अब्दुर्रहमान चुगतई का जन्म सन 1899 ई० मे अविभाजित लाहौर मे हुआ था
जिस प्रवाह, जिस कला-शैली और बद्धमूल धारणायों को लेकर बंगाल स्कूल विकसित हुया था, उममे सहसा मुडकर वे एक सर्वथा नई दिशा की ओर उन्मुख हुए। उन्होंने कला की किसी खास परिपाटी को जन्म नहीं दिया, न ही उनके चित्रों के मूल में कोई पूर्व-निर्धारित योजना अथवा सीखी हुई दक्षता थी ये तथापि भीतर मे संजोई अनन्त प्रकाश की क्षमता और रंग एवं रेखायों के सामंजस्यपूर्ण संघात ने विरासत में पाये संस्कारों के अनुरूप फारसी सौंदर्य की कोमल भावनाओं को उभार कर उनकी कला को एक नया भव्य हुप प्रदान किया। ज्यों-ज्यों उनकी कार्य करने की शक्ति परिपक्व होती गई, उनमें एक समूचे प्रभाव को प्राणान्वित कर अभिव्यक्त करने की अधिकाधिक सामर्थ्य आती गई । उनके रंग और रेखाओं में एक अद्भुत संतुलन स्थापित हो गया । रंगो की सीमाएँ स्पष्ट होने लगी, स्वप्निल-सी हल्की धूमिल छाया उनके चित्रों के समम्न वातावरण पर छा गई।
चुगतई की अथाह निर्मुक्त जिन्दादिली में एक ऐसी सान्ध्य गगन की-सी उदासीनता समाई हुई है, जो साधारण प्रेक्षक के लिए दुर्भेद्य-सी हो उठती है। कही प्रेम और विरह का कम्पन मिलेगा, कही प्रकाश की भीनी रंगमयता और अंधकार का आह्वान, कही खिले हुए गहरे गुलाब के फूल का-सा अल्हड़ सौन्दर्य और कही भीतर की उमंगों को झकझोर देने वाली सघन मनोव्यथा। कहीं जीवन के प्रति महाराग प्रकट हुआ है, तो कहीं कलात्मक सृजन की चरम व्यापकता द्रष्टव्य है। दिव्यता और तरलता, छलकती हुई स्वप्नमयी कोमल करुणा, सृजन को शाश्वत गति देने वाली सौम्य लयमयता--इस प्रकार चगतई की कला में आंतरिक कल्पना का वैभव पूर्णतः अभिव्यंजित हुआ है।
चुगनई ऐसे परिवार में उत्पन्न हुए थे, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी कला की उपासना में रत रहा था। कुशल शिल्पी, वास्तुकार, चित्रकार, सज्जाकार, कला-पारखी यहाँ पैदा होते रहे थे । मुगल शासन-काल में उनके परिवार के कुछ सदस्य अत्यन्त प्रसिद्ध भवन-शिल्पी थे। शुरू में चुगतई को उच्च शिक्षा देने का प्रयत्न किया गया, पर अपने जन्मजात संस्कारों के कारण वे कला की ओर आकृष्ट हुए । इक्कीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपने चाचा से, जो एक दक्ष भवन-शिल्पी थे, पेंटिंग सीखनी प्रारम्भ की। लाहौर के मेयो आर्ट स्कूल में भी कुछ दिन काम करते रहे, पर अधिकतर उनकी कला-साधना स्वतःप्रेरित ही थी।
उनके पिता चाहते थे कि वे इंजीनियर बने, किन्तु चुगतई अपना क्षेत्र स्वयं चुन चुके थे । कुछ अर्से तक व्यावसायिक कला यौर फोटोग्राफी की ओर भी उनका झुकाव रहा। इसमें वे एक हद तक सफल भी हुए पर शीघ्र ही असन्तुष्ट होकर इस कार्य को उन्होने छोड़ दिया। गम्भीर चित्ररण प्रारम्भ कर देने के पश्चात उनका कार्य योजनाबद्ध चल पड़ा। चुगतई की यह विशेषता है कि शिक्षा, परम्परा और अपनी अतंर्जात प्रवृत्तियों के फलस्वरूप वे एशियाई कला-परम्पराओं से अत्यधिक प्रभावित रहे हैं । इनके मुकाबले में बहुत कम पौर्वात्य कलाकारों ने पाश्चात्य-कला की प्राचीन एवं अर्वाचीन धाराओं को हृदयंगम किया है, फिर भी ये सदैव एशियाई कला-परम्पराओं को ही महत्त्व देते रहे हैं। एशियाई चित्रकला की कतिपय विशेषताएँ - यथा प्रतिच्छाया का अभाव, प्रत्यक्ष की अवहेलना और किसी वस्तु के आकार में ऐच्छिक वृद्धि चुगतई की कला में भी द्रष्टव्य है । पौर्वात्य कलाकारों के सदृश इन्होंने कभी कोई स्थूल आधार अथवा माडल स्वीकार नहीं किया ।
