प्रागैतिहासिक कला (Prehistoric art)

  

प्रागैतिहासिक कला मनष्ुय के आरम्भिक अवस्था की कला है। इतिहास से पूर्व के काल को प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है अथार्त् भाषा के विकास से पूर्व अवस्था मंे मनुष्य (आदिमानव) जंगलांे मंे रहता था और संघर्षपूर्ण जीवन जीता था। उस आदि मानव को अपनी भूख को शान्त करने के लिये, शरीर को शीत, ताप एवं वर्षा से सुरक्षित रखने के लिये और भयंकंर पशुआंे से स्वयं को बचाने के लिये अनेक प्रयत्न करने पड़े।

उसने अपनी भूख को शातं करने के लिये जंगली जानवरों का शिकार (आखेट) किया और स्वयं को सुरक्षित रखने हेतु पाषाण (पत्थर) के औजार तथा हथियार बनाये। उसने सुरक्षा के लिये गुफाओं की शरण ली। ऐसेे वातावरण में उसने अपने जीवन के हर पहलू को अपनी भावनाआंे और भाषा के रूप मंे पत्थरांे के औजारों से रेखाओं द्वारा अपने अनुभवों को व्यक्त किया। ये रेखाऐं ही आदिम मानव की कला के रूप में संसार के समक्ष आई।
प्रागैतिहासिक कालीन मानव ने शिकार के क्षणांे को, पशुआंे की छवियांे को पत्थर के औजारों से गुफाओं की दीवारों, चटट् ानों की कठोर और समतल शिलाओं पर उकेरा। ऐसा कर आदिमानव ने अपने जीवन के क्षणों और अनुभवों को यादगार बना दिया। आदिमानव के चित्रांे के समस्त उदहारण- लाल, काले, पीले और सफेद रंगो से बने है। यह चित्र चट्टानों की दीवारांे, गुफाओं की छतांे, फर्श आरै दीवारांे पर बनाये गये है। अनेक चित्र खुली अवस्था में पड़ी पत्थर की शिलाओं पर भी बनाये गये है।

ये चित्र चट्टानों, गुफाओं की खुरदरी दीवारों पर लाल (गेरू या हिरांैजी), काले (काजल या कालिख) या सफेद (ख़ड़िया) रंगो से बनाये गये है। इन रंगों को पशु की चर्बी में मिलाकर उकेरे गयें चित्रों की रेखाओं में भरते थे। इन चित्रांे में बाहरी सीमा रेखा की प्रधानता है। इस सीमा रेखा को वो नुकीले पत्थर के औजारों से खोद कर बनाया करते थे, जिससे वह मौसमी प्रभावों से बचे रहे और स्थाई बने रहें।

मानव सभ्यता के प्रारम्भिक काल में आदिम जातियांँ संसार के विभिन्न क्षेत्रों में अपना विकास कर रही थी। उस काल में मनुष्य के पैर जहां भी पड़े वही उसने कला-रूपांे का निर्माण कर दिया। भारत ही नहीं वरन् अन्य देशों मंे इस आदिमानव की कला के अवशेष आज भी उपलब्ध है। इनमें गुफा चित्रों की प्रधानता है। इन चित्रों मंे उसने अपने जीवन की घटनाओं, आमादे -प्रमोद, शिकार (आखेट), उत्सव एवं प्रकृति शक्तियों आदि विषयों का अंकन किया। अतः स्पष्ट है कि जिस वातावरण मंे आदिमानव रहा वहीं उसकी कला का भी विषय रहा। जानवरों का शिकार, परस्पर युद्ध, शिकार योजना, युद्ध व शिकार से लौटने के बाद का उल्लास, धार्मिक कृत्य उस समय की कला के प्रमुख विषय रहे। उसने अपने पालतु पशुआंे हाथी, घोड़ा, बारहसिंगा, भंैसा आदि का सहज एवं सुन्दर ढ़ंग से अंकन किया है।

