रविन्द्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore)

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रविन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 07 मार्च 1861 ई० को कलकत्ता के जोडासाको मे हुआ था ये मुख्य रुप से कवि , चित्रकार , उपन्यासकार , नाटककार थे
बासन्ती सुषमा एवं मकरंद से भरेपूरे सदा चिरनवीन और जल थल आकाष - सभी इस चिरनवीन की जयध्वनि से मुखरित जीवन के उन्मुक्त वातावरण में गुहानीड़ से झांक कर तरु-शिखरों पर मधुर कल्पनाओं के रंगीन परों से फुदकने वाले कवि-विहग की उत्सुक दृष्टि नाना रंगों की लीलाचंचल लहरीमाला में क्या खोज रही थी, किस अपरूप रहस्यलीला का भेद पाने के लिए वह आतुर थी, किस निर्वाक् वाणी की अस्पष्ट गुंजन में उसका अंतर सिहर-सिहर उठता था । कवि अपनी कविताओं में ही समूचा नहीं अँट सकता। न जाने कितने प्रआयामों वाले, अनेक अप्रतिम अदृष्ट अलिखित भावावेग, अनगाया गीत, मधुर मुखरता से मचलता, पूर्णता पाने के लिए आकुल, निर्माणोन्मुख, अनन्त अक्षत संभावनाओं का सृजक, अनादि अनन्तकाल से छन्दोबद्ध, मन की शून्य रिक्तता में नित्य-नवीन की चैतन्य ऊष्मा से ऊर्जस्वित, तरुनों की शाख-शाख में, जीर्ण पत्तियों के रूप में सुखकर गिरने से पहले कोमल किसलयों के वृक्ष पर अमरत्व का रस पीने के लिए उनकी शाश्वत पिपासा अमिट रेखाओं से कुछ करना चाहती थी। जीवन के अपराह्न में रवीन्द्रनाथ ठाकूर ने स्वयं कहा था--ष्अब तक मैं अपनी भावनाओं को साहित्य तथा संगीत में व्यक्त करने का अभ्यस्त रहा हूँ, पर मेरी आत्म अभिव्यक्ति के तरीके अपूर्ण रहे, अतएव मैं भावनाओं के प्रकटीकरण के लिए चित्रित रेखाओं का सहारा लेने की दिशा में आगे बढ़ रहा हूँ।ष् अपनी इसी शाश्वत पिपासा की पुनर्व्याख्या करते हुए एक अन्य स्थल पर उन्होंने कहा था--ष्शरीर की प्यास के अलावा एक और भी प्यास मनुष्य को लगती है। संगीत और साहित्य की भांति चित्र भी मनुष्य के दृश्य के सम्बन्ध से उस प्यास का ही ज्ञान कराता है। उस अंतरवासी श्एकश् की वेदना कहती है--मुझे बाहर प्रकाशित करो, रूप में, रंग में, सुर में, वाणी में, नृत्य में। तुममें से जो जैसे कर सकता है वैसे ही मेरी अव्यक्त व्यथा को व्यक्त कर दो।ष्
यू इस महाकवि ने अपनी सतरंगी कल्पनाओं की कूची के वैभव से अपने जीवन-काल में सैकड़ों-हजारों चित्र सिरजे । उन्होंने बचपन में ड्राइंग या किसी चित्रण टेकनीक का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया था, बल्कि वे तो अपनी अतंर्नुभूतियों को रेखाओं में उभारकर अपने मन को एक भोले बालक की भाँति बहलाते थे । चित्रों में उनका जीवन-दर्शन क्या है ! निश्चय ही, कलाकार की वह अंतरंग प्रेरणा, जो वह्यॅ औपचारिकता अथवा सीमाबंधनों से प्रभावित नहीं, बरन भीतर ही भीतर उद्बद्ध प्राणधारा की अक्षुण्णता ही जिसकी सबसे बड़ी पूंजी है, प्रकृति के अनन्त अभिसार. बासन्तिक उन्माद की आँख-मिचैनी और अपरूप सृष्टि की प्रकाश-छाया के इंगित, व्यंजना और क्षणिक स्पर्श मे उनमें स्वयंमेय गुप्त कलाकार जागा जिसने बालक के से चापल्य और भीतरी कौतुक को