(अ) कला का अर्थ एवं परिभाषा
कला का अर्थ -
कला संस्कृति की सुन्दरतम् अनुभूति है। जो संस्कृति जितनी उदार होती है, उसकी कला में उतना ही सूक्ष्म सौन्दर्य सहज साकार हाते है। उदात्तता की दृष्टि से प्राचीन भारतीय संस्कृति विष्व मंे श्रेष्ठ है।
अनादिकाल से ही कला के प्रति मानव के हृदय में स्वाभाविक आकर्षण रहा है। कला मानव आत्मा के बाह्य आरै आन्तरिक संसार के प्रभाव की प्रतिक्रिया है, इसलिए वह आत्मा की अभिव्यक्ति है।
कला की अभिव्यक्ति मंे सामान्यतः तीन तत्व कार्य करते हैं-
1. सौन्दर्य के प्रति मानव का स्वाभाविक आकर्षण और सौन्दर्य को स्वतः उत्पन्न करने की भावना।
2. ससंार की वस्तुओं, दृष्यांे एवं आकृतियों का अनुकरण और उनकी यथार्थ प्रतिकृति करने की भावना।
3. कलाकार के द्वारा अनुभूत भावनाआंे को मूर्त रूप में अंकित करके दूसरों के लिए व्यक्त करने की प्रवृत्ति।
प्रथम प्रकार की कला में सन्ुदर आकृति ही सब कुछ है। अतः इस प्रकार की कला अधिकांष में आकृतिमूलक है। दूसरे प्रकार की कला मंे पहले से उपस्थित किसी वस्तु की अनुभूति प्रस्तुत की जाती है। जो प्रतिकृतिमलूक है और तीसरे प्रकार की कला पूर्णतः अभिव्यंजनात्मक है। उसमंे आकृति का आकार, रंग-रूप आदि सब गौण है। उसकी सफलता इसी में है कि कलाकार जिस भावना को व्यक्त करना चाहता है, उसे कितने सषक्त रूप में व्यक्त कर सकता है।
कला शब्द से तात्पर्य है स्पष्ट अभिव्यक्ति। ‘‘कंलाति’’ अर्थात् सुख प्रदान करने वाली मधुर कृति भी कहलाती है।
कला शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद के आठवें मण्डल में ‘‘यथा कलां यथा शफ’ं’ के रूप में प्रयक्ुत हुआ भारत मंे प्राचीन काल में कला के लिए षिल्प शब्द का भी प्रयोग हुआ। भरतमुनि ने अपने नाटय् षास्त्र में षिल्प आरै कला दोनांे शब्दांे का अलग-अलग प्रयोग किया।
‘‘न तज्जानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न साकला।’’
भारतीय दर्षन मंे कला को ‘‘सत्यं, षिवम,् सुन्दरम्’’ रूप में माना गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का मानना है कि ‘‘जो सत्य है, जो सुन्दर है, जो कल्याणकारी है वही कला है। गाँधी जी ने कला को आत्मा का ईष्वरीय संगंीत कहा है। भारत मंे जीवन से जुडे़ प्रत्येक कार्य को कला मानते हुए कलाआंे की सख्ंयाएँ निर्धािरत की गई हैं। जैसे वात्स्यायन के कामसूत्र में (64) चैंसठ, ललितविस्तर में (86) छियासी, शुक्रनीतिसार में (64) चांैसठ कलाओं एवं प्रबन्धकाश्ेा में (72) बहत्तर प्रकार की कलाआंे का वर्णन प्राप्त होता है।
कला की परिभाषाएँ
कला कल्याण की जननी है। इस धरती पर मनुश्य की उदयवेला का इतिहास कला के ही हाथों से लिखा गया। विष्वात्मा की सजर्नाषक्ति होने के कारण सृष्टि के समस्त पदार्थाें मंे कला का आधार है। कला अनन्तरूपा है। प्रकृति की प्रत्येक रचना तथा जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप में कला दृष्टिगोचर होती है। यह जीवन का अनुपम और अमूल्य अंग है। कला के संबंध में समय-समय पर विद्धानों ने अपने विचार दिए हंै। यथा नन्दलाल बसु के शब्दों मंे, “कला आनन्द की अभिव्यक्ति है।“ कलाकार अपने मानस मंे जो आनन्द अनुभव करता है, उसी को अनुभव करने के लिए वह रचना करता है।
वस्तुतः मनुष्य अपनी इन्द्रियों व मन द्वारा, बाह्य जगत की समस्त वस्तुओं का स्थूल ज्ञान एवं उनके प्रति रसानुभूति का अनभ्ुाव करता है और उसे ही कला के माध्यम से दूसरों के सामने प्रदर्शित करता है। कला केवल मनुष्य तक ही सीमित नहीं है। पषु-पक्षी और कीट पतंगों के क्रिया-कलापों मंे भी कलात्मकता परिलक्षित होती है। ईष्वर की रचना में मानव को सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता है। अतः उस मंे कला के प्रति रूझान हाना स्वाभाविक है। इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप वह चित्र रचना करता है।
