कला के विभिन्न स्वरूप

           (ब) कला के विभिन्न स्वरूप 

आदिम कला

आदिम कला शब्द विष्व के विभिन्न भागों मंे वनांे आदि में आदिम अवस्था में रह रही जनजातियों की कला के लिये प्रयुक्त होता है। शहरी सभ्यता से सुदुर स्थित इन क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों की कला का उद्गम प्रागैतिहासिक कला से ही माना जाता है। इस प्रकार आदिम कला का इतिहास उतना ही पुराना कहा जा सकता है, जितना मानव का इतिहास। मनष्ुय का प्रकृति से प्रथम साक्षात्कार हुआ उस समय से ही उसने निर्माण के तारतम्य से अपने जीवन को सुखी तथा समृद्ध बनाने की चेष्टा की और इस निर्माण कार्य के फलस्वरूप उसने ऐसी कृतियों का सृजन किया जो उसके जीवन को सुखद और सुचारू बना सकें। इसी समय से मनुष्य की ललित भावना भी जाग उठी और उसने अपनी मूक भावनाआंे को अनगढ़ पत्थरांे के यन्त्रांे तथा तूलिका से बनी टेढ़ी-मेढ़ी रेखा-कृतियांे के रूप मंे गुफाआंे और चटट्ानों की भित्तियांे पर अंकित कर दिया। उसके जीवन की कोमल भावनाएँ तथा सघ्ंार्षमय जीवन की संजीव झाँकियाँ आदि मानव की कलाकृतियांे के रूप में आज भी सुरक्षित हैं। आदि काल से आज तक मनुष्य रेखा तथा आकार, तक्षण तथा कर्षण के द्वारा अपनी भावनाआंे को व्यक्त करता चला आ रहा है। मानव ने रेखा और आकार के माध्यम से अपनी प्रकृति, आत्मा और युग का सदैव स्वागत तथा अकंन किया है। मानव की इन असंख्य चित्राकृतियों के आधार पर चित्रकला की आज एक निष्चित परिभाषा निर्धारित हो चुकी है।

 चित्र 1


इन चित्रांे में आदि-मानव का जीवन परिलक्षित हाता है। अतः पषु और पषुओं के आखेट दृष्य तथा जादू के विष्वास के प्रतीक चिन्हांे का चित्रण इस समय की कला का प्रधान विषय था।
इन चित्रांे में मानव ने अपने भावांे को सरल रूपांे तथा ज्यामितीय आकारों मंे संजाया है। यह कृतियाँ आदि मानव की बाल-सुलभ प्रकृति की उत्तम झाँकी है।ं इन चित्रों में प्रागैतिहासिक युग के मनुष्य का सम्पूर्ण इतिहास संचित है। इन चित्रों की सीमा रेखाएँ, गतिषील हैं, यद्यपि चित्र असंयत और सरल हंै। जिसमें सांभर, बाहर-सिंगा, महिष, गैंडा, हाथी, घोड़ा, सुअर जैसे पषुओं का स्वाभाविकता के साथ अंकन किया है।
 
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उत्तराखण्ड, आन्ध्रप्रदेष, बिहार, बंगाल, गुजरात, कनार्टक, केरल, मध्यप्रदेष, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, राजस्थान व तमिलनाडु आदि मंे लगभग 75 आदिम जनजातियाँ निवास करती है।ं जिन्होनें अपनी परम्परागत कलात्मक विषिष्टताओं को बनाए रखा है। 




लोक कला

भारतीय ‘लोककला’ संस्कृति के आदर्षाें का स्वरूप है। वस्ततु: लोक कलाएँ संस्कृित की जननी भी हैं और पाष्ेाक भी। देषकाल और परिस्थिति के अनुरूप सामाजिक मूल्यों, मान्यताआंे आरै परम्पराओं मंे शनै-षनै होने वाले परिवर्तनांे व संवद्धर्न को भी लोक कलाएँ प्रतिबिम्बित करती हैं। हमारी परम्परागत लोक रूचियों को जीवित रखने के लिए भारत के विभिन्न प्रदेषांे मंे लोक कलाआंे ने जो अद्भुत कार्य किया है विज्ञान और दर्षन की दृष्टि से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।
किसी भी विषिष्ट स्थान की लोक कलाएँ उस विषिष्ट स्थान की लोक संस्कृित पर आधारित होती हैं। लोक कलाआंे की उत्पत्ति के स्त्रोत, कुछ महत्वपूर्ण कारक हैं। 

