संयोजन के सिद्धान्त (Principle of composition)


संयोजन दो अथवा अधिक कला तत्वों की मधुर योजना को कहते हैं जिनमें से एक तत्व की प्रधानता रहती है। चित्र संयोजन मंे चित्र के तत्व, रेखा, रंग, तान, आकृति आदि को सुनियोजित करके कलाकार सषक्त अभिव्यक्तिपूर्ण सृजन कर सकता है। वह संयोजन जिसमें तत्व इस प्रकार नियोजित हो कि सन्तुलन एवं आकर्षण के नियम की अवहेलना होती हो, कभी भी सन्तोषप्रद नहीं हो सकता। चित्र संयोजन करते समय कलाकार को रेखा, वर्ण तथा तान के अपने सारे ज्ञान एवं अनुभव का प्रयोग करना होता है। सन्तुलन तथा आकर्षण से सम्बन्धित संयोजन के इन सिद्धान्तों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है-

1.            एकता (सहयाग)

2.            सन्तुलन

3.            लय (प्रवाह, ताल)

4.            सामंजस्य

5.            प्रभाविता (प्राबल्य)

6.            प्रमाण (अनुपात)

7.            परिपे्रक्ष्य

 

1. एकता (सहयोग) (Unitiy)

सहयोग संयोजन का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त माना जाता है। सहयाग का अर्थ है चित्र-संयोजन के विभिन्न तत्वों मंे अनुभूत एकता, समानता तथा एक प्रकार का सहचर्य सम्बन्ध जो समस्त संयोजन को एकता के सूत्र मंे पिरोए रहता है। चित्र के विभिन्न तत्वांे के इस तर्क-संगत सम्बन्ध को सहयोग कहते है।

साधरणतया चित्रण में जब सहयोग की बात की जाती है तो चित्र के सभी तत्वों- रेखा, रूप, वणर्, तान व पोत मंे चित्र में सहयोग या ऐकता के लिए आकारांे का दोहराव, तत्वों को एक-दूसरे के साथ जोड़ना, एक पैटर्न, रंगांे व चित्र के चारों ओर सीमा रेखा आदि का भी प्रयोग किया जाता है। कलाकृति मंे रिक्त स्थान का सही प्रयोग भी एकता बनाने में सहायक होता है। चित्र रचना मंे सहयागे के दो स्वरूप सक्रिय सहयोग एवं निष्क्रिय सहयोग के रूप में निर्धारित किये जाते हंै।

2. सन्तुलन

सन्तुलन प्रकृति का मूलभूत सिद्धान्त है। सन्तुलन कला सृजन का वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार चित्रण के सभी तत्व इस प्रकार व्यवस्थित हांे कि उनका भार (आकषर्ण) समस्त चित्र तल पर समुचित रूप से वितरित रहे। भार को अनुचित रूप से कन्ेद्रीकृत होने तथा चित्र को असन्तुलित होने से बचाना ही इसका ध्येय है।

सन्तुलन एवं दृष्टिगत भार

·       रेखा का भार : दृष्टि रेखा का अनुसरण करती है एवं रेखा दिषा का निर्देषन करती है। रेखा की गति एवं दिषा दर्षक की दृष्टि को प्रभावित करती है। कलाकार अपने चित्र के विषय अनुसार रेखाआंे का प्रयोग करता है एवं रेखा की विविधता एवं उनके प्रभाव के अनुसार चित्र में सन्तुलन की व्यवस्था करता है।

·      आकृति का भार : आकृति का भार उसके आकार पर निर्भर करता है। आकार का छोटा होना या बड़ा होना उसकी चित्र भूमि मंे स्थिति को निर्धािरत करता है। छोटे व बडे़ आकारों का सन्तुिलत प्रयोग चित्र को आकर्षक बनाता है।

·       वर्ण का भार : रेखा आकार के समान रंगों का भी अपना भार होता है, जो रंगों की आकर्षण शक्ति को निर्धारित करता है। चित्र में उष्ण शीतल रंगों का उचित प्रयोग वर्ण भार का उदाहरण कहा जाता है।

 

3. लय (प्रवाह)

कला की दृष्टि से प्रवाह, लय व गति का अभिप्राय प्रायः एक ही माना जाता है एवं प्रवाह का अर्थ चित्र-भूमि पर दृष्टि का स्वतन्त्र अबाध एवं मधुर विचरण अथवा गति होता है।