प्रागैतिहासिक कालीन मानव इन सब के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं का भी सामना करता था। अतः उससे बचने के लिये वो इन्हंे शक्तियांे के रूप में पूजता था। उसकी इस साचे ने ही प्रकृति की विभिन्न शक्तियांे को देवता के रूप में पूजा एवं टोना-टोटका आदि द्वारा इन शक्तियों को प्रसन्न करना चाहा होगा। अपनी सफलता व शुभŸव के लिये और अपनी उपासना को प्रभावपूर्ण बनाने के लिये उसने इन शक्तियों को प्रतीक रूप मंे अपनी कला के रूप मंे शामिल किया। आदिम कला में प्रतीकात्मकता बहुत व्यापक है। प्रतीकांे के माध्यम से आदि मानव ने भौतिक, अलौकिक एवं अदृश्य वस्तुओं एवं भावांे को व्यक्त किया है। भारत मंे ज्यामितीय व प्राकृतिक अलंकरणों मंे आज भी प्राचीन समय के अनेक प्रतीक प्रचलित हैं, जैसे त्रिभुज, वृत, सर्प, सिंह, हस्ती (हाथी), मत्स्य (मछली), स्वास्तिक, चक्र अण्ड आदि। इस समय आदिमानव ने विशष्ेा रूप से पाषण का ही प्रय ोग किया। इस कारण इस काल को विद्धानांे ने ’’पाषाण युग’’ माना है। अध्ययन की दृष्टि से आदिमानव के विकास क्रम को विद्धानांे ने हिमयुग, प्रस्तर यगु , धातु एवं सभ्यता काल के नाम से 50,000 वर्ष से 5000 वर्ष ईसा पूर्व तक के काल में विभाजित किया है।

इस प्रकार मानव प्रगति के आधार पर पाषण युग को भी तीन भागों मंे विभाजित किया जा सकता है -
1. पूर्व पाषाण युग - 30,00र्0 इ.पू. से 25,000 ई.पू.
2. मध्य पाषाण युग - 25,00र्0 इ.पू. से 10,000 ई.पू.
3. उत्तर पाषाण युग - 10,00र्0 इ.पू. से 5,000 ई.पू.

1. पूर्व पाषाण युग 

इस युग के अवशेष विशेष रूप से औजार तथा हथियारों के रूप में मिलते हैं। जिनकी गढ़ाई और आकर भद्दे हैं और जो भी उदहारण प्राप्त हुये हैं वह दक्षिण-भारत (मद्रास शहर के पास, अंगोला तथा कुडापा) के क्षेत्रों से प्राप्त हुये हैं।

2.      मध्य पाषाण युग 

इस समय की बहुत कम सामग्री प्राप्त हो सकी है। इस समय के आदिमानव ने पूर्व पाषाण युग के मानव ने पाषाण (पत्थर) का ही प्रयोग किया।

3. उत्तर पाषाण युग

  इस युग के अवशेष भी बहुत कम प्राप्त हुये हैं और जो उदाहरण प्राप्त हुये हैं उनमंे से अधिकांश बेलारी के पास प्राप्त हुये हैं। इस समय के कुछ उदाहरण बुंदेलखण्ड, आसाम तथा नागपुर की पहाड़ियांे, मिर्जापुर, गाजीपरु तथा विन्ध्याचल की कैमूर पर्वत श्रेणियों से प्राप्त हुये हैं।
पूर्व पाषाण युग का मानव दक्षिण भारत (कुडापा, मद्रास) के क्षेत्रों तक सीमित रहा। उत्तर पाषाण यगु का आदि मानव सारे भारत वर्ष मंे फैल गया और बेलारी उसका मुख्य केन्द्र बना रहा। इस काल में मानव पत्थर के यंत्रों पर पालिश करता था और चाक पर बने मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करता था। उत्तर पाषाण युग के मानव ने सर्वप्रथम चित्रकला का प्रयोग किया और आज भी उनकी चित्रकला के उदाहरण विभिन्न स्थानों पर सुरक्षित हैं। इस समय के प्रमुख उदाहरण बेलारी, वाइनाड-एडकल होशंगाबाद, सिंघनपुर, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड (विन्ध्याचल), मिर्जापुर, रायगढ़, हरनी-हरन, विल्लासरंगम, बुढ़ार, परगना आदि स्थानांे पर प्राप्त होते हैं। 