चगतई की कला को तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है। सन 1918 से 1927 तक इन्होंने रेखाओं के उभार और चित्र के विस्तार पर ही अधिक ध्यान दिया । रंगों को शुद्ध वास्तविक रूप मे ग्रहण न कर एक दूसरे में मिश्रित करके उपयोग में लाये। कागज की सतह पर रंगों का मिश्रित फैलाव और इस प्रकार यकसाँ असर पैदा करना इनका उद्देश्य था। इससे इनके प्रारम्भिक चित्रों में अपरिपक्वता और उथलापन नजर आता है। लेकिन विषयों का चुनाव उन दिनों बहुत सुन्दर होता था। जीवन का दृष्टिकोण रूमानी था, पर साथ ही निष्क्रिय और शैथिल्य लिये हुए । इनके द्वारा अंकित मानवाकृतियों के इर्दगिर्द लगता है मानो स्वप्नमयी छाया सी फैली हो, तन्द्रा की-सी निश्चेष्ट स्थिति छा गई हो। औरतों को सोलहवीं शताब्दी की मध्य एशियाई पोशाक पहनाई गई है, पर वह इतनी महीन और हवाई है कि इस पृथ्वी पर भी उसका कही अस्तित्व होगा, यह संदेहास्पद है। चुगतई के चित्रों के नारी-पुरुष अपनी समस्त गतिविधि के साथ कुछ क्षणों के लिए रुक गए-से,स्तब्ध और मूकवत प्रतीत होते हैं और मानो वे इतने चिंतातुर अथवा अपने-आप में खोए हुए हैं कि उन्हें अपनी चतुर्दिक स्थिति का भी भान नही। जहाँ मनुष्यों का समूह चित्रित हुआ है, वहाँ भी हर शख्स गम्भीर मुद्रा में और एक दूसरे के अस्तित्व से बेखबर जान पड़ता है । इन चित्रों को देखकर एक और हमें वात्तों (ॅंजजमंन) के चित्रों का स्मृण हो पाता है, दूसरी ओर अजंता के भित्ति-चित्र हमारे दृष्टि-पथ के सम्मुख आकर बिछ जाते है।
चुगतई के एक चित्र में एक स्त्री अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में संगमरमर के फर्श पर बाल विखरे अत्यन्त दयनीय अवस्था में बैठी है। उसका मानस व्योम सूना सा है । शोक-संताप से उसका जागृत नारीत्व सिहर उठा है। यों उसकी वस्त्र-सज्जा और शारीरिक श्रृंगार समयानुकूल है। प्रिय की स्मृति में उसके मन-प्राण इतने क्लान्त हैं कि वह सुध-बुध खो बैठी है, उसकी वाह्य चेतना लुप्त सी हो गई है। चहुँ ओर के वातावरण से भी वह अनजान है । किन्तु इसके बावजूद उसके आसपास बिखरी चीजें खुशी और आह्लाद प्रकट कर रही है, वे भी जैसे धैर्यपूर्वक चिर-प्रतीक्षा में योग दे रही है। कोने में नन्हा सा फूल खिला पड़ा है। सारा वातावरण शिथिल है, पर साथ ही उसमें आशा की खुशनुमा चहक भी है।
इनके प्रणय और श्रृंगार के चित्रों में बड़ी ही मोहक तल्लीनता है। रंग और रेखाओं की द्रुत लय में भान ओतप्रोत होकर तदाकार हुए से प्रतीत होते हैं। उनकी एक ड्राइंग होली खेलने के रंगीन वातावरण को लेकर चित्रित हई है। इसमें दो प्रेमकातर विह्वल प्रेमियों की मादक उत्तेजना उस गरिमा को व्यंजित करती है जहाँ आत्मा का परमात्मा से अभिन्न सम्बन्ध जुड़ जाता है।"