शारदाचरण उकील {Sarada Charan Ukil}

शारदाचरण उकीन उन अग्रणी प्राचार्य कलाकारों में से हैं जिन्होंने समय के प्रवाह को पहचान कर अपनी रंग एवं तूली द्वारा तात्कालिक कला में विविधता का समावेश किया। प्राचीन कला-परम्परा की पृष्ठभूमि में आधुनिक कला-प्रणालियों को विकसित कर और निजी अनुभूतियों के सम्बल पर नित्य-नवीन मौलिक उदभावनाओं का प्रश्रय लेकर वे आगे बढे. चित्रकला में नये आविष्कार एवं प्रयोगों में सफल हुए और बाद मे तथाकथिक प्रयोग ही उपयोगिता के अनुपात में नव्य कला की चेतना के अंग बनते गए। उस समय निश्चय ही इन्हें भिन्न क्रिया-प्रक्रियाओं की लघु-विस्तृत पगडंडियों पर स्वयं रास्ता बनाना पड़ा था, किन्तु इस शंकाकुल स्थिति में भी कोई ऐसे विघटनकारी तत्त्व न थे जो इनकी सहज प्रमरणशील महती चेतना का मार्गावरोध करते ।

शारदाचरण उकील का जन्म 14 नबम्बर सन 1888 ई० मे पश्चिमी बंगाल में पद्मा नदी के समीप विक्रमपुर (जिला ढाका) में एक सुप्रसिद्ध बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था, पर इनकी ख्याति बंगाल प्रान्त तक ही सीमित न रहकर भारत और सदर देशविदेशों तक फैल गई थी। जेनेवा, हेग, लंदन, डबलिन, अमरीका आदि देशों में इनकी कलाकृतियाँ भारतीय आध्यात्मिक साधना व दार्शनिक चिन्ताधारा की प्रतिनिधि मानी गई और उन्हें पुरस्कृत भी किया गया ।

भाव-व्यंजना की दृष्टि से इनकी कला अन्तरंग गहराई और मार्मिक गढता लिये है, वरन् कहें कि लौकिक अभिव्यक्ति की लघुता के परे वह असीम की उपलब्धि अर्थात् संसृति के सनातन सौंदर्य की दिग्दर्शक है जिसमें कलाकार की तटस्थ एवं निस्संग साधना के उपकरण द्रष्टव्य हैं। चित्रों में दो या तीन हल्के रंग जो अत्यन्त कोमलता से फैलाये गए हैं और पृष्ठभूमि में भीनी छाया जो कलाकार के निर्लिप्त भाव और अन्तरंग चिन्तन की द्योतक है, साथ ही उनको अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का, कमनीय कल्पना, निगूढ़ दार्शनिकता और प्रात्मोपलब्धि की सिद्धि का तथा स्थूल से सूक्ष्म सौंन्दर्य के प्रति मानसिक आकर्षण के उच्छ्वसित अन्तर्भावों का दर्शन हम उनके चित्रों में करते हैं। उन्होंने ऐतिहासिक एवं पौराणिक विषयों को अधिक पसन्द किया। भगवान कृष्ण और गौतम बुद्ध के मार्मिक जीवन-प्रसंगों को लेकर अपनी करुणा और संवेदना उनमें ओतप्रोत की। सिल्क पर निर्मित चित्र जिसमें कृष्ण राधिका को वीणा बजाना सिखा रहे हैं, वसुदेव और कृष्ण जिसमें समयानुकूल वातावरण चित्रित हुआ है तथा इसी प्रकार के कितने ही राधा-कृष्ण के क्रीड़ा-कलाप एवं लीलाओं को लेकर आँके गए चित्र बड़ी ही परिष्कृत सृजन-रुचि को व्यंजित करते हैं। भगवान बुद्ध की जातक-कथाओं सम्बन्धी पैंतीस चित्रों का निर्माण इन्होंने किया है जो कि नवानगर के जाम साहब के महलों को सुशोभित कर रहा है।