कलंाति अर्थात् सख्ुा प्रदान करने वाली मधुर कृति कला कहलाती है, किन्तु इसके साथ-साथ ‘कला’ शब्द का सामान्य अर्थ कुषलतापर्वूक किया गया कार्य हाता है।
कला का वर्गीकरण
प्राचीन काल में ‘‘षास्त्रांे’’ में (64) चैंसठ प्रकार की मूल कलाआंे व कालान्तर मंे दृष्य कला, ललित कला तथा षिल्प कला में वर्गीकृत र्हइु। जिसे आधुनिक काल में कलाआंे को ललित कला षिल्प कौषल आदि के नामों से जाना जाता है। मानव जीवन के जितने भी क्रिया-कलाप व चष्ेटाएं हंै वे सब कला के अन्तर्गत ही आती हैं। सामान्यतः कला के गुणों के आधार पर दो वर्गाे मंे विभाजित किया गया है-
1. ललित कला
2. उपयागी कला
ललित कला का सम्बन्ध, सौन्दर्य बोध व आध्यात्मिक चेतना से है जबकि उपयोगी कला का लक्ष्य मानव की भौतिक आवष्यकताओं की पूर्ति से है। यदि कलाकृति बौद्धिक सौन्दर्य से सम्बन्धित है तो वह ललित कला वर्ग में रखी जाएगी और यदि कृति भौतिक सौन्दर्य से सम्बन्धित है तो वह उपयोगी कला वर्ग में रखी जाएगी।
कला
ललित कलाएँ (व्यावसायिक) उपयोगी कलाएँ
उपयोगी कला के अन्तगर्त एक प्रकार की अनेक कृतियों का सजृ न किया जाता है परन्तु ललित कलाओं मंे मौलिकता व रचनात्मकता पर विषेश ध्यान दिया जाता है। ललित कला का उद्देष्य अभिव्यंजना के साथ-साथ आनन्द की प्राप्ति है। तात्त्विक दृष्टि से इन कलाआंे के विषिष्ट गण्ुा होते हंै और इन गुणों को ही आधार मान कर यह विभाजन किया जाता है एवं ललित कलाएँ मानव के सौन्दर्य, संस्कृति एवं आनन्द पक्ष से जडु़ी हाती हैं। ललित कलाआंे के अनेक स्वरूप एवं पक्ष माने जाते है एवं उनकी प्रकृति के आधार पर उनके विभाजन किए जाते हंै।
ललित कलाएँ
ललित शब्द से ही ‘ललित कलाओं’ की उत्पति हुई। ललित कलाआंे का विभाजन निम्न प्रकार से भी किया जाता है-
दृष्य कलाएँ रुप पर आधारित कला है इसलिये इन्हें रूपात्मक कलाएँ आरै मंचीय कलाएँ गति पर आधारित कला है, इसलिये इन्हंे गत्यात्मक कलाएँ या प्रदर्षनकारी कलाएँ भी कहा जाता है।
उपराक्ते कलाआंे की सामान्य विषेषताएँ निम्न है -
1. चित्रकला: भाव-तत्त्व, विचारों तथा कल्पनाओं को प्रकटीकरण करने की कला अर्थात व्यंजनाश्रित कला।
2. मूर्तिकला: भाव व सामग्री द्वारा रूप व्यंजित करने की कला अर्थात रूपाश्रित कला।
3. वास्तुकला: मानव मन की उच्च आकांक्षाओ,ं विषाल योजनाओं को भौतिक माध्यमों द्वारा प्रकटीकरण करने की कला अर्थात आकाराश्रित कला है।
4. संगीतकला: स्वर, गीत व वाद्यांे के द्वारा सार तत्त्वों को स्वरांे- तालांे- लहरियांे - ध्वनियांे के माध्यम से प्रस्तुत करने की कला अर्थात स्वराश्रित व ध्वनि आश्रित कला।
5. नाटय् कला: अंग-संचालन, गीत, भाव और ताल के समन्वय को ऐन्द्रिक भावों द्वारा प्रस्तुत करने की कला अर्थात मुद्राश्रित कला।
6. नृत्यकलाः भावाभिनय,गायन-वादन,संगीत-नृत्य के सम्बन्ध-भावनाओं को प्रस्तुत करने की कला अर्थात अभिनयाश्रित कला।
व्यावसायिक कला
कला का उपयोग जब जीवन से सम्बन्धित हाता है अथवा कलाएँ जब जीवन-उपयोगी किसी कार्य में प्रयुक्त होती है या उपयोगिता का ध्यान रख कर जब वस्तुओं मंे सजावट की जाती है तो वह उपयागी कलाएँ कहलाती हैं। उपयोगी कलाएँ व्यावसायिक व भौतिक जगत से सम्बन्धित हाती है। उपयोगी कलाएँ किसी व्यवसाय, उत्पादक व उपभोक्ता से जुड़ी हाती है। चाक्षुष तत्त्व का ध्यान रख इस कला का विभाजन निम्न प्रकार से किया गया है -
उपरोक्त कला व्यक्ति की मूलभूत आवष्यकताओं की पूिर्त के लिए प्रतिदिन काम आने वाली भौतिकवादी वस्तुओं को एक कला रूप मंे प्रस्तुत करती है। जिसमें वस्तु को सुन्दर, कलात्मक छवि के साथ अभिव्यक्ति भी समाहित हाती है। साधारण शब्दों मंे हम यह कह सकते हंै कि उपयोगी कला किसी उद्देष्य को लेकर तैयार की गई कला है, जो व्यक्ति के व्यावहारिक ज्ञान को प्रभावित करती है तथा यह जानकारी दती है कि उसके खाने-पीने, पहनने एवं उपयागे के लिए कौनसी वस्तुएँ उपयोगी एवं उपयुक्त हंै।