कला के प्राचीन ग्रन्थ

(स) कला के प्राचीन ग्रन्थ
(Ancient texts of art)

प्राचीन भारतीय साहित्य मंे शिल्प एवं चित्रकला का वणर्न प्रचुर मात्रा में मिलता है। ऋग्वदे में यज्ञषालाआंे की वेदियों पर अलंकृत स्त्री-पुरूषों की आकृतियांे का विवरण एवं धर्म पर अग्निदेव के चित्र का प्राचीनतम् चित्रण सम्बन्धी विवरण हमें ऐतरेय उपनिषद, वृहदारण्यक, ब्रहमसूत्र, छान्दोग्य, कठोपनिषद आदि मंे मिलता है।
भारतीय साहित्य के प्रतिनिधि महाग्रन्थ रामायण मंे वाल्मीकि ने सुन्दरकाण्ड में रावण के भवनों का वर्णन करते हुए रावण की चित्रषाला का भी उल्लेख किया है। कैकयी का राजप्रासाद भी चित्रों से सुषोभित था। राम के प्रासाद में भी भित्तिचित्र उत्कीर्ण थे। रावण के पुष्पक विमान के कक्ष भाग भी चित्रांकित थे। चित्र सज्जा के अन्य वर्णन भी रामायण में मिलते हैं। रामायण के समान महाभारत मंे भी अनेकों कला सम्बन्धी उदाहरण प्राप्त होतेे हंै। महाभारत में सत्यवान के लिए लिखा गया है कि वह भित्तियों पर घोडे़े के चित्र अंकित करता था। इसलिए बचपन मंे उसका नाम चित्राष्व पड़ा। महाभारत में ही युधिष्ठिर की सभा का बडा़ रोचक वर्णन प्राप्त होता ह,ै इसमें कहा गया है कि युधिष्ठिर की सभागृहकी दीवारें भांति-भांति के चित्रों से सुषोभित थीं।
रामायण व महाभारत के बाद पाणिनीकृत अष्टाध्यायी में शिल्प को चारू व कारू के अर्थों मंे प्रयोग करते हुए पषु, पक्षी, पुष्प, वृक्ष, नदी आदि के सांकेतिक लक्षणांे के साथ उनके अंकन विधान पर भी प्रकाष डाला गया है।
प्रजापति षिल्प, सरस्वती षिल्प, षिवतत्वरत्नाकर, षिल्परत्न, कीर्तिल ता आदि ग्रन्थों मंे चित्रों की सामग्री तथा चित्र निर्माण प्रविधि के विस्तृत विवरण उपलब्ध हैं। उस समय की सामग्री आज जैसी वैज्ञानिकता लिए तो नहीं थी, वह अधिकांषतः व्यक्तिगत प्रयोगों पर ही अधिक निर्भर थी। साहित्य तथा शिल्प ग्रन्थों मंे चित्रण के लिए अधिकांषतः भित्ति का ही उल्लेख उपलब्ध होता है।
बौद्ध साहित्य में भी चित्रांे का वणर्न प्राप्त हाता है। ‘विनय पिटक’ में लेप्य चित्र शब्द का प्रयोग चूने से लिपी-पुती भित्ति पर बने चित्रों के लिए हुआ है। इसी प्रकार महाउम्मग जातक में एक ऐसे विषाल भूमिगृह का उल्लेख है जिसकी इष्टिका निमिर्त भित्तियों पर पहले सुन्दर सफेद पलस्तर किया गया और फिर उस पर निपुण चित्रकारों ने चित्र बनाये। इस प्रकार जमीन बांध कर और घुटाई करके छत में अनेक प्रकार के खिले हएु कमल पुष्पांे के फुल्ले लिखे गये। अजंता गुफा सं. 2 आरै 17 में इस प्रकार के मंडलाकृति पुष्पालंकरण पाये जाते हैं।
‘विष्णुधर्माेत्तर पुराण’ भी चित्रषास्त्र का एक उल्लेखनीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में चित्रषास्त्र के प्रायः सभी विषयांे का प्रतिपादन किया गया है। इसमें चित्रकला के तकनीकी, कलापक्ष व चित्रण पक्ष पर प्रौढ़ विवेचना मिलती है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के तृतीय खण्ड में अध्याय 35 से लेकर अध्याय 43 तक ‘‘चित्रसूत्रम’’ प्रकरण में चित्र सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है।
भोज के ‘समरांगण सूत्रधार’ में भी ‘चित्रकर्म’ पर बहतु ही सारगर्भित सामग्री संचित की गई है। चित्रकर्म को छः अवान्तर अध्यायांे मंे विभक्त कर भित्तिचित्रण प्रविधि व उसके उपकरण ब्रष, कंूची आदि का वर्णन हुआ है।
मध्यकालीन अधिकृत षिल्प शास्त्रीय कृति ‘अपराजितपृच्छा’ मंे चित्र के उद्देष्य, उत्पत्ति एवं क्षत्रे अथवा विस्तार का जो विवेचन है वह बड़ा ही मार्मिक है। इस ग्रन्थ की प्रमुख विषेषता, पत्र एवं कंटक के अनुरूप नागर, द्रविड,़ वेसर, कलिंग, यामुन तथा व्यन्तर नाम की छः चित्र शैलियों का प्रतिपादन है।
संस्कृत के प्रायः सभी महान लेखकों ने अपनी रचनाओं मंे चित्रण परम्पराआंे का भी उल्लेख किया है। मालविकाग्निमित्र मंे चित्रषाला, तिलकमजंरी में चित्र शालिका व उत्तररामचरित मंे अभिलिखित वीथिका शब्द आया है। बाणभट्ट के हर्षचरितम् व कादम्बरी मंे व्यक्ति चित्रण सम्बन्धित विवरण प्राप्त होता है। रघुवंष के 16वें सर्ग में विध्वस्त अयोध्या नगरी का वर्णन करते हुए कालिदास ने लिखा है कि वहाँ के प्रासादांे की भित्तियों पर पहले नाना भांति के पद्मवन चित्रित थे, जिनके मध्य मंे बड़े-बड़े हाथियांे को दर्षाया गया ह।ै
अन्य ग्रन्थों में ‘‘मयमत’’, ‘‘मानसार’’, ‘‘चित्रकर्म षिल्पषास्त्र’’, ‘‘षिल्पकलादीपिका’’ वृत्तांत वर्णन है जिनमें चित्रकला के विधि विधानांे, लक्षणांे आदि पर अनूठी सामग्री उपलब्ध है यद्यपि आज की कला इन लक्षण ग्रन्थों के नियम उपनियमांे के आधार पर रूप ग्रहण नहीं करती फिर भी इनका अपना विषिष्ट महत्व है। शिल्प एवं कला के ग्रन्थों में से कछु महत्वपूर्ण ग्रन्थों का विवचे न निम्न प्रकार है।
 
