राजा रवि वर्मा (Raja ravi verma)

सांस्कृतिक पुनरुत्थान काल के दौरान कला की अन्तजिज्ञासा जब रंग एवं रूपरेखाओं में मुखर हो उठी तो उस उषाःबेला में राजा रवि वर्मा ही सबसे पहले कलाकार थे जिन्होंने एक नई प्रेरणा दी, एक नई दिशा अपनाई और अभिव्यक्ति की नव्य पद्धतियों का सूत्रपात किया। अतएव उनकी कला-साधना की एकान्विति भंग करना अथवा उनकी मुखर वैयक्तिकता का सही मूल्यांकन तो उनके सामाजिक तथा, और भी व्यापक रूप से, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही शक्य हो सकता है। उनकी अनगढ़ और अपेक्षातीत सृजन प्रक्रिया समकालीनों से पृथक् और असम्पृक्त सी लगतीे है, किन्तु यह पार्थक्य, यह अलगाव ही उनकी वैयक्तिकता का पर्याय है।
सन् 1848 में इनका जन्म मध्य केरल स्थित कोट्टायम नगर से बीस मील दूर किलीमनूर गाँव में हुआ था। त्रावणकोर के राजघराने से उनका बहुत समीप का रिश्ता था। बचपन से ही इन्हें चित्र बनाने का बेहद शौक था। एक बार इनके मामा राजराज वर्मा भगवान विष्णु का चित्र बना कर उसमंे रग भर रहे थे। बीच में उठकर वे किसी काम से बाहर गए। इतने में बालक रवि वर्मा अकस्मात् वहाँ आ पहुँचे। अधूरा चित्र पड़ा देखा तो तुरन्त बाल-औत्सुक्य वश उसे पूरा करने बैठ गये। साथ ही विष्णु के साथ गरुड़ का चित्र भी नीचे अंकित कर दिया। इनके मामा चुपचाप यह सब क्रिया दूर से देख रहे थे। बालक की इस तन्मयता से वे अभिभूत हो उठे। उन्होंने खुश होकर आशीर्वाद दिया--ष्बेटा तुम आगे चलकर एक बड़े चित्रकार बनोगे।ष् इनके मामा तंजोर पद्धति पर चित्र बनाया करते थे। फलतः इनकी कलात्मक अभिरुचियों के विकास में उसी का गम्भीर प्रभाव पड़ा। चैदह वर्ष की आयु में ये त्रिवेन्द्रम के राजमहल चले आये जहाँ उन्हें दरबारी चित्रकार रामास्वामी नायडू स़़े कला प्रशिक्षण में प्रोत्साहन मिला। बड़े होने पर अलाग्री नायडू और भारत में भ्रमणार्थ आये हुए थियोडोर जेन्सन के कृतित्व की इन पर विशेष छाप पड़ी। अलाग्री नायडू पदुरा के चित्रकार थे जो यूरोपीय पद्धति पर चित्र बनाया करते थे। थियोडोर जेन्सन पोर्टेट पेण्टर थे और उनके छविचित्र हूबहू पाश्चात्य शैली पर निर्मित होते थे। इनकी मौलिक बुद्धि और इनका अपना एक काम का देखकर जेन्सन ने इन्हें अपना शिष्य बनाने से तो इन्कार कर दिया, सिर्फ काम करते हुए दूर से ये देखकर उनसे प्रशिक्षण ले सकते थे। किन्तु अलाग्री नायडू के ये अधिक निकट आ गए और उन्हें अपना गुरु मानने लगे। चंूकि उस समय अंग्रेजी सत्ता के प्रभाव से विदेशी चित्रण पद्धति का अधिक जोर था, इनका रुझान भी स्वभावतः उसी ओर हो गया। यद्यपि उन्होंने कभी भी किसी यूरोपीय व्यक्ति से कला-दीक्षा नहीं ली तथापि ये यूरोपीय शैली के विशेष प्रशंसक और अनुवर्ती बन गए।