प्रमुख शैलचित्र एवं विशेषतायें :

प्रमुख शैलचित्र

शैल चित्र से तात्पर्य पर्वतीय क्षेत्रों मंे नैसगिर्क रूप से निर्मित शिलाश्रयांे छतों तथा दीवारांे पर किये गये चित्रांकन से है। विश्व स्तर पर शैल चित्रों का सर्वप्रथम ज्ञान 1879 ई. मंे दक्षिण-पश्चिम यूरोप में स्पेन की अल्तामीरा गुफा के शैल चित्रों की खोज से प्रारम्भ हुआ माना जाता है, लेकिन भारतीय क्षेत्र मंे इन से सम्बन्धित खोज 1867-68 ई. मंे आर्चीबाल्ड कार्लाइल द्वारा की गई। इसकी शुरूआत आर्चीबाल्ड ने मध्यप्रदेश के रीवा जिले में सोहरोघाट के शैलचित्रों से की थी। इसके पश्चात् 1880 ई. मंे कार्लाइल एवं काॅकबर्न ने मिर्जापुर शैल चित्रों पर, 1910 ई. मंे एण्डरसन ने सिंघनपुर, 1932 ई. मंे हण्टर ने पंचमढी के शैल चित्रों का अध्ययन प्रस्तुत किया। इसके बाद डी. एच. गाडर्न, आर.के. वर्मा, एस.के. पाण्डे, वी. एस. वाकणकर, वी. एन. मिश्रा, यशाध्ेार मठपाल एवं इरविन न्यूमेयर आदि विद्धानों ने भारतीय शैलचित्र कला का व्यवस्थित अध्ययन किया। इसमंे भीमबैटका के शैलचित्रों की खोज डाॅ. वी.एस. वाकणकर की विशष्ेा उपलब्धि है।

चित्रांकित शिलाश्रय पश्चिमोत्तर स्थित चारगुल से लेकर पूर्व मंे उडी़सा तक तथा उत्तर में कुमाऊँ की पहाड़ियों से लेकर केरल तक के क्षेत्रों में पाए गये है, लेकिन सबसे अधिक ये मध्यप्रदेश तथा दक्षिणी उत्तर प्रदेश की पठारी भाग मंे प्राप्त हुये हैं। मध्यप्रदेश में सतना, रीवा, सीधी, सागर, शहडोल, दमोह सिहोर, होशंगाबाद, जबलपुर, भोपाल, रायसेन, मंदसौर आदि जिलों में सबसे अधिक चित्रित शिलाश्रय प्राप्त हुए हैं। रायसेन जिले मंे भीमबैठका के चित्रित शिलाश्रयों को यूनेस्को द्वारा विश्व सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्रदान की गई है, जो इसके चित्रांे के महत्व को अभिव्यक्त करता है।

उत्तर प्रदेश में बघईखोर, कण्डाकोट, लखनिया, कोहबर, घोड़मंगर, मलरूरिया, महदरिया आदि शैलचित्रों के मुख्य केन्द्र है।ं राजस्थान में चम्बल नदी घाटी क्षेत्र में इस दृष्टि से शताधिक ऐसे पुरास्थल प्रकाश में आए है।ं राजस्थान में मुख्यतः ये शिलाचित्र कोटा, झालावाड दर्रा़, छोटी सादड़ी, चित्तौड़, अजमेर, आबू क्षेत्र एवं बून्दी क्षेत्रों में प्राप्त हुये है।ं बून्दी क्षेत्र में शताधिक शिलाश्रयों की खोज की जा चुकी है। इनमें गरड़दा, रामेश्वर महादेव एवं भीमलत मुख्य है। भारत वर्ष में उत्तर-पाषाण युग की चित्रकला के अनेक स्थानों पर रोचक उदहारण प्राप्त हुये है। इन उदहारणों से आदिकाल के मानव की चित्रकला का ही विकास क्रम का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता बल्कि आदिमानव के जीवन शैली को भी जानने समझने का अवसर मिलता है।

