मुकुल चन्द्र दे का जन्म सन 1895 ई० मे कलकत्ता मे हुआ था मुकुल दे ग्राफिक चित्रकार, प्रिंटमेकर थे। महान कलाकार अपनी कृतियों की अमिट छाप विश्व में छोड़ जाते हैं । कुछ तो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न होते हैं, कुछ अपने प्रयास से बनते हैं और कुछ परिस्थितियों के वशीभूत होकर कलाकार बनने के लिये वाध्य होते हैं। सौभाग्य से मुकुल चन्द्र दे परिवार में सारी सन्तति कला की सहजात प्रवृत्ति एवं ष्ष् अन्तश्चेतना को लेकर प्रकट हई। परिस्थितियों ने श्तो उनका साथ दिया ही, समकालीन कलाचार्यों से भी उन्हें समयानुकूल पथ-प्रदर्शन मिला।
मुकुल चन्द्र दे की सृजन-प्रतिभा विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर और कलागुरु अवनीन्द्रनाथ ठाकुर इन दो महान् कलाचार्यों की छाया तले पनपी थी। जब मुकुल चन्द्र दे शांति निकेतन में थे तो विश्वकवि के साथ इन्हें जापान और अमेरिका जाने का सुअवसर मिला था। जाॅन फ्रान्सिस्को, शिकागो और न्यूयार्क में इनके चित्रों की प्रदर्शनियाँ हुईं, तत्पश्चात् इन्होंने लंदन में श्स्लेड स्कल ऑफ आर्टश् में सर मरहेड बोन, हेनरी टोंकस और रसेल के तत्त्वावधान में कला की शिक्षा प्राप्त की। रायल कालेज ऑफ आर्ट, साउथ केमिंगटन में सर विलियम रोथेस्टाइन की देखरेख में ये कला का अध्ययन करते रहे। रायल एकेडमी और श्न्यू इंग्लिश आर्टश् क्लब में इनकी कला-कृतियाँ प्रदर्शित की गई और उन्हें खूब सराहा गया। विदेशों में रहकर इन्होंने कलात्मक उपयोगिता के हर पहल पर मनन किया और यूरोप के उच्च कोटि के चित्रों और पाश्चात्य कला की टेकनीक को बड़ी ही बारीकी एवं गहरी आलोचनात्मक दृष्टि से समझा-बूझा। जापान जाकर मुकुल दे की कला पर तैकवान और क्वान्जान के नेतृत्व में हुए कला-आन्दोलनों का प्रभाव पड़ा था। इनके रंग एवं रेखाओं के प्रयोग पर और सामान्य वस्तुओं को अत्यन्त चमत्कृत रूप में चित्रित करने की पद्धति पर जापानी कला की गहरी छाप है । अमेरिका के प्रवास में श्इंचिगश् कला ने इन्हें विशेष प्रभावित किया और शीघ्र ही उसमें इन्होंने दक्षता भी प्राप्त कर ली। ये इचिंग कलाकारों की शिकागो सोसाइटी के सदस्य बना लिये गए जो एक भारतीय के लिए प्रथम बार इस सम्मानित पद को प्रदान करने का अवसर दिया गया था। अपनी दूसरी लम्बी यूरोप यात्रा पर जाने से पूर्व एक बार बीच में ये भारत लौट आए थे, तत्पश्चात् लंदन के श्स्लेड एण्ड केंसिंगटन स्कूल्स आफ आर्टश् से कुछ समय के लिए ये सम्बद्ध हो गए।