1. चित्रसूत्रम्
2. समरांगण सूत्रधार
3. मानसोल्लास


चित्रसूत्रम्

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के तृतीय खण्ड मंे पैंतीसवें ;35वेंद्ध अध्याय से तयालीसवंे ;43वेंद्ध अध्याय तक ‘चित्रसूत्रम’् प्रकरण है। यह विवरण संवादात्मक है। मार्कण्डेय मुनि राजा वज्र की चित्र संबंधी समस्त जिज्ञासाएं पूर्ण करते है। इस गं्रथ का सवर्प्रथम अंग्रेजी मंे अनवुाद ‘डाॅ. स्टेलाक्रैमरिष’ ने किया था बाद में ‘डा.ॅ आनन्द कमुार स्वामी’ एवं श्री षिवराम मूर्ति ने भी इसका अनुवाद प्रस्तुत किया। डाॅ. प्रिय बाला षाह ने इसका हिन्दी रूपान्तर किया।
चित्रसूत्र भारतीय चित्रकला की प्रौढ़ परम्परा को दर्षित करने वाला एक मात्र गं्रथ है। इसके नौ अध्यायों मंे प्राचीन भारतीय चित्रविद्या की व्यापकता एवं तकनीक सम्बन्धी महत्वपणर््ूा जानकारी मिलती है।

सम्पूर्ण ‘चित्रसूत्रम्’ निम्न नौ अध्यायों में विभक्त है -ं

1. आयाममानवर्णन         2. प्रमाणवर्णन
3. सामान्यमानवर्णन         4. प्रतिमालक्षणवणर्न
5. क्षयवृद्धि                 6. रंगव्यतिकर
7. वत्र्तना                         8. रूपनिर्माण
        9. श्रृंगारादिभावकथन

प्रथम अध्याय मंे ‘नृत्तं चित्रं पंरमतम्’ अथार्त नृत्य को परम चित्र मानते हुए मुनि ने हंस भद्र, मालव्य, रूचक व शषक आदि पाॅच पुरूषों के लक्षणों की विस्तार से चर्चा की है।