चित्र 1

आदि मानव ने ये चित्र गुफाआंे की दीवारों पर ही नहीं वरन् खुले वातावरण मंे पड़ी शिलाखण्डांे पर भी बनाये हैं। चित्रित शिलाश्रय अधिकाशंतः पहाड़ियों के किनारे जलस्त्रोतों के निकट होते थे। ये आदिमानव शिलाश्रयों का चुनाव करता था क्योंकि जल स्त्रोतों के पास के शिलाश्रयों में आदिमानव जल तथा वन्यजीव आसानी से सुलभ हो जाते थे। प्रायः एक स्थान पर अनेक छोटे-बड़े अनेक प्रकार के शिलाश्रय पाये जाते हैं। इन सभी पर चित्रांकन नहीं मिलते। सम्भवतः आदिमानव चित्रांकन हेतु शिलाश्रयों का चुनाव करते थे। कहीं-कहीं एक शिलाश्रय पर एक के ऊपर अनेक चित्र मिलते हैं। मध्यप्रदेश की रायगढ़ रियासत मंे मांढ़ नदी के किनारे पूर्व की ओर स्थित सिंघनपुर नामक ग्राम मंे 50 चित्रित शिलाखण्ड तथा गुफायें मिली हैं। इसी क्षेत्र मंे कवरा पर्वत, करमागढ़, नवागढ़, तथा खैरपुर मंे अनके शैल चित्र प्राप्त हुये है। यहाँ क्षेपांकन पद्धति मंे चित्र बनाये गये हैं।
मिर्जापुर, भल्ड़रिया में भी अनेकानेक पशु-आखेट (शिकार) चित्र अंकित पाये गये है।ं मिर्जापुर में एक प्रसिद्ध प्राकृतिक-भ्रमण स्थल विढ़म में भी प्रागैतिहासिक चित्रकारी से युक्त शिलाश्रय प्राप्त हुये हैं। बुदनी तथा रहेली (होशंगाबाद) का नाम भी प्रागैतिहासिक चित्रकला के लिये प्रषिद्ध है। यहाँ एक शिलाश्रय पर एक ’’मोर’’ का विशाल चित्र अंकित है और एक स्थान पर ’’वनदेवी’’ का चित्र अंकित है। होशंगाबाद में नर्मदा नदी के किनारे आदमगढ़ पहाड़ी पर एक दजर्न से अधिक शिलाश्रय हैं। जिनमें हाथी, महिष, घोड़े, सांभर, जिराफ-समूह, अस्त्रधारी अश्वारोही (घोड़े पर सवार) चार धनुरधारी आदि क्षेपांकन पद्धति से चित्र चित्रित किये गये हैं।
भोपाल क्षेत्र के धर्मपुरी नामक स्थान पर एक शिलाश्रय में गेरूए रंग से अंिकत हिरन के आखेट (शिकार) का रहस्यमय चित्रण है। इस चित्र में शिकारी के पैर पूरे पत्तियों से ढ़के हुये बनाये गये हैं, जिससे भ्रमवश हिरन उसके समीप आ गया है।

ऐसा इस दृश्य को चित्रित किया गया है। होशंगाबाद मंे आदमगढ़ की पहाड़ी के शैलचित्र में हल्के पीले रंग से एक विशालकाय हाथी का चित्र सबसे महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त महामहिष का एक चित्र जो दोहरी रेखाओं मंे शिलाश्रय के ऊपरी भाग पर पूरे विस्तार से बनाया गया है। इस विशाल महिष चित्र का आकार 10 फीट लम्बा और 6 फीट चैड़ा है, यही एक शिलाश्रय पर मयूर का विशाल चित्र दो सीधी रेखाओं द्वारा अंकित है। एक अन्य शिलाश्रय पर आदिम वनदेवी का सा अलकंृत आकार बना है।
 
