कोई भी चित्र, प्रतिमा, किसी प्रकार का वर्ण-विन्यास, पुष्प-विन्यास, सुन्दर-सा कोई पात्र अथवा मानव-निर्मित कृति जो हमारा ध्यान इस भांति आकर्षित करे कि हम उसे देखें और उस निहित सौन्दर्य को पहचान लें वही कला है। जहाँ मानव है वहीं कला है। मानव-जीवन की अपूर्णताओं की पूरक कला है। मानव-जीवन की रुक्षता को सरस बनाने तथा उसके विकास के लिए पथ-प्रदर्शिका ही कला है। जीवन की प्रत्येक अवस्था में, सुख में या दुख में, कला ही जीवन की सच्ची सहचरी है। कला का गौरवं सुन्दर वस्तुओं के सौन्दर्य-निरीक्षण में निहित है। कला का गौरव पहचानना मनुष्य को तभी आता है जब वह कला के प्रति सजग हो।
कला का जन्म
कला का जन्म मानव की आविष्कार करने की प्रवृत्ति का ही परिणाम है। पुरातन काल में मनुष्य को संसार अत्यन्त ही जटिल तथा अनोखा प्रतीत हुआ होगा। पर वह था अपने समय का कलाकार। प्रकृति को भली भांति समझ बिना भी वह अपने निवास स्थान को चाहे वह गुफा ही क्यों न हो, सजाता रहा, अपने शरीर को सुन्दरतम बनाने के लिए विविध रंगों का प्रयोग करता रहा और धीरे-धीरे चित्रित वस्त्रों के उपयोग की ओर अग्रसर हुआ। अपने घर को विविध अवसरों पर तरह-तरह से सजाकर वह जीवन के प्रत्येक क्षण को चित्रित, रंजित और आनन्दित बनान के लिए प्रयत्न करता रहा।
कला की परख
सच्ची कला की व्याख्या सच्चा कलाकार कुछ अपने स्वभाव से ही अपनी कृति को किसी नियत नमूने के अनुसार बनाना नहीं जानता । प्रकृति अपने नियमों से बद्ध है । मकड़ी अपना जाला बनाते समय एक ही आदर्श सम्मुख रखती है और उसे पूरा कर लेती है । पेड़-पौधे भी इसी प्रकार एक नियम का पालन करते हैं। कलाकार प्रकृति के नियमों से बँधा हुआ नहीं। जब वह कला में निमग्न होता है तो नए सौन्दर्य की रचना करता है, नई वस्तु बनाता है। वह केवल नकल करना नहीं जानता, वह स्वयं को व्यक्त करना जानता है। कोई. प्रतिमा, पात्र या सुन्दर-सा चित्र यदि प्रकृति का अनुकरण मात्र है को कला नहीं कहा जा सकता। कला वह है जो मानव की कल्पना-निर्मित अद्भुत रचना में सबको चकित कर दे। प्रकृति से मानव को सदैव प्रेरणा मिलती रही है. और मिलती रहेगी, परन्तु चित्रकार अपनी कला का स्वयं ही विधाता होता है।
प्रवृत्ति को सहारे की आवश्यकता है और इसीलिए विद्यालयों में आज कला-शिक्षण को इतना महत्त्व दिया जाता है। प्रथम श्रेणी से लेकर सर्वोच्च श्रेणी-पर्यन्त बच्चे को अपने मनपसन्द की कृति बनाने की सुविधा होनी चाहिए। जैसे-जैसे वे अपने भावों को रेखाओं या रंगों द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं वैसे-वैसे वे कलाकार की मुश्किलों को समझते जाते हैं और अपने कार्य में सच्चे उत्साह और लगन से लग जाते हैं। अतः शिक्षक का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह बालकों में कला के सिद्धान्तों को समझने की शक्ति पैदा करे जिससे वे कलात्मक वस्तुओं को पहचानना सीख जाये और उनकी समुचित प्रशंसा कर सकें। पर इसका यह अर्थ नहीं कि वे हर प्रकार की वस्तु की प्रशंसा करने लगें। उनमें इतना ज्ञान होना चाहिए कि वे इस विषय पर भली प्रकार आलोचना कर सकें, वस्तुओं की समता व विषमता को देख सकें और फिर उनको सुन्दरतापूर्वक क्रमबद्ध कर सकें । यह ज्ञान प्रत्येक प्राणी के लिए आवश्यक है और जीवन को सम्पूर्ण बनाने की प्रथम सोपान-शिला है।
अपने जीवन में चाहे जिस प्रकार का व्यवसाय मानव को करना पड़े, जीवन की पूर्णता व सुन्दरता का आनन्द वही उठा सकता है जो कला को पहचान सके। कला का ज्ञान और उसकी पहचान मानवजीवन को ही कला बना देती है।