रभाव हेतु समान रूप से उपयुक्त है। साधारण या सूखे पेस्टल के अतिरिक्त आॅयल पेस्टल का भी प्रयोग किया जाता है। तैल पेस्टल साधारण पेस्टल रंगों की अपेक्षा अधिक स्थायी है।
चित्र 6 - सुहास राय, पेस्टल
साधारण पेस्टल रंग के चित्रण को उचित तरीके से सुरक्षित व स्थायीकरण करना चाहिये नहीं तो रंग झडने लगते है़।ं बाजार में स्थायीकरण हेतु कई फिक्सेटिव (स्थिरीकारक) मिलते हैं जिसका चित्र पर स्पे्र कर इसे स्थायित्व प्रदान किया जाता है।
कोलाज
प्रत्यक्ष वस्तुओं को चित्र धरातल पर चिपका कर बनायी गई कलाकृति कोलाज कहलाती है। ये वस्तुएं पारम्परिक माध्यमों से हटकर कुछ भी हो सकती है जैसे लकड़ी, कतरन, टिन के टुकडे, रस्सी, सूतली, पिन, रेत, ट्यूब आदि। इसका सर्वप्रथम प्रयोग घनवाद मंे दिखाई देता है। घनवाद के कलाकार मुख्य रूप से ब्राक और पिकासो ने इस पद्धति का प्रयोग किया और इस पद्धति को कलात्मक महत्व प्राप्त हुआ। चित्रण की इस तकनीक से कला सृजनता में नयी संभावनाएं व आयाम उपस्थित हुए।
भित्तिचित्रण (म्यूरल)
भित्तिचित्रण या फ्रेस्को पंेटिग दीवारों पर की गई चित्रकारी को कहते हैं। भारतीय चित्रकला का इतिहास भित्ति चित्रकला से आरम्भ होता है। अजंता-एलोरा की गुफाआंे, किलों, अनेक सार्वजनिक व निजी भवनांे मंे भित्ति चित्रकला दिखाई देती है। सभ्यता के विकास के साथ चित्रण विधि में भी परिपक्वता आती गई। भित्ति चित्रण की तकनीक में भी प्रगति होती गई। इस पद्धति मंे गेरू, खड़िया, रामरज, हिरमिच, काजल, लाजवर्द आदि खनिज रंगों का प्रयोग हुआ।
भित्ति चित्रण में दो पद्धतियां प्रचलित हैं - (1) आलागीला पद्धति व (2) सूखी पद्धति। ताजी प्लास्तर की हुई भित्ति पर चित्रण कार्य आलागीला पद्धति है। इस पद्धति में दीवार बनाते समय ही चूने बालू या संगमरमर के चूर्ण का मोटा लेप लगा दिया जाता है। लेप के जम जाने व सूखने से पूर्व ही नम प्लास्तर पर खनिज रंगों को इस प्रकार लगाया जाता है कि रंग और धरातल एक हो जाते हैं। इस तरह की दो पद्धतियां प्रचलित हैं एक इतालवी और दूसरी जयपुरी पद्धति। इतालवी पद्धति में गीले चूने में दो भाग बालू मिलाकर भित्ति पर पलास्तर चढ़ाते है। गीली सतह पर ही नुकीली लकडी़ या धातु से रेखांकन कर लेतेे हंै। खाका को भित्ति पर रखकर गेरू पाउडर को मलमल के कपड़े मंे डालकर उस पर दबाकर रेखांकन बना लेतेे हैं। ग्रिड की सहायता से मुक्तहस्त से रेखांकन कर सकते है। फिर केवल खनिज रंगों का ही चित्रण मंे प्रयोग करना चाहिये।
चित्र 7 - अजन्ता, भित्तिचित्रण।
गीले प्लास्तर मंे लगाये जाने के कारण रंग प्लास्तर द्वारा शोषित होकर गहरे बैठ जाते हंै और प्लास्तर का एक अविभाज्य अंग बन जाते हैं। जयपुर की भित्तिचित्रण पद्धति भी इसी प्रकार की है। प्रचलित नाम अरायष तथा मोराकषी है। गीली सतह पर रंग लगाने के बाद उस पर अकीक पत्थर या ओपनी से धरातल की घिसाई कर उसमें चमक लाई जाती है। सूखी पद्धति मंे भित्ति को उपरोक्त विधि से ही तैयार करके उसके पूर्ण रूप से सूखने के बाद चित्रण किया हुआ कार्य सूखी पद्धति की श्रेणी में आता है। इसमें रंगों के माध्यम हेतु गोंद, सरेस व अंडे की जर्दी का प्रयोग किया जाता है।
भित्ति चित्रण तकनीक मंे भित्ति को तैयार करके उस पर चित्रण किया जाता है। मिश्र के कलाकार व पुनर्जागरण काल मंे यूरोपीय कलाकारों ने इस पर परम्परागत तकनीक के स्थान पर किसी भी माध्यम से चित्रण कर भित्ति को सजाया इसी को म्यूरल की संज्ञा की गई है।
मणिकुट्टिम
यह माध्यम पंाचवीं तथा छठी शताब्दी की ईसाई कला से देखने मंे आता है। आरम्भ में केवल भवनांे के फर्ष तथा फव्वारों आदि पर विषेष रूप से मिलता है। भित्ति चित्रांे में भी इस पद्धति का प्रयोग होने लगा था। चर्च, समाधिगृहांे, दीवारों और महेराबों पर भी इसके प्रयोग कालांतर में होनेे लगे थे। इस कार्य हेतु रंगीन कांच के टुकड़ों का प्रयोग होता है जिन्हें प्लस्तर की हुई दीवार पर चिपका देते थे। रंगीन कांच के टुकडे सुनहरे, लाल, नीले, हरे आदि होते थे जिनसे भवनों की आन्तरिक प्रकाष मंे भी परिवतर्न हो जाता था। काँच के टुकड़े प्लस्तर सूखने के साथ ही दीवार मंे जम जाते थे। आज भी जनसाधारण अपने भवनों को अलंकृत करने हेतु इनको स्थान देते हंै।
मिक्स मीडिया
दो या अधिक चित्रण माध्यमों को मिश्रित कर नवीन रूप मंे अभिव्यक्त करना ही मिक्स मीडिया या मिश्रित माध्यम कहलाता है, जैसे जल रंग के साथ पोस्टर रंग, एक्रिलिक रंग के साथ तैल रंग, पेस्टल रंगों के साथ पोस्टर या तैल रंग का प्रयोग करना। छापा चित्रण के विविध पद्धतियों को भी मिश्रित कर नये माध्यम में सृजन किया जा सकता है। इस तरह के प्रयोगों द्वारा कलाकार अपनी सृजनात्मकता से नयी संभावनाओं की वृिद्ध करता है।