प्रवाह युक्त चित्र में दृष्टिक्रम को कोई व्यवधान का सामना नहीं करना पड़ता। यह लय, प्रवाह रेखा, रूप, वर्ण अथवा तान सभी मिलाकर उत्पन्न करते है। रिक्त स्थान में कोई गति नहीं होती किन्तु चित्र तल में एक बिन्दु रखने मात्र से गति आरम्भ हो जाती है। बिन्दु से रेखा और रेखा से गति का बोध होता है। गति से लय की अनुभूति हानेे लगती है। अतः किसी चित्र मंे लय, गति का सुव्यवस्थित स्वरूप जिसमें दृष्टि विचरण निर्बाध हो सके प्रवाह, लय या गति को प्रस्तुत करता है।

रेखाआंे द्वारा सरल, कोणीय एवं लहरदार आदि गतियों को संभव माना गया है।

आकारों के क्रम एवं पुनरावृत्ति द्वारा भी गति उत्पन्न की जाती है।

 

4. सामंजस्य

 सामंजस्य कला सृजन का वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार चित्रण के सभी तत्व यथा वर्ण, तान एवं रूप आदि एक दूसरे के साथ मेल खाते हुए प्रतीत हों चित्र सामंजस्य पूर्ण कहलाता है एवं चित्र में निरर्थक विकर्षण-तत्व नहीं आ पाता। अर्थात् जब किसी समूह के सभी अंग शक्तिषाली सादृष्य से बंधे हों तो वह सामंजस्य चयन का उदाहरण कहा जा सकता है ।

 

रेखा सामंजस्य :

(क) आवृत्ति रेखायें - जो एक दूसरे को अनुकरण करती है।

(ख) रेखायें जो एक दूसरे का गतिरोध करती हैं।

(ग) सन्धि रेखायंे जो गतिरोध के प्रकार को मृदु बनाती है।

रूप सामंजस्य :

मुख्य व सहायक रूपाकारों की ऐसी व्यवस्था जिसमें वे परस्पर व एक दूसरे के लिए पूरक का कार्य करें। छोटे एवं बड़े आकारों की सामंजस्यता आदि।

पा ेत सामंजस्य : पा ेत साम ंजस्य ोत साम ंजस्य एक चित्र मे एक दूसरे से मेल खाते पोत का प्रयोग हो। पोत की संरचना प्रकृति स े प्राप्त होती है एवं पोत से किसी भी आकार को अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है। अतः चित्र में पोत सामंजस्य का भी कुषलता स े प्रयोग होना चाहिए।

 

6. प्रमाण (अनुपात)

यह भी एक मूलभूत प्राकृतिक सिद्धान्त है जो आकार एवं अनुपात से सम्बन्धित होता है। प्रमाण को समबद्धता का सिद्धान्तभी कहा जाता है। यह आकृतियांे का अपना प्रमाण (लम्बाई, चैड़ाई का सम्बन्ध) तथा सभी आकृतियों का एक-दूसरे से सम्बन्ध और तान तथा वर्ण इत्यादि का चित्रभूमि से सम्बन्ध निष्चित स्थापित करता है।

जैसे पहाड,़ पेड़, पषु, पक्षी, मानव आदि सभी का अपना एक निष्चित अनुपात, बनावट एवं आकार होता है एवं प्रत्येक की अपनी संरचना भी अनुपातिक रूप से होती है। जैसे कि सभी प्राणियांे के अंग-प्रत्यंग एक निष्चित अनुपात के होते हंै। भारतीय कला मंे प्रमाण का महत्व षडंग के द्वारा जाना जा सकता है। षिल्प शास्त्रांे मंे भी अनके प्रकार के प्रमाणों का वणर्न प्राप्त होता है जिन्हें ताल व अंगुल प्रमाण के द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

 

7. परिप्रेक्ष्य

परिप्रक्ष्ेय एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है जिसके द्वारा चित्र में दूरी या गहराई के प्रभाव को उत्पन्न किया जाता है। चित्रकला में परिप्रक्ष्ेय का सम्बन्ध द्विआयामी धरातल में वस्तु को त्रिआयामी रूप से चित्रित करने में रहता है अर्थात् किसी वस्तु को देखते समय तीन आयामांे लम्बाई, चैड़ाई एवं गहराई का भ्रम उत्पन्न करना ही परिप्रक्ष्ेय है। इसे क्षयवृद्धि (Foreshorting) का सिद्धान्त भी कहा जाता है। चित्र धरातल में केवल लम्बाई और चैड़ाई दो आयाम होते हैं किन्तु इस द्वियामी धरातल पर जब लम्बाई एवं चैड़ाई के साथ-साथ गहराई या मोटाई को भी प्रस्तुत करना हो तो इस विषिष्ट विधि का प्रयोग किया जाता है। परिपे्रक्ष्य को अनेक रूपों में समझा गया है ।

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