विशेषताऐं : चित्रों के विषय :-

प्रागैतिहासिक कालीन मानव के जीवन का मुख्य उद्देश्य भयानक पशुओं का शिकार तथा दैनिक जीवन के कार्य- कलाप तक ही सीमित रहा। अतः उसके चित्रों के विषय भी इसी से सम्बन्धित रहें। उसने सांभर (हिरन), बारहसिंगा, गैंडा़, जंगली वृषभ, हाथी, घोड़ा, अरना भैसा, सुअर जैसे जानवरों का स्वाभाविकता से चित्रण किया। ये पशु उसने शिकार करते समय देखे थे और उनका पीछा करते हुये दैत्य जैसी शक्ति का अनुभव किया था। इन पशुआंे की गति और शक्ति पर उसने विजय प्राप्त की थी। यही कारण था कि उसके चित्रों मंे मुख्य विषय के रूप में पशु जीवन का होना स्वाभाविक था। अतः पशु और पशुआंे के शिकार (आखेट) दृश्य तथा जादू के विश्वास के प्रतीक चिन्हों का चित्रण इस समय की कला का प्रधान विषय हंै जैसे बिन्दु, त्रिकोण या स्वस्तिक आदि। इसके अतिरिक्त दैनिक जीवन का चित्रण इसके मुख्य विषय रहे हैं। आदिम कला में प्रतीकात्मकता बहुत व्यापक है। इस आदि मानव ने प्रतीक के माध्यम से स्थूल, भौतिक, ऐन्द्रिक और साथ-साथ सूक्ष्म अलौकिक एवं अदृश्य शक्तियांे एवं भावांे को व्यक्त किया है। आदिम कला में प्रयुक्त ये ज्यामितीय रूप अलंकरणों के रूप में आज भी प्रचलित हैं जैसे त्रिभजु, वृत, सर्प, सूर्य, सिंह, योनि, लिंगम्, स्वस्तिक, चक्र, अण्ड आदि। इसके अतिरिक्त आदिमानव ने शिकार में विजय के पश्चात् उल्लास, नाच गाकर झूमते, भरपेट भोजन प्राप्ति का आनन्द आदि विषयों के चित्रण द्वारा भी अपने दैनिक जीवन के क्षणांे को सदैव के लिये अविस्मरणीय बना दिया है। आदिमानव द्वारा चित्रित चित्रों में दौडते, उछलते, गिरते, प्रहार करते आखेटक (शिकारी) गुस्से में आक्रमण करते हुये हिसंक-पशु या आक्रमण करते हुये पशुआंे के चित्रण अत्यधिक रोचक है। कहा जा सकता है कि इन चित्रों मंे आदि मानव ने अपने भावों को सरलतम रूपों तथा ज्यामितीय आकारों में संजोया है। इन चित्रों की सीमा रेखा गतिशील है। 

चित्रों का विधान

प्रागैतिहासिक काल के चित्र चट्टानों की दीवारों गुफाओं की छतों, फर्शो और भित्तियों (दीवारों) पर बनाये गये हैं। अनेक चित्र खुले में रखी हुई पत्थर की शिलाओं पर भी प्राप्त हुये हैं। इन चित्रों में सीमा रेखा की प्रधानता है। अतः इन्हें रेखा-चित्र मानना अधिक उचित है। आकृति की सीमा रेखा को अधिकतर किसी नुकीले पत्थर के औजार से खोद कर बनाया गया है, जिससे वह वर्षा के जल से धुल न जाये और स्थायी बने रहे। सामान्यतःं दो-तीन रेखाओं से मानव आकृतियों का निर्माण किया गया है और कभी-कभी चैखूटे धड़ से मनुष्य आकृति बनाई गई है, जिसमें तिरछी और पड़ी रेखाये भर दी गई है।