जंगल में लैला"कलाकृति में भी यही प्रेम को बाँकी ओर और आँखों में सक व्यथा उमड़ी पड़ती है । स्नेहशील हरिणों के बीच लैला की झुकी हुई रूपाकृति निरीह विवश प्रेम की करुण गाथा है । "सहारा की शाहजादी" में रेतीला मैदान, पृष्ठभूमि में ऊँट का चित्रण तथा धप के भीषण ताप की तपन और अलसाई श्रांति उसकी आँखों में समाई हुई है और बहनों में स्वरूप विधान की सार्थकता तथा उनके वस्त्रों का प्रभास केवल कुछ रेखाओं में व्यंजित हुया है। जिन्दगी, बुझी लौ, कवि-जिन्दगी का ताना-बना, गीत-दान, अहंकार, प्रणयी का सान्ध्यगीत, एकाकी उपत्यका, सन्यासी आदि उनके चित्रों में वातावरण, परिस्थिति और पूंजीभूत रूपकत्व है । मात्र रूपकत्व ही नहीश्, काव्यत्व भी है । ऐसा प्रतीत होता है मानो वे जीवन के रहस्यमय क्षणों के प्रसंग हैं और यह अकल्पनीय रहस्य ही उनका वाह्य स्वरूप उभारता है, पात्रों की सृष्टि करता है और अभिभूत कर लेने वाला व्यंजक प्रभाव छोड़ जाता है। वे हमारे अंतर को स्वप्न की सी थपकियों से गुदगुदा देते हैं। वे हमें ऐसे छायालोक के झुरमुट में ले जाते हैं, जहाँ कल्पना-कानन में सौन्दर्य के फूल खिलते हैं और चमकते कूल कगारों से रूपहली आभा रिसती है। इनकी कलाकृति "जहाँ लताएँ उगती है" में सतत परिवर्तनशील दिवस का झरता आलोक जो लता के इर्दगिर्द छितरी पत्तियों को अपने स्वर्णिम प्रकाश से रंजित कर रहा है और समस्त पृष्ठभूमि को धीमी मंद रोशनी की बुझती-मिटती प्रकाशमय छायाओं से समाच्छन्न किये हैं बड़ी ही कुशलता से दर्शाया गया है। एक छोटी टहनी पर दो प्रेमी परिन्दे बैठे हैं जिन पर प्रकाशछटा छिटकी हुई है। श्एकाकी उपत्यकाश् में गीत की सी लयमयता है । वहाँ का सुरम्य वातावरण, धुमावदार पहाड़ियाँ, वृक्षों से सघन चरागाहें, प्रवाहित नाले. पर सामने विखरे गाँव सभी मानों चुनौती-से देते हैं कि बड़े-बड़े महलों उच्च अट्टालिकाओं की रुद्ध हवा और चहारदीवारी से निकलकर बहार की खुली हवा में साँस लो, उन्मुक्त जीवन के आनन्द का प्रास्वादन करो। संन्यासी में एक सूफी सत की आध्यात्मिक भंगिमा के दर्शन होते हैं। काले घुघराले बाल, सौम्य चेष्टा शान्त दृष्टि, पतली सीधी नाक, छोटा भावपूर्ण मुँह, प्राजानु भुजाएँ, सिर पर नकीली टोपी और शरीर पर ढीला चोगा-इम प्रकार बड़ी ही अकृत्रिम सरलता किन्तु ससंयत पद्धति से इस चित्र को ऑका गया है। संन्यामी तरुण है और कुलीन मालूम पड़ता है। वह सुख-वैभव में पला हैं, किन्तु सत्य की खोज में उसने दुनिया के सुख से मुंह मोड़ लिया है ।
सन् 1927 में श्दिवान-ए-गालिबश् छपने के बाद चुगतई के दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर आ गया था। वे अपनी प्राथमिक कला कृतियों से असन्तुष्ट हो गये। उन्होंने बाद में बताया कि इस पुस्तक के छपने में यदि चन्द महीनों की भी देर होती, तो शायद वह कभी न छप सकती। भीतर ही भीतर उन्होंने महसूस किया कि उनके चित्रों का वातावरण बड़ा ही मनहूस और जीवन से दूर जा पड़ा है। उनके चित्रों की औरतें और मर्द, उनकी पोशाकें और वाह्य सज्जा मध्य एशियाई अथवा मुगलों की जमाने के सी लगती है । आगामी तीन-चार वर्षों तक वे यूरोप का भ्रमण करते रहे। इस दौरान में उन्हें कला की नई-नई टेकनीक, अभिव्यक्ति के अभिनव