शैलेन्द्रनाथ दे (Sailendra Nath De)

शैलेन्द्रनाथ दे का जन्म सन 1890 ई० को इलाहाबाद मे हुआ था
मानव-जीवन के मूक भावों को प्रत्यक्ष करने वाली कला ही एक चाक्षुष माध्यम है, इस सहज विश्वास को लेकर अवनीन्द्रनाथ ठाकूर की छत्र छाया में शैलेन्द्रनाथ दे कला की अनेक नवीनताओं और विशेषताओं को लेकर अवतरित हुए । बनारस के कला-भवन और कलकत्ता के इण्डियन सोसाइटी आफ ओरियिण्टल आट में कुछ अर्से तक काम करने के पश्चात् वे अपनी सहजात सृजन प्रेरणाओं को राजस्थान तक ले गये और जयपुर के आर्ट-स्कूल में प्राध्यापक रहकर कला के व्यापक प्रसार में सहयोग दिया । यहाँ की आर्ट एकेडेमी में कला की साधना में रत रहकर ये उसे समुन्नत बनाने की भरपुर चेष्टा करते रहे हैं। भारतीय चित्रकला पद्धति नामक स्वरचित पुस्तक में अपने आन्तरिक उद्गार व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं
चित्रकला संसार की वह सजीव वस्तु है जिससे हम कभी पृथक् नहीं हो सकते । हमारे जीवन के प्रत्येक शुभाशुभ अवसर पर चित्रकला ही दृष्टि में आती है। मनुष्य जो कुछ देखता या अनुभव करता है उन्हीं वस्तुओं को वह कागज, दीवार, पत्थर आदि पर रंग एवं तूलिका द्वारा चित्रित करता है। चित्रितावस्था के पश्चात् हम उस निरीक्षण या अनुभव के मूल परिणाम को, चित्र और उसके विज्ञान को चित्रकला कहते हैं । यों तो चित्रकला संसार की वह सजीव शुभाशुभ अवसर पर चित्रकला ही पदयात संसार ही चित्रमय है और हमारे मन में हर समय संसार का कोई न कोई दृश्य अवश्य अंकित रहता है, पर अनुभव होते हुए भी मनुष्य उसको नहीं पहचानता और इसीलिये उसका वास्तविक सुख भी नहीं उठा पाता । जीवन के अनुभवों को निरीक्षण की परिधि में समेट कर जो व्यक्ति रंग एवं रेखाओं द्वारा सब के सामने रखता है उसे ही वस्तुतः चित्रकार कहते हैं।
शैलेन्द्र दे के कृतित्व में बंगाल स्कूल की विशिष्ट कला-धाराएँ उतार पर आ गई थी। पौराणिक विषयों का बाहुल्य, चित्रों के रूढ़ ढाँचे, पुरातन घिसेघिसाये रूपाकार और प्रचलित कला-पद्धतियाँ छोटे-छोटे कलाकारों के मनोरंजन की चीजें थी। कला के उच्च स्तर की दृष्टि से उनका महत्त्व घट गया था। शैलेन्द्र दे के प्राथमिक चित्रों--यथा यशोदा और बालक कृष्ण में राजपूत अथवा मुगल कला के निष्प्राण अनुकरणशील तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं। इसके पीछे की कलाकृतियाँ-जैसे देवी जगद्धात्री में पहले से अधिक परिपक्वता और कला-नैपुण्य तो था, किन्तु रेखाओं के संयोजन एवं सम्पुंजन में एकरूपता और सामंजस्य न था। कालान्तर में ज्यों-ज्यों उनकी कला पुष्ट होती गई. उनकी रंग और रेखाएं अधिक सूक्ष्म और गहरी होकर उभरी, कला और जीवन के निकटतम सम्बन्ध-सुत्र अधिक परिपक्व हो गए, सम्पूर्ण चित्र के ग्रालेपन में एक लयमय कोमलता द्रष्टव्य हुई और भाव-प्रकाशन में अधिक सुचारुता और सजीवता आ गई। उदात्त सौंदर्य और संतुलित ज्यामितिक रेखांकन के अलावा उनकी ‘यक्ष-पत्नी में अकृत्रिम अभिव्यक्ति है। बनवासी यक्ष में मत्तं प्रत्यक्षीकरण का वैलक्षण्य और कोमल भाव को अत्यन्त सूक्ष्मता से ग्रहण किया गया है। इनके चित्रों में इनकी अनुभूति के रूपचित्र एवं प्रतीक किसी बहिरंग सज्जा अथवा भाव से भिन्नान्तर होकर नही उभरे, अपितु इनके उन्मुक्त अन्तर से गहरे भाव में डूबे हुए उद्भूत हुए। इनके दृष्टिकोण से चित्रकार के लिए किसी वस्तु को देखकर उसमें तल्लीन हो जाना और अपने आप को भूल