राजा रवि वर्मा के आलोचकों ने उनके प्रतिपाद्य विषयों और कला टेकनीक को लेकर सर्वथा भिन्न मत प्रकट किये हैं, पर इतना निर्विवाद है कि उन्होंने परम्परा को कभी फैशन नहीं बनाया, बल्कि बहुत हद तक उसे समझा और रचनात्मकता में ढाल दिया। उन्होंने पौराणिक और धार्मिक विषयों को लेकर देवी-देवताओं के चित्रों का निर्माण किया। नेताओं और विशिष्ट व्यक्तियों के पोर्टेट, ऐतिहासिक और प्राचीन गाथाओं के दृश्यांकन इस खूबी से चित्रित किये जो महज अन्धानुकरण नही वरन् उनकी मौलिक सूझबूझ के परिचायक थे। उनमें बुद्धिवादी की वह बलवती स्पृहा न थी जो सायास कला-सृजन में बिना किसी ठोस धरातल के संवेदनाएँ कुंठित करती है, न ही उनमें इस तरह की हठवादिता थी कि केवल भारतीय विषयों को ही लिया जाए। कई बार उनके काम करने की प्रणाली विदेशी होती थी, पर प्रतिपाद्य विषय भारतीय। परम्परा के अतीत वैभव पर उन्होंने अपनी तूलिका से प्रहार नहीं किया वरन् विगत परम्पराओं के अंतराल को अर्थात् तात्कालिक पीढ़ी और विगत पीढ़ी की एक बड़ी दूरी को उन्होंने अपने ढंग से पाटा। जब कोई अपनी आस्था का उत्स खोज लेता है तो उसकी शक्ति का प्रवाह उसी ओर उन्मुख होता है। देवी-देवताओं की पावनता में इनके मन को शह मिली और इन्होंने उनकी प्रतिच्छवियों को बड़ी श्रद्धा से आँका। भारत के घर-घर में जो लक्ष्मी, सरस्वती तथा अन्य देवी देवताओं के चित्रों की पूजा होती है वे राजा रवि वर्मा की तूलिका से सृष्ट हैं ।
गहरे लाल, नीले, पीले, हरे, सुनहरे, जामुनी मूल रंगों का प्रयोग करके इन्होंने परम्परागत लालित्य को तेजोद्दीप्त रूपाकारों में ढाला और कृत्रिम औपचारिकताओं से परे यथार्थं छवियों की सी मांसल सजीवता प्रदान की। चटक रंगों के तीखेपन, चमक और निखार के माध्यम से दर्शक के अन्तर में उल्लास, करुणा एवं तादात्म्य भाव जाग्रत होता है, यहाँ तक कि इनकी रंग-योजना से चित्र का समूचा वातावरण चमकीला, आकर्षक और रम्य प्रतीत होता है । अचानक इनके चित्रों की माँग इतनी बढ़ गई कि इनके लिए उसे पूरा करना संभव न था। बड़ौदा के दीवान ने इनके महत्त्वपूर्ण चित्रों की प्रतिकृतियाँ यूरोप में ओलियोग्राफ कराने की प्रार्थना की। फलतः इन्होंने बम्बई में इसी तरह का एक प्रिंटिंग प्रेस खोला जिसने सर्वप्रथम तैल पद्धति पर प्रचुर मात्रा में चित्रों की प्रतिकृतियाँ तैयार करने की पद्धति का विकास किया। चित्रकार के रूप में इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई, हालाँकि सौंदर्य की बारीकियों से अनभिज्ञ और कला की दिशा में अप्रशिक्षित जनता ही इनसे अधिक अभिभूत थी।
राजा-महाराजा. अमीर-उमरावों और अभिजात्य वर्ग में इनके चित्रों की धूम थी। ऊंची कीमत देकर वे उन्हें खरीदते और अपने भवनों एवं राजप्रासादों की शोभा बढ़ाते। त्रावणकोर, मैसूर, बड़ौदा और अन्य रियासतों के महाराज, मद्रास का अंग्रेज गवर्नर, बकिंघम का ड्यूक इनकी कला के विशेष प्रशंसक थे और अपने लिए उन्होंने खास तौर पर इनसे चित्रों का निर्माण कराया ।
सन् 1875 में जब प्रिंस आफ वेल्स त्रिवेन्द्रम पधारे तो त्रिवेन्द्रम महाराज ने उनकी सेवा में इनके चित्र भेंट किये ।
सन् 1880 की पूना कला प्रदर्शनी और 1862 की वियना और शिकागो की प्रदर्शनियों में इनके चित्र बहुप्रशंसित हुए। त्रिवेन्द्रम के श्रीचित्रालयम् में इनके द्वारा निर्मित अनेक सुन्दर चित्रों का संग्रह है जिनमें इनकी विभिन्न रुचियों का दिग्दर्शन होता है। इसके अतिरिक्त बड़ौदा, मैसूर, उदयपुर के राजप्रासादों, हैदराबाद के सालारजंग म्यूजियम और नई दिल्ली की नेशनल आर्ट गैलरी में भी इनके अनेक चित्र सुरक्षित हैं।
भारत के अनेक कलातीर्थों और धार्मिक स्थलों में घूम-घूम कर इन्होंने वहाँ की पौराणिक वेषभूषा, देशीय पद्धति और रीति-रूढ़ि का अवलोकन किया। नाट्य मण्डलियों, धार्मिक प्रदर्शनों और जनरुचियों से भी इन्हें देवीदेवताओं की पोशाक, भावभंगी और दृश्य रूपों को आँकने में मदद मिली। ऊषा द्वारा अनिरुद्ध और दुष्यंत द्वारा शकुन्तला के छविचित्रों के चित्रण में और श्राम द्वारा समुद्र का मानभंगश्, श्सत्यवादी हरिश्चन्द्रश्, श्श्रीकृष्ण और बलरामश्, श्दूत के रूप में श्रीकृष्णश्, श्रावण और जटायुश्, श्मत्स्यगन्धीश् आदि चित्रों के दृश्यांकनों में प्राचीन पौराणिक आख्यान सजीव हो उठे हैं। श्दक्षिण भारत के जिप्सीश् अभिव्यंजनावादी पद्धति पर निर्मित एक बड़ी ही बेजोड़ कृति है। नारी चित्रों में, खासकर केरल की नारियों की चित्रण-सौंदर्य-श्री के प्राचुर्य को देखकर टिशियन और रूवेन्स का स्मरण हो आता है, यद्यपि उसमें वैसी अवसादमयी एकरसता नहीं है । श्गंगावतरणश्, श्विराटा का दरबारश्, श्दादाभाई नौरोजीश्, श्गरीबीश्, श्मंदिर के द्वार पर भीख देते हुएश्, श्माँ और बच्चाश् आदि अनेक चित्रों में जन-रुचि को प्रश्रय दिया गया है।
लगभग तीस वर्षों तक ये उम समय कला-साधना में जुट रहे जबकि भारतीय कला अंधकार के गर्त में समायी हुई थी। मुगल एवं राजपूत कला का केवल रूढ़ियों का ढाँचा मात्र अवशेष था और पहाड़ी कला के अंतिम कलाकार मोलाराम की मृत्यु के पश्चात् लगभग दो दशकों तक भारतीय कला के समचे सूत्र विच्छिन्न हो चुके थे और उमके ओर-छोर का कुछ पता न था ।
राजा रवि वर्मा विदेशी कलातत्त्वों को चकाचैंध में भारतीयता से शह न ले सके, वह उनकी नजरों से ओझल ही रहा, आसपास के विदेशी रंग में रंगे वातावरण के कारण वह उसकी तात्कालिकता से अभिभूत हो गए।
डॉ. आनन्द कुमार स्वामी के ये शब्द श्इनके चित्रों में नाटकीयता बहुत अधिक हैश् और ई. बी. हेवेल की दृष्टि में श्काव्यात्मक पैठ का अभावश् कुछ मानों में सही हैं, पर इतना निर्विवाद है कि राजा रवि वर्मा के प्राकट्य और कला-साधना ने ही डॉ० आनन्द कुमार स्वामी और ई. बी. हवेल जैसे मनीषियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया।

बंगाल के पुनरुत्थान आन्दोलन की उषाःबेला में राजा रवि वर्मा शु़़़त्र्क तारे की भाँति अवतीर्ण हुए और आने वाले प्रभात का दिशा-निर्देश कर गए। कला की भावी समृद्ध परम्परा के लिए इसमें संदेह नहीं उन्होंने पृष्ठभूमि तैयार की और अपने समकालीनों की दृष्टि में वे न केवल एक महान आस्तिक और श्रद्धालु सृजक थे, वरन महान् कलामर्मज्ञ भी थे। धर्म को अपना लक्ष्य बनाने के पश्चात् भी वे न रूढ़ि पन्थी थे, न कट्टर धर्मान्ध। आधुनिक चित्रकला के द्वार पर एक अड़िग प्रहरी की भाँति उन्होंने एक ओर प्राचीन और अर्वाचीन का गठबंधन किया, तो दूसरी ओर पाश्चात्य और भारतीय कला-आदर्शों का चित्रों में अपने ढंग से समन्वय स्थापित किया।



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