रगं तथा आकार

इन चित्रों में रंगों का प्रयोग बाल सुलभ प्रकृति के आधार पर किया गया है। आकृति को भरने के लिए धरातल पर रंगो को सपाट लगाया गया है। इन चित्रांे मंे उसने खनिज रंगो का प्रयोग किया है। इन रंगो में प्रधानता गेरू, हिरौंजी, रामरज तथा खड़िया का प्रयोग है। इन रंगो की अतिरिक्त रासायनिक रंगो मंे कोयला या काजल का प्रयोग किया गया है। सामान्य रूप से लाल गेरू का सबसे अधिक प्रयोग मिलता है। इससे मिलते जुलते नारंगी, भूरा (चोकलेटी) एवं बैंगनी रंगो का प्रयोग भी इन चित्रांे मंे मिलता है। सफदे (खडिया) का प्रयोग बहुतायत से किया गया है। कहीं-कहीं पीले, हरे एवं काले रंग का भी प्रयागे दिखाई देता है। भीमबैटका के शिलाश्रयों मंे हरे रंग का चित्रांकन पाया गया है। जिसे डाॅ. वी.एस. वाकणकर ने उत्तर पाषाण कालीन माना है। ये सभी रंग निकटवर्ती क्षेत्रों मंे खनिज रूप मंे सुलभ थे। जिन्हें घिस कर रंग तैयार किया जाता था।
इन चित्रांे के निर्माण में सीधी रेखा, वक्र और आयत आदि ज्यामितीय आकारांे का प्रयोग है। अधिकांश रूप से चित्रों को रेखाओं के द्वारा बनाया गया है या फिर पूर्ण रूप से क्षेपांकन पद्धति का प्रयोग है।
ये चित्र भद्दे, असंयत और कठोर है परन्तु इनमें गति व सजीवता है और तूलिका की शक्ति इनकी प्रमुख विशेषता है। तूलिका किसी रेशेदार लकड़ी या बासं या नरकुल आदि के एक सिरे को कूट कर बनाई जाती थीं। ये रंगो में पशुओं की चर्बी मंे मिलाने के लिये पशुआंे के पुट्ठे की हडड्ी को प्याली के रूप मंे काम में लेते थे। ये अपने चित्रांे को रेखा और सपाट रंगो की प्रयोग से बनाते थे। कहीं-कहीं फिर भी गालेाई का आभास होता है। इस आदिमानव के चित्रांे की सरलता, सुगमता तथा रेखांकन पद्धति आज के कलाकारांे के लिये पे्ररणा है।

प्रमुख चित्र :

होशंगाबाद

होशंगाबाद पंचमढ़ी से लगभग 45 मील दूर नर्मदा के किनारे स्थित है। इस नगर के पास एक छोटी सी पहाड़ी है, जिसे आदमगढ़ कहा जाता है। इसी पहाड़ी पर करीब एक दर्जन से अधिक शिलाश्रय है। जिनमें हाथी, घोड़ा, महिष, जिराफ-समूह शस्त्रधारी-अश्वारोही (घोड़े पर सवार) चार धर्नुधारी क्षेपांकन पद्धति से बनाये गये हैं। यहां पर विभिन्न शैलियों मंे किये गये चित्रण-प्रयोगों के पांच या छः स्तर हैं, जो अनेक कालों के घोतक हैं।
घोडे़ का आखेट (शिकार) चित्र होशंगाबाद क्षत्रे मंे शिलाश्रय पर गेरूए लाल रंग से अंकित घोडेे़ के आखेट का दृश्य जिसमें एक धर्नुधारी बाण छोड़ कर घोड़े को घायल कर रहा है। बाण घोडे़े के पिछले पैर में लगा है। आखेट (शिकार) और आखेट क (शिकारी) दोनों के पैरों से गति का आभास होता है, पर घोड़े के अगले पैरों की स्थिति अस्वाभाविक लगती है। उसके पेट पर धारियां चित्रित हैं। कुछ बाण धर्नुधारी की ओर सामने से आते हुये बनाये गये है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि घोड़े के लिये कदाचित् युद्ध भी हो रहा है।

सिंघनपुर

यह छत्तीसगढ़ की रायगढ़ रियासत में माढ़ नदी के किनारे पूर्व की और स्थित है। पूर्व मंे यह मध्यप्रदेश राज्य के अन्र्तगत स्थित था। सिंघनपुर चँवरढल पर्वत श्रंृखला के तल मंे बसा हुआ एक छोटा सा गांव है जो नहर पाली नाम से लगभग तीन मील दूर है। यहां 50 चित्रित शिलाश्रय एवं गुफायें मिली हैं। यहां घोडा़, बारहसिंगा, हिरन, साही, भैसा, सांड सडूं उठाए हाथी आदि जानवरांे का सजीव अंकन है। 