आत्मबद्ध आवेगों और भावातिशयता में उड़ेल दिया। इन चित्रों का कोई रूप-विधान न था, न नियमों की जकड़बन्दी और न कोई लाक्षणिक प्राधार। हाँ-दृष्टि-पथ की वह्यॅ सीमा छूते ही वे अपने स्नेहल स्पर्श से मधुर सग्मता की राशि बिखेर देते, उनसे कवि के हृदय का निगूढ़तम परिचय न छिप पाता और उनकी रहस्यमय मुखरता किसी को कृत्रिम बंधनों से नही घेरती। रन्ध्रहीन शिलाओं के बीच में फूट निकलने वाले नैसर्गिक निर्झर की आर्द्रता मे भरकर वे दर्शक के भावों को छु-छु कर उममें औत्सुक्य जगाते कि अतयं चेतना से उद्भूत मात्र विन्याम नहीं, वरन् चिरन्तन रंग-राग की रूपमय ऊश्मा उनमें बिखरी है।
संकेत, इशारे या कूची के झपाटों से जो चित्र बरबर अंकित हो जाते वे कवि के व्यंजना-प्रधान चित्र होते थे । उनका सृष्टा मन किसी वस्तु को अंशतः या न्यून करके देखता था, किसी वस्तु को प्रतिकृत करके देखता था. इस प्रकार व्यंजना प्रधान ऐसे चित्रों का अपना वैशिष्ट्य है। उनकी प्राकृति, भंगिमा और रूपरेखा निराली है, उनकी सौन्दर्य-चेतना के पैमाने पृथक हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर में यह सौंदर्य-चेतना उनकी अपनी प्रेरणा का प्रतिफल था।
किसी तथ्य या उद्देश्य को सामने रखकर उन्होंने चित्र कभी नहीं बनाये, बल्कि वे तो अजीबोगरीब ढंग से उनकी रचनाओं के उन अस्वीकार्य अंशों से प्रेरित हुए जिन पर कवि अपनी कलम की क्रूर नोंक चला दिया करते थे। लेख लिखते समय जो काटकूट होती, उससे सौंदर्य-चेता कवि का मन सामंजस्य न कर सका। गाड़ी-तिरछी या सर्प की तरह लहराती अथवा बिच्छू के उभरे जहरीले डंक की शक्ल की तरह ये भौंडी रेखाएँ अन्ततः पुकार-पुकारकर याचना करने लगीं- हमें यूं मत काटो, इस बदसूरती से हमारी हत्या मत करो, तभी बस कवि के भीतर से कसमसाता कलाकार का जन्म हुआ। मेरी पांडुलिपियों पर बनी काट-छाँट की रेखाएँ जब किसी पापी के समान भक्ति के लिए पुकार उठतीं और अपनी कुरूपता से मेरी आँखों को प्रताड़ित करतीं तो अनेक बार मेरा अधिकांश समय अपने प्रत्यक्ष कार्य के बजाय उन रेखाओं को लयबद्ध गति की सदय वास्तविकता प्रदान करने में व्यतीत हो जाता। उन्होंने उन घिनौनी टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं को समानुपात और चित्राकृतियों में बदल दिया। जो कुछ अपना लिखा उन्हें पसन्द न होता वे इस ढंग से उसे काटते कि चित्रकारी बन जाती। एक दिन इन्हीं काल्पनिक प्राकृतियों को देखकर उन्हें आभास हुआ कि भला क्या वे चित्र नहीं । बना सकते ? बस-उनका संवेदनशील हृदय अपनी इसी अछ्ती कलम से रंगों में ऊब-डूब करने लगा। न केवल नुकीली नोंक, बल्कि । कलम के दोनों पार्श्व और पिछला सिरा तरहतरह की स्याहियों में डुबाकर वे चित्र-सृजन करने लगे। मन के सूक्ष्म भाव, भीतर की लय, प्राणों का संगीत रेखाओं में उभरने लगा। अनजाने ही वे आकृति बनने लगीं। यद्यपि उनमें कलाकार की ओर से कोई चेष्टा या निश्चित उपक्रम न होता, किन्तु एक नैसर्गिक स्वयंजात प्रेरणावश वे उदात्त भावनाओं को वहन करने वाली सिद्ध होतीं। स्वयं कवि ने अपनी चित्रशैली के सम्बन्ध में एक स्थल पर लिखा है...