लोक कला किसी विषिष्ट व्यक्ति द्वारा सृजित नहीं हाती। यह सामाजिक एवं अनुष्ठानिक प्रक्रियाओं के बीच प्रस्फुटित हुआ वह वृक्ष है, जो धीरे- धीरे सामाजिक पोशण प्राप्त कर पल्लवित एवं फलित होता है। यह सबकी सम्पत्ति ह,ै किसी व्यक्ति विषेष की नहीं। यह निरंतर व्यवहार से इतनी प्रिय व पूजनीय बन जाती हंै कि यह विषिष्ट अनुष्ठानों, सांस्कृितक पर्वों एवं उत्सवों का प्राण बन जाती है। लोक कलाकार किसी चित्रषाला में जाकर षिक्षा नहीं प्राप्त करता और न ही किसी दुरूह सिद्धांत व शैली की जटिलता में नहीं पडत़ा है। जन्मजात कौषल ही उसका सर्वस्व है। उसके आँगन में ही उसे सभी उपयुक्त कला सामग्री मिल जाती है। वह सर्वमान्य रंग रेखाओं के साथ अपने सीधे-सादे लोगों के लिए चित्र निर्माण करता है। 
प्रायः सभी हस्त-निमिर्त वस्तुओं एवं धार्मिक अनष्ुठानों मंे एक कलामय सीधी-सादी कला का प्रकटीकरण होता है एवं कदली वृक्ष, पीपल वृक्ष, तोरण द्वार, चक्र, सूरज, चाँद, तारा, मछली, जल, घट, पत्ते, मोर, बेल, आम, आड़ी-तिरछी रेखाएँ, वृत, लहरिया, त्रिभुजों व वर्गों से बनी ज्यामितीय मानवाकृितयाँ, घोड़-हाथी, तलवार-ढाल, भाला आदि प्रचलित रूपों को संयोजित किया जाता है और यह संयोजन हाता है कहानी के अनसुार। रंग जो मिल जाए या जिसे स्त्रियाँ तैयार कर लें, तूलिका रूई की बनी हुई, पन्नी, कोयला, हल्दी, चावल व गोंद का लेप, सूखे रंगंीन पाउडर व मिट्टियाँ, रंगीन कपड़े, गोबर की टिकलियाँ, मुलतानी मिट्टी, पान-पत्ती, धागे, कलावा आदि सभी वस्तुएँ मांगलिक पर्वानुसार प्रयोग की जाती हंै।

माँडना: राजस्थान की विविध जातियों द्वारा विभिन्न अवसरों पर घरांे की भित्तियों या फर्ष पर बनाए जाने वाले आलकंारिक रूपाकार।
गोदना: विविध जातियों द्वारा शरीर पर बनाए जाने वाले रूपाकार।
चित्राम: मेवाड़ क्षेत्र मंे मांगलिक अवसरों पर भित्तियांे पर बनाए जाने वाले रूपाकार।
फड ़ः भीलवाड़ा, शाहपुरा, क्षेत्र मंे लोक देवताओं की जीवन गाथाओं को प्रस्तुत करने वाले कपडंे़ पर बने चित्र जिन्हें लोक गायन की शैली में पढ़ा जाता है।
कावड़: लकड़ी का छाटे आकार का मंदिर जिसके कपाट पर विविध हिस्सांे पर विभिन्न देवताओं की गाथाएँ बनी होती हंै एवं जिन्हें अनष्ुठान के रूप में प्रदर्षित किया जाता है।
मिट्टी का काम: लाके देवी देवताओं व लोक जीवन से जुड़े पक्ष पर मिटट्ी का काम। इसमें खिलौने भी बनाए जाते हंै।