माध्यम और नये-नये प्रयोगों का बोध हुआ । देशी विषयों में उनकी रुचि बढ़ती गई । उनका अत्यधिक शृंगारिक दृष्टिकोण संयत हो गया। उसमें यथार्थवाद की आती गई। यूरोप में उन्होंने कितनी ही आर्ट-गैलरियों और कला-संस्थानों को देखा था। पुनरुत्थान-युग की कला और आधुनिक यूरोपीय कलाधाराओं ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया था । किन्तु यूरोपीय प्रभावों को आत्मसात् करके भी उनकी एशियाई कला टेकनीक पर छिछला अनुकरणात्मक यथार्थवाद हावी नहीं हुआ। अपने व्यापक और विवेचनात्मक ज्ञान से उन्हें ऐसे अर्थगर्भित तत्त्वों की उपलब्धि हुई, जिनकी मदद से उन्होंने अपनी शैली को सुसंगठित और संयत किया, आज की आवश्यकताओं के अनुकूल ढाला। उन्होंने रंगों को शुद्ध रूप में ग्रहण किया, रेखाओं पर अधिक घ्यान न देकर चित्र के समवेत स्वरूप पर आ टिके। विदेशी कलाकारों से भी वे प्रभावित हए थे, किन्तु यह नहीं कि उनकी अंकन-पद्धति और रंगों के सम्मिश्रण के ढंग को ज्यों का त्यों अपनाया हो, बल्कि अपनी कला के आधारभूत स्वरूप में बिना किसी परिवर्तन-संशोधन के ऐसे सर्वोत्तम पुष्ट कला रूपों की सृष्टि की, जो उनके महान् कृतित्व को शाश्वत गति का संजीवन दे सके। उन्होने यदा कदा श्पोट्रेट चित्रश् भी बनाए, पर उनके निर्माण में किसी भी माँडल से सहायता नही ली। ‘पोर्टेट चित्रों" को प्राँकते हुए किसी अनुकृति या सादृश्य ढूंढ़ने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया, वरन् किसी के मुख के उड़ते भाव या अंतरंग चैश्टाएँ. जो उन्हें कही दीख पड़ी थी और उनकी स्मृति में संचित रह गई थी, वे ही उन्होंने अपने चित्रों में ढालकर दर्शायी।
यूरोप की यात्रा के दौरान चुगतई ने श्इचिंगश् (धातु पर खुदाई) के महत्त्व को और अधिक समझा। भारत लौट कर उन्होंने अत्यन्त उत्साह के साथ अभिव्यक्ति के इस नवीन माध्यम को अपनाया और अत्युत्कृष्ट इचिंग कृतियों को तैयार किया। यूरोपीय प्रभाव ने नग्न चित्रों के प्रति भी उनमें दिलचस्पी पैदा कर दी थी और इस दिशा में उन्होंने कार्य भी किया। अभी तक किसी भी रूढ़िवादी एशियाई कलाकार द्वारा नग्न चित्रो का सृजन पहले न हुआ था।
अपनी बाद की कलाकृतियों को उन्होंने अधिक गहरा अधिक भव्य रूप प्रदान किया। पहले का उथलापन अन्तर्मन की सूक्ष्मता को अधिकाधिक उभारने के प्रयास में खो गया। रेखाओं और विवरण पर वाह्य रूप-विधान तथा स्थूल सज्जा को ही उन्होंने अपने चित्रों में प्रश्रय नही दिया, प्रत्युत रंग और रेखाएँ--दूध और पानी की तरह--एक-दूसरे में लय हो गई। उनकी पहली दृष्टि की भ्रान्ति क्रमशः साधक की गम्भीर अनुभूति में रम गई। प्राथमिक चित्रों में कीमती पोशाकों की झलमलाहट, सलवटें, उनका लहराता सौंदर्य आदि दर्शाने के लिए वे दर्जनों रेखाएं खींचते थे, पर बाद में कुछ लीकों से ही काम चलने लगा। अमंलग्न रेखाएँ, यत्र-तत्र छिटके रंग और फारसी नफासत उस अर्थ, भाव, गहराई को व्यंजित करने लगी जिसमें भारतीय सूफी आध्यात्मिकता भी ओतप्रोत थी।