द्वितीय अध्याय प्रमाण को स्पष्ट करने वाला है। इसमें प्रत्येक अंग के प्रमाण को समझाया गया है। जैसे- मुख 12 अगुंल, मस्तक 4 अगुंल हो आदि, सिर से पांँव तक के अनुपात को विस्तार में बताया गया है। इसमें इनके वर्ण की भी चर्चा मिलती है।

तृतीय अध्याय सामान्य मान से सम्बंधित है। इसमें भी अनुपात को स्पष्ट करते हुए बालों व आॅँखो के बारे में वर्णन किया गया है।

चतुर्थ अध्याय दवे प्रतिमाओं के लक्षणांे से सम्बन्धित है। इसमें
प्रतिमाओं के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है।

पंचम् अध्याय अपने आप में एक विषिष्ट अध्याय है, जिसमें चित्रकला के क्षयवृद्धि सिद्धान्त को स्पष्ट किया गया है। साथ ही आकृित स्थिर व चलायमान कैसे हो सकती है यह भी स्पष्ट किया गया है।

छठा अध्याय पूर्णतः प्रविधि से सम्बन्धित है। इस अध्याय में रंगों की बात र्हइु है जिसमें पाँच प्रकार के प्रधान रंग माने गये है - ष्वेत, पीत, पीलापन लिए ष्वते , कृष्ण और नील।

सातवाॅं अध्याय चित्रांे में वर्गीकरण से आरम्भ होता है। जिसमें चार प्रकार के चित्र कहे है - सत्य, वैणिक, नागर और मिश्रण इनके लक्षण मंै बता रहा हूँ ओर इनके लक्षणांे को बताने के बाद मुनि तीन प्रकार की रेखाआंे पत्रवत्र्तना, आहैरिकवत्र्तना ;सूक्ष्मरेखाद्ध व बिन्दुवत्र्तना की व्याख्या की है। इस प्रकार यह अध्ययन भी स्वयं मंे अत्यन्त महत्वपणर््ूा है एवं इसकी विभिन्न विद्वानांे ने अलग-अलग रूप में व्याख्या की है।

आठवाॅं अध्याय देवताओं, ऋषियों, गन्धर्वाे, दैत्य, दानवों, पिषाचों, बौने, कुबडे़, सेवकों व अनेक प्रकार के मानवों व मानवेतर प्राणियों को बनाने की विधि पर प्रकाष डाला है। इसी अध्याय में दृष्य व समुद्रों के चित्रों की भी व्याख्या मिलती है।
 
नवां अध्याय रसों की व्याख्या है। नाटय् षास्त्र व चित्रलक्षण आदि ग्रन्थ में 9 रसों की अवधरणा प्राप्त होती है।

चित्रसूत्र मंे भी नव रस की पुष्टि करते हुए कहा गया है -

श्रृंगारहासकरूणवीररौद्र भयानकाः। 
वीभत्साद्भतु षान्ताष्च नव चित्र रसा स्मृताः।।

‘‘चित्र के लिए श्रंृगार, हास्य, करूण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और षान्त नामक नौ रस कहे गये है।’’ यह अध्याय अपने आप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। विषेष रूप से इसमें चित्र के सौन्दर्यपक्ष की अत्यन्त गहन समीक्षा की गई है। अन्त में चित्रकला को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए कहा है कि-

‘‘कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थमोक्षदम्। 
मांगल्यं प्रथमं चैतद्गृहे यत्र प्रतिष्ठितम्।।’’

चित्रकला सभी कलाओं मंे श्रेष्ठ है। यह धर्म, काम, अर्थ व मोक्ष देने वाली है। जिस घर मंे इसकी प्रतिष्ठा की जाती है, वहां पहले से ही मंगल होता है।

‘‘यथा सुमेरूः प्रवरो नगानां यथाण्डजानां गरूडः प्रधानः।।
यथा नाराणां प्रवरः क्षितीषस्तथा कलानामिह इचित्रकल्पः।।’’

‘‘जैसे पर्वतांे मंे सुमेरू श्रेष्ठ है, पक्षीयों में गरूड़ प्रधान है और मनुष्यों मंे राजा उत्तम है उसी प्रकार कलाआंे मंे चित्रकला उत्कृष्ट है।’’ इन्हीं षब्दों के साथ मार्कण्डेय मुनि ‘चित्रसूत्रम्’ को समाप्त करते है।
चित्रविधा की जिन प्राविधिक बातों का वर्णन इसमें किया है, वे प्राचीन भारत के कलात्मक वैभव को प्रस्तुत करती हंै, वे आज भी तर्कसंगत दिखाई देती हैं क्योंकि इनका आधार वैज्ञानिक रहा। अतः ‘चित्रसूत्र’ का कला के क्षेत्र मंे अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है।