शारदा उकील आध्यात्मिक चिन्तन और दर्शन के क्षेत्र से होकर कला के सृजन की ओर अग्रसर हुए थे, अतएव उन्होंने इस निर्दिष्ट पथ की खोज में अपनी मौलिक प्रेरणा और अन्तर्भूत जिज्ञासा के सम्बल पर कार्य किया। बचपन से ही भगवान बुद्ध के जीवन से वे अत्यधिक आकृष्ट हुए। बुद्ध की साधना और तपोमय जीवन में उनके प्राणों के लिए स्फूर्ति भी थी और शान्ति भी, फलतः उस विराट, सूक्ष्म रहस्यमय के वे वैविध्यपूर्ण चित्र आँक सके। भावात्मकता की मूच्र्छना भी उनके चित्रों में समाहित हो गई। उकील ने स्वयं लिखा है-ष्जब मैं बालक था बुद्ध से मेरा सहज लगाव हो गया, बड़ा होकर मैं अभी तक भी इस प्राथमिक आकर्षण का विश्लेषण नहीं कर सका हूँ।ष् बुद्ध के महान् पौरुष में विश्वास और श्रद्धा उकील के अन्तर की गहराइयों में उतरती गई । मन से तादात्म्य स्थापित कर वे अपने रंग व रूपाकारों में इस गहरी अनुभूति को दर्शा सके। उन्होंने उत्पीड़ित जीवन की व्यथा को मुखर किया और महान् विपन्न तक के आगे श्रद्धा से सिर झुका दिया। उन्होंने निराश, व्यथित और कष्ट से गंभीर हुई मनःस्थितीयो को दर्षाने मे विशेषता प्राप्त की है। प्रेम-पीड़ित और विरहिणी नारियों को धुंधले रंगों और अस्पष्ट रेखाओं में चित्रित कर इन्होंने उनकी चित्रांकित छवि में उच्छल करुणा और गहरी संवेदना भर दी है। "सन्देश"चित्र में एक गोपिका कृष्ण की बाँसुरी को उत्सुक नेत्रों से निहार रही है और कृष्ण ऊपर लटके हुए इन्द्र-धनुषी बादलों में छिपे बैठे हैं। एक दूसरे चित्र में विरहिणी सीता की दयनीय मुद्रा का बड़ा ही भव्य चित्रण हुआ है। कहीं-कहीं तो कथा का कुहासा इतना गहरा और घनीभूत हो गया है कि जीवन्त, उल्लसित भाव निश्चेष्ट होकर निस्सत्व वातावरण और पूर्णतया शून्य में परिणत हुआ-सा लगता है, मानों कलाकार ने सृजन की मादक थकान से घबरा कर सहसा आँखें मूंद ली हैं और वह भीतर ही भीतर आत्मविभोर हो निष्क्रिय रह गया है। ईद और दूज के चाँद में एक झुर्रावाला जर्जर भिखारी एक लड़की द्वारा दिखाए गये चाँद को निहार रहा है, इम में भी कलाकार की भावना विमूच्छित-सी प्रतीत होती है और सहज विश्वास में भी ऐसी ही गोप्य जड़ता आ गई है।


शारदा उकील की। कला का विस्तृत पट आध्यात्मिक है। सम्पूर्ण दृश्योपलब्धि की चिन्ता किये बगैर वे मन की सहजानुभूति को अदृश्य, अस्पश्य, भावोच्छ्वास भरे रंगों में उड़ेलते है । उनके मत से भारतीय कला का प्राण-रम ही सौंदर्य-चेतना के साथ भाव-सामंजस्य का पूर्ण विलय है जो मूल में आत्मनिष्टता के कारण विराट् बन जाता है। - उन्होंने एक अन्य स्थल पर अपना अभिमत व्यक्त करते हुए लिखा था-- "कला के प्राच्य और पाश्चात्य दृष्टिकोण में प्रमुख अन्तर यही है कि यदि कोई यूरोपियन किसी वृक्ष को चित्रित करता है तो वह उसकी यथार्थ रूपरेखा, वाह्य कलेवर, पत्ते, टहनी, शाखा, तना सभी हूबहू दर्शा देगा, किन्तु यदि कोई भारतीय कलाकार उसी वृक्ष को चित्रित करेगा तो वह वृक्ष की स्थूल रूपरेखा तक ही सीमित न रह कर मुड़ी-तुड़ी शाखाओं, पत्ते और जड़ के साथ उसकी आत्मा में भी प्रविष्ट हो जाएगा।ष् इनके विचार में-श्चित्र ऐसा होना चाहिए कि सारी मानवता को अभिभूत कर ले। किसी एक ही व्यक्ति के लिए अथवा एकांगी दृष्टिकोण को लेकर आंका गया चित्र सर्वग्राही नहीं हो सकता। चित्र आदर्श होना चाहिए।"


उकील अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रमुख शिष्यों में से थे, पर "बंगाल स्कूल" की अनेक विकसित परम्पराओं से पृथक उन्होंने वह पक्ष अपनाया जो कला के उदात्त सौष्ठव को उनके अपने ढंग से उभार सका। पाश्चात्य कला मर्मज्ञ रोथेन्सटाइन ने इनके सम्बन्ध में लिखा था रू “उकील की कृतियों की भावकता रवीन्द्रनाथ ठाकूर के गीतिकाव्य की सी है, उसका अभिजात्य और कलागत विचारमग्नता प्रेक्षक को भारतीय आत्मा में झाँकने का ऐसा ही सूअवसर देता है जैसे कि भारतीय संगीत ।ष् उकील ने दिल्ली में शारदा कला केन्द्रश् की स्थापना कर एक बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न किया। इस संस्था ने कितने ही सुप्रसिद्ध कलाकारों को जन्म दिया है। कला में रुचि रखने वाली कितनी ही छात्र-छात्राएं इसमें इच्छानुकूल कला की साधना में प्रवृत्त होती हैं और अच्छे शिक्षकों की देख-रेख में उनकी कलाभिरुचियों को पनपने का मौका दिया जाता है।

चरण उकीन का देहान्त 21 जुलाई सन 1940 ई० मे हो गया

चित्र:- जटायु की मृत्यु , राधा कृश्ण , वंषी वादक गोपाल , दुज का चाँद , ईद आदि ।

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