लोक जीवन से जडु़ी लोक कलाआंे मंे, लोक मंे व्याप्त प्रतीकांे को सहज ही देखा जाता है। इनमें लाके जीवन पूरी तरह प्रकट हाता है। इसका उदाहरण राजस्थान के माँडनों मंे देखा जा सकता है। माँडना भूमि अलंकरण होता है। धरती पर आलेखित किये जाने वाले लोकचित्र, माँडने जगत की मांगलिकता के प्रतीक हैं। प्रेम व आनन्द के प्रतीक हैं। जिनमें लोक मंगल, लोक रंजन, अलंकरण, चरित्र व अन्य प्रतीक स्पष्ट दिखाई देते हैं।


भित्तिचित्रण परम्परा

भारत मंे भित्तिचित्रण कला की समद्धृ परम्परा प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होकर लोक कला या आदिम कला के रूप में पल्लवित हाती हुई अजंता की गफुाओं मंे अपने चरम विकास पर पहुँची।
भारत में जोगीमारा गुफा के चित्र भित्ति चित्रण परम्परा के प्रथम उदाहरण है। इनमें आरम्भिक काल के भित्तिचित्र बने हंै। जोगीमारा के बाद अजन्ता मंे भित्तिचित्रण परम्परा प्राप्त होती है। महाराष्ट्र प्रान्त में औरंगाबाद के पास अजन्ता के गुफा मन्दिरांे का निर्माण हुआ। यहाँ स्थापत्य के साथ-साथ मूर्तिकला एवं भित्तिचित्रण कला की भी उन्नत परम्परा विकसित हुई।

अजन्ता के समान समृद्ध चित्रण परम्परा से युक्त पाँचवीं व छठी शताब्दी में बने बाघ गुफाओं के चित्र भी कलात्मक एवं तकनीकी दृष्टि से उच्च कोटि के है।
बम्बई प्रान्त मंे आइहोल नामक स्थान के पास बादामी में चालक्ुयों द्वारा निमिर्त गुफामंदिरों मंे भीं भित्तिचित्र मिले हैं। कला की दृष्टि से ये भी अपने काल के उत्तम चित्र थे।
मद्रास में तंजोर के पास सित्तनवासल नामक स्थान है। यहाँ शक्तिषाली पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन् प्रथम (600-625 ई.) द्वारा बनवाये गुफा मन्दिर हैं। इनकी भित्तियांे पर भी बहुत सन्ुदर चित्र बने हैं, जिनकी शैली अजन्ता के समान है, सिŸानवासल के कुछ चित्र जैन धर्म से सम्बन्धित भी हंै। यहाँ की भित्तिचित्र परम्परा भी विषुद्ध भारतीय रूप में विकसित हुई। ‘वेरूल’ अथवा ‘एलोरा’ अजन्ता से लगभग 50 मील दूर स्थित हंै। यहाँ के षिल्पियांे ने पूरी पहाड़ियों को ही मन्दिरों एवं गुफा मन्दिरों मंे भित्तिचित्र पाए गये हैं।
राजस्थान मंे भी महलांे, हवेलियों आदि में एक भित्तिचित्रण परम्परा विकसित हुई। फ्रेस्को बुनो राजस्थान की भित्तिचित्रण की विधि को आराइष या आलागीला कहा जाता है। इसमें गीली भित्ति पर चित्रण किया जाता है। राजस्थान में जयपुर, बूंदी, कोटा, जोधपुर, बीकानेर एवं शेखावाटी क्षेत्र अपने भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध हंै।