चगतई के चित्रों में अनजाने ही प्रतिरूपक उभरे प्रत्येक जीव और ईश्वर द्वारा सृष्ट वस्तु--मनुष्य, पक्षी, फूल, पौधा, वृक्ष--जीवन के चक्र के साथ सतत घूमते हैं। जन्म, विकास, परिपक्वावस्था, क्षय, मृत्यु-बस यहीं चरम स्थिति पर आकर जीवन का पटाक्षेप हो जाता है। चुगतई की दार्शनिक दृष्टि जीवन की गहराइयों को स्पर्श करती हुई हर पहल पर टिकती है। उनके चित्रों से अधिक अनासक्ति का भाव प्रबल है। यौवन के उन्माद में वे वृद्धावस्था और विनाश को नहीं भूलते, हर्ष में वे दुःख और पीड़ाओं को नजरन्दाज नहीं कर जाते, निर्धनता के थपेड़े उन्हें याद रखने को बाध्य करते हैं कि ईश्वर की सृष्टि, प्रत्येक प्रत्यक्ष वस्तु अमीर-गरीब दोनों के लिए समान है। फूल खिलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, यहाँ तक कि प्रकृति की हर हरकत, हर क्रिया किसी एक के लिए नहीं, बल्कि निर्धन-धनी, बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरुष और छोटे-बड़े में बिना भेदभाव किये सबके लिये समान है। चुगतई के चित्रों में कलात्मक संस्पर्श, निश्छल तन्मयता और बड़ी ही अनूठी व्यंजकता है। उनकी दृष्टि कहीं से भी विषयों को बटोर कर उनका कलागत, भावगत चित्रण करने में सफल हुई है। राधा और कृष्ण के पारस्परिक आमोद-प्रमोद का अल्हड़ उन्होंने काँगड़ा चित्र-पद्धति में आँका है। सौंदर्य का आत्मविभोर मादक चित्रण करने में वे इटालियन कलाकार बोत्ती चेल्ली के निकट हैं, यद्यपि फारसी प्रभाव ने उसे और भी सम्मोहक बना दिया है। आकृति-चित्रों के निर्माण में कहीं-कहीं बिहजद का प्रभाव भी दृष्टिगत होता है।
चुगतई के जीवन की महत्त्वाकांक्षा रही कि वे अपने दो प्रिय प्रशंसित कवियों-गालिब और उमर खय्याम--के कृतित्व को अपनी रंग एवं रेखाओं में बाँधकर अभिनव आकर्षक रूप प्रदान कर सके। उन्होंने गालिब की पुस्तक को स्वनिर्मित चित्रों से सुसज्जित कर "मुरक्का-ए-चगतई" के नाम से प्रकाशित किया। चित्रों के रंग इतने सुकोमल ओर नफीस थे कि उनको सुन्दर ढंग से छपाई के लिए पेरिस भेजना पड़ा। रोजर फ्राई और ई० वी० हेवेल ने इसकी प्रशंसा करते हए इसे एक सर्वथा निर्दोष असाधारण कृति घोषित किया । "नकीश-ए-चगतई" नाम की इनकी एक अन्य छोटी चित्र-पुस्तक निकली. जिसमें काले और सफेद--केवल दो रंगों को उपयोग में लाया गया था। तत्पश्चात इनकी लगभग चालीस ड्राइंग और पेंटिग का एक संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमें भारत और फारसी कला का सम्मिलित प्रभाव अनेक स्थलों पर अपने चरम रूप मे व्यक्त हुआ है।
चुगतई जीवन में गहरे पैठे हैं। उन्होंने कला को प्राणों से अनुभव किया है। एक स्थल पर वे लिखते है--ष्कला का रसास्वाद प्रत्येक के लिए नहीं है...कला और धर्म के द्वारा मनुष्य उस चरमता को हासिल कर सकता है, जो जीवन की अंतर्भूत सत्यता की चिरद्योतक है। किन्तु वे व्यक्ति, जो बिना समझे-बूझे कला के पीछे दौड़ पड़ते हैं, उन्हें लाभ से अधिक हानि ही उठानी पड़ती है। चुगतई के दृश्यमान हरे, पीले, नीले, भूरे, नारंगी रंगों के साथ विराट का संगम है, जो उनके दृश्य की करुणाई तरलता के साथ एकाकार हो उठा है । उनका उन्मुक्त भाव रंग एवं रेखाओं का वन्धन स्वीकार नहीं करता, वे उनकी कला के लिए अनिवार्य भी नहीं हैं।
अब्दुर्रहमान चुगतई की मृत्यु सन 1975 ई० मे हुई थी।