विशालकाय महिष आखेट

यह एक विशालकाय महिष आखेट (शिकार) का समहू चित्रण भारतीय शिलाश्रयों पर चित्रित सभी आखेट-दृश्यों (शिकारी चित्रा)े में प्राचीनतम एवं महत्वपूर्णं है। इसमें शिकारी सिर्फ भालों का प्रयोग करते हुये दिखाये गये हैं, जो धनुज्र्ञान से पहले की नितान्त आदिम अवस्था का घोतक है। उसकी गतिमय मुद्रायें अत्यन्त स्वाभाविक प्रतीत होती हैं। महिष चित्रित है। इसी के पैरांे के पास लघु आखेट दृश्य जिसमंे जंगली शूकर (जंगली सुअर) का सजीव चित्रण किया गया है। उसके सामने मानवाकृितयां भी उतनी ही सजीव हैं। ये सभी शिकारी भालांे से शूकर पर वार कर रहे हैं। शूकर की अवस्था एवं आखेटकों की मुद्राओं से आखेट-दृश्य (शिकार-चित्र) स्पष्ट रूप से लक्षित हो रहा है।

मिर्जापुर

मिर्जापुर क्षेत्र में स्थित गुफाआंे के चित्रों मंे अधिक स्वाभाविक एवं यथार्थता से चित्रित किये गये हैं। इनमें गैंडा, सांभर, हिरन, सुअर तथा बारहसिंगा है। मिर्जापरु क्षत्रे में विजयगढ़ दुर्ग के समीप ही घोड़मगंर में चित्र गेंडे का शिकार दृश्य चित्रित है।

पचमंढी वृषभ आखटे दृश्य

पचमंढी क्षेत्र के ’’इमली खोह’’ मंे सौ से भी अधिक चित्रांे के बीच सफेदी लिये हुये हल्के जामुनी रंग में अंकित वृषभ के आखटे (शिकार) का एक महत्वपूर्ण चित्र है। इस दृश्य में पांच धनुर्धर मिलकर वृषभ का शिकार कर रहे हैं। सभी आखटे कों (शिकारियों) की मुद्रायें सजीव एवं आकृतियां गतिमय है। इनकी बाण छाडे़ने की मुद्रायें स्वाभाविक हंै। इस दृश्य में एक धनुर्धर को वृषभ ने सींगों से ऊपर उछाल दिया है। जिससे उसका धनुष बाण हाथ से छूट गया है। चार बाण (तीर) बैल के शरीर मंे छिदे हुये दो पीछे, एक पीठ में और एक नीचे गर्दन मंे लगा चित्रित किया गया है। वृषभ क्रोधित और आघात मदु्रा में चित्रित किया गया है। जो उसकी झुकी गर्दन और उठी पूंछ से अनुमान लगाया जा सकता है। वष्ृाभ का आखेट दृश्य सम्भवतः प्रस्तर युगीन आदिम अवस्था का परिचायक है।

चित्र 6 - वृषभ के आखेट का दृश्य

भीमबैठका

भीमबैठका मध्यप्रदेश के विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी में स्थित है। यह मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 40 किलोमीटर दक्षिण में एक पहाड़ी है। जो गोहरगंज तहसील और रायसेन जिले में स्थित है। उसका नाम भीमबैठका है। बरखेड़ा नामक रेल्वे स्टेशन से कुछ दूरी पर भीमपुरा नामक आदिवासी गांव के पास ही भीमबैठका की पहाड़ी है। चट्टानांे की ऊँचाई अधिक होने से काफी दूरी से ही चट्टानें दिखाई देने लगती है, यह स्थान आदिमानव का मुख्य केन्द्र रहा होगा। यहां दो प्रकार के चित्र प्राप्त हुये है। जंगली जानवर एवं अविकसित मानवीय रूप है। भीमबैठका के दोनों ओर 600 से भी अधिक शिलाश्रय हंै, जोकि 10 किलोमीटर में फैले हुए हैं। इन चित्रों के खोज का श्रेय श्री विष्णु श्रीधर वाकणकर को है। इन्होंने 1958 ई. मंे इस क्षेत्र को खोज निकाला। यहां के शैलचित्र सबसे पुराने और अधिक संख्या में प्राप्त हुये है। यहां प्राप्त होने वाले चित्रों में अधिकतर चित्र लाल अथवा सफेद रंगों मंे बने हंै। कहीं-कहीं हरे व पीले रंग का प्रयोग भी दिखाई पड़ता है।