समरांगणसूत्राधार

महाराजाधिराज भोजदेव (1010-1055-ई.) विरचित ‘समरागंणसूत्रधार’ एक पूर्वमध्यकालीन अधिकृत उपलब्ध 84 अध्यायांे युक्त षिल्पग्रन्थ है, जिसमें प्रायः सभी प्रमुख कलाआंे का प्रतिपादन है जिसको सात भागांे मंे विभक्त किया गया है। सातवें भाग में चित्रकर्म पर छः अध्याय - चित्रोद्धेश्य, भूमिबंधन, लप्ेयकर्मादि, अष्डक, प्रमाण, मनोत्पत्ति और रस दृष्टिलक्षण है। इसमें छः कलाओं का अधिकृत विवेचन है -
 
1. भवनकला 2. नगरकला 3. प्रासादकला 4. मूर्तिकला 5. चित्रकला 6. यन्त्रकला।

‘समरांगणसूत्रधार’ के पंचम पटल चित्रलक्षण के दूसरे अवान्तर अध्याय चित्रभूमि बन्धन व तीसरे अवान्तर अध्याय चित्रकर्मा लेप्यादि कर्म में भित्तिचित्रण विधा की विस्तृत विवेचना की गई है।
 
इसी मंे आगे कुडय़ भूमि बन्धन भाग में भित्तिचित्रण के लिए दीवार तैयार करने की विधि बताई गई है।
पुस्तक के आगे के भाग में ‘लेप्यकर्मादिकलक्षण - में विभिन्न रंगों की मिट्टियांे का वणर्न करते हएु सित, क्षौद्र, सदृष, गौर और कपिल वर्णों की मिट्टियाँ प्रषस्त मानी गई हंै।
मिट्टियों के वणर्न के बाद पाँच प्रकार के ब्रषांे का वर्णन हुआ है। इसमें बैल के कान के रोमों से बना कूर्चक (ब्रष) बुद्धिमान मनुष्य के धारण योग्य बताया गया है।


मानसोल्लास

कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य के पुत्र सोमेष्वर भूपति ने 1131 ई. मंे ‘अभिलाषितार्थचिन्तार्माणि’ नामक एक विष्वकोषात्मक ग्रन्थ लिखा जिसका दूसरा नाम ‘मानसोल्लास’ भी है। जिसे मैसूर विष्वविद्यालय ने प्रकाषित किया है। इसमंे राजनीति, गणित, ज्योतिष, तर्कषास्त्र, काव्यषास्त्र, संगंीत, वास्तुकला, चित्रकला आदि विषयों का समावेष है।
मानसोल्लास की तीसरी विषंति के प्रथम अध्याय में चित्रकला पर विचार किया गया है। इस ग्रन्थ का चित्रकर्म वर्णन बड़े ही क्रमबद्ध ढंग से है। जिनमें चित्रकार स्वरूप, चित्राभित्ति, लेखनी-लेखन, शुद्ध वर्ण, मिश्र वणर्, चित्र वर्ण, पक्षसुत्र लक्षण, ताल लक्षण, तिर्यकमान लक्षण और सामान्य चित्र प्रक्रिया आदि ग्यारह अध्यायांे मंे चित्र कर्म का वणर्न है। स्फटिक मणि के समान स्वच्छ व दर्पण के समान चिकनी भित्तियांे पर सूक्ष्म रेखा विषारद नाना रंग के चित्र बनाया करते थे।
रंग योजना के सम्बन्ध मंे कहा गया है कि आधार भित्ति का जो स्थान निम्नतर हो वहाँ एक रंगे चित्र में श्यामल वर्ण का प्रयोग होना चाहिए और जो स्थान उन्नत हों वहाँ उज्जवल या फीके रंग का उपयोग करना चाहिए। सोमेष्वर के अनुसार सफेद, लाल, पीला और काला चार प्रमुख रंग है। श्वते रंग शंख के चूर्ण से बनाया जाता था। इसी प्रकार दरद से शोण रंग, अलक्तक से लाल रंग, गेरू से लोहित रंग, हरताल से पीत रंग और काजल से काला रंग बनाया जाता था। चित्रांे मंे सोने के उपयोग का विधान पहले-पहले इसी ग्रन्थ में पाया जाता है, चित्रों के लिए सोने के तबक से हलकारी सोना बनाने की जो प्रक्रिया इसमें दी गई है, वह आजकल की प्रक्रिया से अधिक भिन्न नहीं है।

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