एक नृत्य भंगिमा जाना ही भाव हैं। इस भाव का जो चित्रकार सफलतापूर्वक चित्रण करता है, वह चित्र अमर शैलेन्द्रनाथ दे हो जाता है। मान लीजिए मन्दिर के समक्ष नृत्य हो रहा है और चित्रकार इस भाव को चित्रित करना चाहता है। इसका पूर्व-चित्रण करने के पहले चित्रकार स्वयं अपने को मन्दिर के सामने नाचता हा अनुभव करता है अर्थात् यह कि किसी भी प्रकार का भाव क्यों न हो, चित्रकार जो भाव चित्रित करना चाहे उसे उस समय वैसा ही बन जाना चाहिए। हृदय में भाव उठते ही शरीर स्वयं वैसा ही हो जाता है।
उसे ही चित्रकार का मूड कहते है और ऐसी ही अवस्था में उत्तम चित्र बनता है। यदि वह हँसता हुया, क्रीड़ा करता हुआ चित्र बनाना चाहे तो वह स्वयं भी उसी प्रकार करे जिससे उसका शुद्ध भाव प्रतीत हो। शैलेन्द्र दे ने मानव-जीवन के सत्यं, शिवं, सुन्दरम् में ही कलात्मक पूर्णता के दर्शन नही किये, वरन् कुरूप और असुन्दर में भी निर्माणोन्मुख विधायिनी शक्ति और अभिव्यंजना की रसात्मकता की इन्होंने कल्पना की। सच्चे कलासाधक को भले-बुरे, कुरूप-सुरूप दोनों में ही अद्भुत एकरूपता और साम्य दीख पड़ता है-चित्रकार के लिए यह नहीं कि वह सब सुन्दर वस्तुओं का ही निरीक्षण करे। उसकी दृष्टि में कोई चीज बुरी नहीं होती। जिस प्रकार सृष्टि में परमात्मा के लिए सब समान हैं. वे केवल कर्मफल से विभिन्न स्वरूप लिये हुए है, परन्तु उन सब में परमात्मा का अंश है तथा बुरी से बुरी चीज में भी सौंदर्य व्याप्त है, उसी प्रकार चित्रकार सब वस्तुओं को समान रूप से देखता है। 
उनके मुख्य भावों का प्रदर्शन करता है। निःसन्देह, कलाकार की अन्तर्नुभूति और सर्जना की धाराएँ साथ साथ बहान करती हैं। उसकी दृष्टि इतनी विराट् है कि उसके जीवनदर्शन का कहीं ओर-छोर नहीं पाया जा सकता । जिस वस्तु-सत्य को साधारण प्रेक्षक की दृष्टि छू नहीं पाती, उसको वह देखता और दूसरों को दिखाता है। वह भीतर के संस्कारों को इतना समृद्ध और उदात्त बना लेता है कि सामान्य विश्वासों की अभिपाती, उसको वह देखता और मध्य भाग की परिकल्पना व्यक्ति भी सत्य दर्शन के अभेद को लेकर चलती है। जीवन की रागात्मक प्रवृत्तियाँ और मानवीय संवेदनाएँ कलाकार के कोष में संचित रहती हैं जिसके प्रत्येक पक्ष को समय-असमय अपनी तूलिका के जादूभरे स्पर्श से वह सजीव बनाता रहता है। उसका यह सृजन काल के बंधन से न बँधकर उस चिरंतन चलते फिरते सत्य से बँधा है जो वह्यॅ से नहीं, हृदय से सम्बन्धित है। एक जगह इन्होंने कहा है-चित्रकार तो एक साधक है, वह सदा सत्य के अनुसंधान में ही लगा रहता है और सत्य की ओर ही उसकी समस्त शक्ति केन्द्रित रहती है।
शैलेन्द्र दे ने मरुभूमि में कला का स्रोत बहाया है। उन्होंने कितने ही उत्साही युवकों को कला की दीक्षा दी और कलाकार तैयार किये । जो अचूक और भेदक दृष्टि इन्होंने पाई, जिस सहज विश्वास और सबल चितन से वे साधना-पथ पर अग्रसर होते रहे हैं, उससे कितनों ने ही प्रेरणा ली और लाभ उठाया। ये केवल चित्रकार ही नहीं कलामर्मज्ञ भी हैं। अपने घोर व्यस्त जीवन में इन्होंने चित्रकला की बारीकियों पर सविस्तार प्रकाश डाला जो कला में अभिरुचि रखने वाले विद्यार्थियों के लिए लाभप्रद है। इनकी उत्कृष्ट कलाकृतियाँ श्भारत कला भवनश् बनारस और मैसूर के जगन्मोहन महल की चित्र-गैलरी में सुसज्जित हैं। सन 1972 ई० मे इनका स्वर्गवास हो गया

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