लघु चित्रण परम्परा

अजन्ता, बाघ आदि के भित्ति चित्रों के बाद भारत में 9वीं शती मंे पाल व जैन शैलियाँ आरम्भ हुई। जिनमें ताड़ पत्रों पर छोटे चित्र बनाए गये। बाद में यह चित्र कागज के ऊपर भी बनाये गये। राजपूत शैली, मुगल शैली और समकालीन शैलियांे मंे कागज (वसली) पर बनाये गये लघु चित्रों की परम्परा का ही विकास हुआ। इस प्रकार भारत मंे लघु चित्रों का प्रारम्भ जैन एवं अपभ्रंष शैली के चित्रों से माना जाता है। मध्यकाल (15वीं से 18वीं सदी) भारतीय लघु चित्रण का स्वर्णिम काल था जिसमें मुग़ल, राजपूत एवं पहाड़ी आदि शैलियाँ सम्मिलित है।ं राजस्थान मंे मेवाड़, मारवाड,़ कोटा, बूँदी, जयपुर एवं किशनगढ़ आदि।
क्षेत्रों मंे लघु चित्र परम्परा विकसित हुई। प्रारम्भ में लघु चित्र ताड़ पत्रांे के ऊपर चित्रित किये गये। जिनमें रंगों का प्रयोग हुआ। कालान्तर में लघु चित्रांे को मुख्यतः ‘वसली’ पर बनाया जाने लगा ताकि ये लम्बे समय तक स्थाई रह सके।

सामग्री एवं उपकरण

(क) वसली: वसली वास्तव मंे हाथ से बना कागज होता है। इसमें कई कागजों की पतली-पतली परतांे को लेई से चिपका कर तैयार किया जाता था। लघुचित्रों मंे अनेक प्रकार के कागजांे का प्रयोग हुआ जैसे सियालकोटी, हरीरी, गौनी, तब्रेजी व सांगानेरी आदि। जयपरु में पोथीखाने मंे अनेक पुस्तकों में इन कागजांे की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
(ख) ब्रष: प्रायः कलाकारांे द्वारा गिलहरी की पूँछ के बालों की ब्रष का प्रयोग किया जाता था।
(ग) रंग: इस पद्धति में विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता था, जैसे - पीला, पेवड़ी एवं हरिताल, लाल हिंगलू, गेरू, महावर एवं सिन्दूर, नीला-नील, काला काजल, हरा, सफेद-खड़िया एवं सोना व चाँदी (जो विषेष विधि से तैयार किये जाते हंै) आदि रंगों का प्रयोग हुआ है।
(घ) प्रविधि: लघुचित्रण परम्परा मंे चित्र निर्माण की प्रक्रिया में एक विषष्ेा
अनुक्रम का प्रयोग किया गया जो निम्न प्रकार है।

1. आबीना - केवल जल में ब्रष को भिगोकर रेखांकन करना (सूखे कागज पर पानी की रेखाएँ स्पष्ट होती हैं जो             कि चित्र के प्रारूप को निर्धारित करने में सहायता करती है।) आब = जल, बीना = देखना
2. खाका = जलीय रेखाआंे के आधार पर हल्के लाल रंग से रेखाकंन करना।
3. रंगमेजी = रंग भरना (इसके भी दो क्रम होते थे) 

        अ. दागीना - चित्र के विविध भागों जैसे आकृति, आकाष, वृक्ष, वनस्पति, वेषभष्ूाा आदि को उसमें लगाये                    जाने वाले रंगों से चिन्हित करना।
        ब. पोतना - (भरना) - चिन्हित किये गये रंगों से उस भाग में रंगों को भरना।
4. गोलाई - रंगों की हल्की व गहरी तानों से गोलाई उभार दिखाना।
5. साया सुसमा - शेडिंग 
        अ. साया = गहरी तानों की रख्े ााओं से छायांकन का प्रभाव उत्पन्न करना।
        ब. सुसमा = विभिन्न रंगों से किसी वस्तु में उभार का प्रभाव उत्पन्न करना।
6. सिया कलम - स्याही का प्रयोग चित्र में आवष्यकतानुसार स्याही की रेखाओं का प्रयोग करना।
7. गुलापाम्बा - आभूषणांे में पीले व सफदे रंगों का प्रयोग करना।
8. सुफेदा = आँख के तारे व मोतियों आदि के आभूषणों में गाढे़ सफेद रंग का प्रयोग।
9. ज़रब = चित्रों मंे बहुमूल्य एवं मध्य बहुमूल्य रत्नों जैसे मोती, माणक, पन्ना आदि का प्रयोग करना, जयपरु              शैली के अनके चित्रों मंे इस प्रकार के रत्नों का प्रयोग होता है।



 

 

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