वेम्बले प्रदर्शनी के समय इन्हें भारतीय कला-कक्ष की सुसज्जा का भार सौंपा गया। इससे इनकी ख्याति लंदन के कला-जगत में भी हो गई। इन्होंने वहाँ स्टूडियो खोल लिया जिसमें इन्होंने अपनी व्यक्तिगत इचिंग कलाकृतियों की प्रदर्शनी खोल ली। भारतीय कला-परम्परा में इचिंग बिल्कुल नई चीज थी। मुकुल चन्द्र दे ही कदाचित् अकेले थे जिन्होंने इस दिशा में बड़े ही प्रभावशाली ढंग से कार्य किया । परिणामस्वरूप सारे यूरोप में ये प्रसिद्ध हो गए। कला के इस रूपान्तरण में कुछ इनकी सीमाएँ थीं, भारतीय विन्यास की प्रकृति का अन्तर तो था ही, तथापि एक कलाकार होने के नाते इस कार्य को सीखने एवं सम्पन्न करने में इन्होंने अपनी सुरुचि एवं सूक्ष्म बुद्धि-चातुर्य का अभूतपूर्व परिचय दिया। यों भी प्रारम्भ से इनकी शिल्प दृष्टि अतिशय ग्रहणशील और व्यापक थी। यूरोप जाने से पहले जीवन और कला सम्बन्धी इनके दृष्टिकोण पर्याप्त परिपक्व हो गए थे । वस्तुतत्त्व और रूपविधान इन दोनों के आन्तरिक सामंजस्य में गांभीर्य ओर प्रभावपूर्ण एकता आ गई थी। यही कारण है कि विदेश जाने पर धातु के बारीक रेखांकन के बाह्य रूप का भेदन करके ये उसके अंतर्निहित चिरंतन रूप को भाँप सके । अपने देश की सांस्कृतिक भावधारा से संजीवित होकर इनकी दृष्टि अन्य प्रभावों को भी सूक्ष्मता से पकड़ सकी। सामान्यतः रेखाएँ अर्थात धातू पर कोरी गई लाइनें सहज ही स्पष्ट नहीं हो पातीं कि कहाँ से उनकी सीमा प्रारम्भ होती है और कहाँ जाकर वे जीवन के सभी व्यक्त पहलुओं को व्यंजित करती हुई कलात्मक उपकरणों को समेटती हैं । जहाँ तक ये रेखाएँ पहुँच पाती हैं, जिन-जिन पार्थिव उपादानों को वे अपने आप में उतार सकती हैं, उन्हीं-उन्हीं वस्तुओं को कला की पारस मणि से स्पर्श कर स्वणिम बना देती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इचिग कला का रहस्य शलाका की नोंक पर रहता है। अग-जग के छोर से स्वप्न उड़-उड़ कर कलाकार के पास आते हैं और उसकी रेखाओं में उभर कर सजीव हो जाते हैं । ये रेखाएँ जीवित होती हैं, चलती फिरती हैं, भूतल के दृश्थ और दृश्येतर जगत् का कम्पन इनमें व्यक्त होता है। इचिंग कला की यह विशेषता है कि उसकी पद्धति, उसका ढंग, उसकी टेकनीक पृथक है । रेखाएँ विषय के साथ आत्मसात होकर टेकनीक की रचना करती हैं, यदि इस टेकनिक का ज्ञान नहीं है तो रेखाएँ निरर्थक हैं । ऐसी रेखाओं की न तो कोई यथार्थ व्याख्या हो सकती है और न उनका तारतम्य ही जुड़ पाता है। इचिंग रेखांकन की विशेषता जीते-जागते कलात्मक प्रतिरूपों को उभारने में है। रेखाओं की स्वयं कोई हस्ती नहीं, वे एक कल्पना की ओर इंगित करती हुई उनसे व्यंजित प्रभाव में लुप्त हो जाती हैं। रंगों को उपयोग में लाये बगैर ही उनकी अनुभूति करानी पड़ती है और विच्छिन्न रेखाओं में गति और लय भरकर कला के महान सत्य का भाव-निदर्शन किया जाता है।
मुकुल दे की इचिंग कलाकृतियों में इन सभी गुणों का समावेश है । "अजंता को राह पर". "चाॅदनी रात में गंगा" और "पवित्र वृक्ष" आदि आदर्श कलाकृतियाँ हैं। इनकी मौलिक कलाकृतियों में भी अजन्ता और जापान की कला का प्रभाव द्रष्टव्य है। यह प्रभाव इनकी मौलिकता को अपहृत करने वाला नहीं, अपितु समन्वित होकर नवीन वातावरण की सृष्टि करने वाला है, लेकिन इसके बावजूद उनका व्यक्तित्व बिल्कुल पृथक् दिखाई पड़ता है। इससे पूर्व अजंता और बाघ गफाओं में भ्रमण करने के फलस्वरूप मुकुल दे को सुन्दर लहरदार लिखावट का भी अभ्यास हो गया था, किन्तु इनकी कलात्मक प्रतिभा का सम्यक विकास तो स्लेड और साउथ केसिंगटन में सर बोन, हेनरी टोंकम और सर विलियम रोथेस्टाइन जैसे कलाविदों के तत्त्वावधान में ही हुआ । सुस्क रंगों के प्रयोग में इन्होंने कमाल कर दिखाया। विदेश लौटकर इन्हें कलकत्ता स्कूल ग्राफ आर्ट के प्रिंसिपल पद का दायित्व-भार सौंपा गया जिससे सन 1944 में इन्होंने अवकाश ग्रहण किया।
अपनी कला में कितने ही देशी-विदेशी प्रभावों को प्रात्मसात कर इन्होंने उसकी सहज गति को विकसित किया और उसके भावोत्कर्ष में वृद्धि की है। समस्त बाहरी प्रभाव इनके चित्रों की लय और भाव व्यापार में लीन हुए से ज्ञात होते हैं। इनकी कलाकृतियाँ, खासकर पोट्र-चित्रों में, अति सूक्ष्म रेखांकन रूपातिशय्य और सांकेतिक परिपूर्णता विद्यमान है। इनके द्वारा निर्मित रवीन्द्र नाथ ठाकुर और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के पोर्टेट-चित्र बड़े ही भव्य बन पड़े हैं । उनका अन्तविधान संतुलित है और वे कलात्मक पूरक संयोजना को लिये हुए अखंडित एकत्व और रंगों की कोमल अनुभूति से ओतप्रोत हैं। विदेशों में रहने से मुकुल दे का कला-क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया था, अतएव नये विषयों के साथ नई कल्पना, नये माध्यम और नई शैलियों का उपयोग इन्होंने किया। काले और श्वेत रंगों में डा०एनीबेसेंट, सर सुब्रह्मण्यम, बी० पी० वाडिया, हरीन चट्टोपाध्याय, मैसूर की वीणा सेषन्ना और कुछ अन्य लोगों के चित्रों के सेट में इनकी सूक्ष्म चारित्रिक पैठ का परिचय मिला। इन्होंने कुछ खास विशिष्ट बंगालियों के पेंसिल स्केच भी बनाये जो काफी प्रसिद्ध हुए । जापान की सुप्रसिद्ध ऊकियो कला तथा वुडकट छापों के आधार पर इन्होंने अपनी यात्रा में मिले अनेक जीवनप्रसंगों और दृश्यों का चित्रांकन किया। अमेरिकन श्इचिंगश् पद्धति से प्रभावित होकर जहां एक ओर इनकी कला में रेखाओं का संकोच और स्वीकारात्मक समता है, दूसरी और अजन्ता की छलकती शृंगारिता ने इनमें रूमानी सौंदर्य-गरिमा जाग्रत की है। शकुन्तला और नृत्य करती बालिकाओं में क्लासिकल निर्माण-शैली अपनाई गई है, फिर भी हल्के श्राृंगारिक तत्त्व उभर आए हैं। मुकुल दे की खूबी है--चित्रशिल्प की सादगी, वातावरण के चित्रण में स्वल्प प्रसार होते हुए भी प्रासंगिक चारुता और अविभाज्य स्वतरूपूर्ण व्यष्टि। इनके चित्र "विक्टोरिया एण्ड एलबर्ट म्यूजियम लन्दन", "ग्लासगो पार्ट गैलरी", "फिलडेल्फिया म्यजियम" और "प्रिंस आफ वेल्स म्यजियम" को सुशोभित कर रहे हैं।
मुकुल दे के चित्रो का विषय:- बंगाल के नदी दृष्य, शास्त्रीय बाउल गायक, संथाल का ग्रामीण जीवन, बुक इलस्ट्रेषन, पोट्रेट आदि।
सन 1989 ई० मे इनका देहान्त हो गया
इनकी पुस्तकें:- माई पिलग्रेइमेजस टु , अजन्ता , फिफ्टीन ड्राई पाॅइन्ट , माई फस्ट ऐचिंग