ष्मुझे कला के किसी सिद्धान्त की स्थापना नहीं करनी है। मुझे तो केवल यह कहकर संतोष कर लेना है कि जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है, मेरे चित्रों के मूल में कोई सीखी हई दक्षता नहीं है, वे किसी जानबूझ कर किये हए प्रयत्नों के प्रतिफल नहीं हैं। उनका जन्म तो हुआ है अनुपात की सहजात प्रवृत्ति मे. रेखांकनों और रंगों के सामंजस्यपूर्ण संघात में मेरी रुचि और प्रसन्नता के कारण।ष्
सन् 30 के बाद जब सबसे पहले भारत में यह खबर पहुँची कि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के चित्रों की प्रदर्शनी पेरिस की मशहूर सैलून में आयोजित की गई है और वहाँ के कला रसिक उसकी भूरि-भूरि सराहना कर रहे हैं, साथ ही यूरोप और अमेरिका की आर्ट-गेलरियाँ उन्हें ऊंचे मूल्यों पर खरीद रहीं हैं तो सभी आश्चर्याभिभूत रह गए और उन्होंने शायद इसे मजाक समझा । पर बाद में लन्दन, बलिन, न्यूयार्क और मास्को में भी इनके चित्रों की प्रदर्शनी की गई। विश्व की प्रमुख आर्ट-गैलरियों में इस विश्व-कवि के इस मानसी सृजन का स्वागत करने के लिए जैसे होड़ मी मच गई । मौजूदा युग के कला-इतिहास में सचमुच यह एक बड़ा ही अचम्भा था।
पर सन् 1933 में रवीन्द्र बाबू के चित्रों की प्रदर्शनी जब बम्बई में की गई तो भारतीय जनता हैरान रह गई। दर्शक गुण गाते और मुस्कराते हए बाहर निकलते । इन बचकानी चित्र कृतियों से वे चिढ़ जाते, ष्भला यह भी कोई कला हैष्, भई. हमें तो कुछ भी समझ में नही आताष्. ये तो हमारी समझ से बिल्कुल परे हैष्, इस प्रकार के उद्गार व्यक्त करते हुए वे लोग तरह-तरह के व्यंग्य करते । हाँ--कुछ कला-अध्येताओं में यह प्रवत्ति अवश्य दीख पड़ी कि वे कवि के मनोलोक में झाँककर उनकी अदभुत सृजन-प्रक्रिया से सिरजी इन रूपाकृतियों का गौर से अध्ययन करते और उनमें कुछ विशेष अर्थ एवं गांभीर्य खोजने की चेष्टा करते।
पर इन आलोचना-प्रत्यालोचनायों की कवि को कोई चिन्ता न थी। वे इन सबसे ऊपर थे । वे अपने आप को चित्रकार मानते ही कहाँ थे । रंग, कूची कैनवास, ब्रश, स्टडियो आदि की भी उन्हें चिन्ता नहीं थी। इससे उनके भावबोध रूपायित रूप अथवा आशय या उद्देश्य पर कोई असर नहीं पड़ता था। उनके चित्र तो स्वान्तः सुखाय थे, उनके अवचेतन को अभिसप्टि, उनकी अनियोजिका बुद्धि का कौशल । एक स्थल पर उन्होने लिखा--ष्लोग मुझसे मेरे चित्रों का अर्थ पूछते हैं, उद्देश्य पूछते हैं, उत्तर मैं अपने चित्रों की भांति ही मौन से दे देता हूँ, क्योंकि उन्हें समझाना मेरा काम नहीं, क्योंकि वे यदि अपने भीतर अपने स्वतंत्र अस्तित्व की पूर्णता समाहित किये हुए हैं तो वे बने रहेंगे, अन्यथा किसी वैज्ञानिक सत्य अथवा नैतिक औचित्य के बाबजूद नष्ट हो जाएँगे । मेरे चित्रों की गाषा अनन्त विस्तृत मौन-जगत् का बिन्दुमात्र है। विश्व की अमर वाणी इंगितों-प्रतीकों द्वारा ही व्यक्त होती है।