यहां पर मुख्य रूप से हाथी, गैंडा, भालू, जंगली सुअर, चीता, जंगली गाय, नीलगाय, सांभर, बैल, भंैस, बंदर एवं हिरन आदि पशुआंे का चित्रण मिलता है। ये पशु ज्यादातर झंुड़ मंे ही चित्रित किये गये हैं।
विद्धानांे का मत है कि प्रागैतिहासिक काल में मानव एक हजार वर्ष तक निवास करता रहा होगा। भीमबैठका की सबसे बाद की संस्कृित को मध्य पाषण काल कहा जा सकता है, जिनके बहुत सारे उपकरण प्राप्त हुये हैं। जहां उनके द्वारा प्रयुक्त औजार एवं हथियार अपने मूल स्थान पर ही दबे रह गये। प्रागैतिहासिक संस्कृित का इतना लम्बा एवं अविच्छिन्न इतिहास अन्य स्थानों पर दुर्लभ है। भीमबैठका की गुफाआंे एवं शिलाश्रयांे पर पाई जाने वाली चित्रकला से इस स्थान का महत्व बहुत अधिक है।
 
शिकार नृत्य दृश्य

यह चित्र शिकार नृत्य का दुश्य है। यह चित्र भीमबैठका की गुफा के आवक्ष पट पर बना है। यह दृश्य 3 से 4 फीट के आकार में बना हुआ ंहै। यह भीमबैठका के दो प्रकार के चित्रांे मंे से दूसरे प्रकार का चित्र है। पहले प्रकार के चित्रों मंे जगं ली जानवरों के के चित्र है और दूसरे प्रकार के चित्रों मंे यह चित्र आता है। ये वे चित्र है जिनमंे मानव का कुछ विकसित रूप दर्शाया गया है। अतः यह चित्र विकसित श्रृंखला का अंग माना गया है।

 
                                                                             चित्र 
इस चित्र में एक वृषभ स्वभाविक मुद्रा में गर्दन सीधी कर खड़ा हुआ दिखाया गया है। जिसके दोनों सींग आगे की ओर मुडें हुये हैं। चहेरे में गहरा गेरूआ (लाल) रंग सपाट भरा हुआ है। इसके बाद गर्दन से पेट के कुछ हिस्से में खड़ी रेखाऐं अंकित हैं। गर्दन का कुछ भाग खाली है। शरीर के पिछले हिस्से में तिरछी व षटक्ोणीय रेखाएंे दर्शायी गई हैं। तथा पीछे पुट ्ठे पर चैकड़ी बनी हुई प्रतीत होती है। चित्र में वृषभ की बिना बालों वाली पूंछ सीधी लटकी हुई है और उसके चारों पैर खुर अदृश्य (कटे हयुे) हैं। वृषभ आकृित के पृष्ठ भाग मंे लगभग आठ मानवाकृितयां बनी र्हइु हैं। ये मानवकृतियां नृत्य मुद्रा को दर्शाती है। वृषभ के पीछे बनी मानवाकृति अपने बांये हाथ में धनुष व दांय हाथ में पांच तीर लिये हयुे और उन्हे हाथ से ऊपर की ओर उठाये दिखाया गया है। यह चित्र प्रकृति पर मानव विजय का चित्र है और व्यक्तित्व के आन्तरिक उल्लास का घोतक है। इस चित्र मंे ज्यामितीय रेखायें विभिन्न शक्तियों को व्यक्त करती हैं। 

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