ष् छोटे-बड़े, सादे-रंगीन उन्होंने सैकड़ों चित्र बना डाले । फूल, पत्ती, पौधे, पशु और मानवाकृतियाँ उनकी अपने मन की स्फूति से स्फुरित होकर स्वतंत्र सत्ता बन कर प्रकट हुए । जब वे लिखते-लिखते थक जाते तो अपनी थकान मिटाने के लिए रंगों से खिलवाड़ करने लगते। जो कोई व्यक्ति सामने आता या कोई वस्तु उन्हें नजर पड़ जाती वे उसे रेखाओं में बाँधने की चेष्टा करने लगते और एक आकृति बन जाती जो उनका अपना मनोरंजन तो करती ही, दूसरों के आश्चर्य और मनोरंजन का भी साधन बनती। निर्माण-पद्धति और रंग-नियोजन में उन्हें विशेष प्रेरणा मिली। तरह-तरह की फूलपत्तियों के आकार, पेड़-पौधों की बनावट अपने समानान्तर उन्हें चित्र आँकने का ढंग सिखातीं। 
असित कुमार हाल्दार, जिन्होंने उन्हें काम करते देखा था, अपना अभिमत प्रकट करते हुए एक स्थल पर लिखते हैं-ष्जहाँ तक चित्रनिर्माण-पद्धति का प्रश्न है, हमारे महाकवि चित्रकार को बिस्मयकारी दक्षता हासिल है। ज्यों ही उनके मन में किसी चित्र का विषय कौंध जाता है. उसकी रूपरेखा और अनुपात तत्क्षण उनकी उंगलियों में जैसे थिरकने लगता है। किंचित् सा कम्पन या अनिश्चय की लड़खड़ाहट उनमें नहीं होती। छुटपुट हरकतों में चित्र उभर आता है, सधे हाथ से रेखाएँ गहरी होती जाती हैं और चित्रगत परिस्थिति या विधान इस प्रकार रूपांतरित होता चलता है जो किसी अनुभवी कलाकार के कौशल से ही संभव है।ष् कदाचित् उस समय लोगों को यह एहसास न था कि इस महाकवि के हाथों अनायास आधुनिक कला का प्रवर्तन हुआ था जो आज की अनुपातहीन नव्य चित्राकृतियों की परम्परा का अगुवा कही जा सकती है। पिकासो तब अल्हड़ किशोर था और उसकी कलाकृतियों का करिश्मा अभी दुनिया के सामने उजागर न हया था। कान्दिस्की और नोल्डे. मोदिग्लिानी और पाल क्ली बहुत दूर थे। कला में नये-नये बादों की ऐंचातानी तब न थी, पर यदि ध्यान से देखा जाय तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कला में शायद आधुनिक वैचिव्यवादी तत्वों के बीज निहित थे। नन्दलाल बसु ने इनकी कला की कहा था-कि ष्जितना अधिक मैं रवीन्द्रनाथ के चित्रों को देखता हूँ उनना ही यह विश्वास दृढ़ होता जाता है कि रवीन्द्रनाथ के भीतर एक महान् प्रतिभासम्पन्न कलाकार है। उनकी चित्रकला में व्यंजना की नई प्रणाली है। 
रवीन्द्रनाथ की कला में हम उन रूपगुणों को देख सकते हैं--जो महान् कला के लिए आवश्यक हैं-विशेष रूप से उममें शक्ति और नाजगी का वह महान् गुण है जो पुरातन को नूतन बनाता है। उनके चित्रांकन को हमें एक प्रतिभाशाली की तरंग या भ्क्तक नहीं कहना चाहिए।ष्
रविन्द्रनाथ ठाकुर सन 1941 ई० मे स्वर्गवासी हो गए।
इनके कुछ प्रसिद्ध चित्र:- सी;(वह) , पत्र लिखती स्त्री ,थके हुए यात्री ,सफेद धगे ,प्राचीन काना फूसी ,नारी ,वन मे लोमडी ,लाफिंग फेस  अन्य

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