असित कुमार हाल्दार {Asit kumar haldar}

असित कुमार हाल्दार

इस युग के युगान्तरकारी कलाकार श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर की छत्र छाया  में असितकुमार हाल्दार को भी अपने सहयोगी नन्दलाल वसु और सुरेन   गांगुली जैसे अनेक वरिष्ठ कलाकारों के साथ चित्रकला सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और आधुनिक भारतीय कला के प्रणयन एवं अनुशीलन में उन्हें उतनी ही एकनिष्ठ तपःसाधना भी करनी पड़ी थी । कला के बीहड़ पथ में भटकते हुए एक सुनिश्चित दिशा अपनाने में उन्होंने जो अनुभव संचय किये वे अधिकाधिक उनकी कला की परिपक्वता और गहरी पैठ में समाविष्ट होते गये । अनुभवजन्य गरिमा उनके सृजन को काल-निरपेक्ष चित्रात्मकता प्रदान करती गई जो पूर्वाग्रहों से सर्वथा मुक्त थी। यों कला की प्रगति में अपने समकालीन सहयोगियों के समान ही इनका हाथ रहा और इनके सृजन के महत्त्व को आँके बिना कला के क्रम-विकास के सूत्रों का सन्धान कदाचित कठिन ही नहीं, न्यायोचित भी न होगा।
सन् 1860 में जोड़ासाँको स्थित टैगोर-भवन के विचित्र कलामय वातावरण में इनका जन्म हुआ । अल्पावस्था में ही ग्रामीणों के पट-चित्रण से इनका बाल-प्रौत्सुक्य जगा और बाद में अपने दादा राखाल दास से, जो उस समय लन्दन यूनिवर्सिटी में संस्कृत के अध्यापक थे, इन्हें अपनी कलाभिरुचियों को विकसित करने में विशेष प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिला । पन्द्रह वर्ष की आयु में इन्हें कलकत्ता के गवर्नमेण्ट स्कूल आफ आर्ट में दाखिल करा दिया गया । उस समय ई० वी० हेवेल और आनन्दकुमार स्वामी-जैसे कलामनीषियों के सान्निध्य में कला के पुनरुत्थान की गतिविधियों पर इन्होंने दृष्टिपात किया और उन्हीं के कदमों का अनुसरण करते हुए अन्तर में संजोये संस्कार ही इनके परवर्ती जीवन में सृजन-प्रक्रिया की मूल अन्तःप्रेरणा बन कर उजागर हुए।
सन् 1910 में आंग्ल महिला लेडी हेरिंगहम के आमन्त्रण पर नन्दलाल वसु के साथ हाल्दार भी अजन्ता के चित्रों की प्रतिकृतियाँ तैयार करने के लिए भेजे गये । तत्पश्चात् 1914 में भारत सरकार के पुरातत्त्व-विभाग द्वारा, समरेन्द्रनाथ गुप्त के साथ, मध्यप्रदेश स्थित रामगढ़ पहाड़ी स्टेट में जोगीमारा गुफाओं का चित्रांकन करने का इन्हें आदेश हुआ। पुनरू 1917 में ग्वालियर स्टेट ने बाध-गुफाओं की जाँच-परख के लिए इन्हें आमन्त्रित किया । 1921में नन्दलाल बसु और सुरेन्द्र कार के साथ बाघ-गुफाओं के चित्रों की प्रतिलिपियाँ इन्होंने तैयार की। आज भी इनके द्वारा चित्रांकित ष्अजन्ता की प्रतिलिपियाँ साउथ केन्सिगटन म्यूजियमष् के भारतीय विभाग में, ष्जोगीमारा की प्रतिलिपियाँ भारत सरकार के पुरातत्त्व विभागष् में और ष्बाघ गुफाओं के चित्रों की प्रतिलिपियाँ ग्वालियर के पुरातत्त्व संग्रहालयष् में सुरक्षित रखी हैं। किन्त अनुकृति में इन्होंने अधिक समय नष्ट नहीं किया। शीघ्र ही ये मौलिक सृजना की ओर प्रवृत्त हुए।
1912 में आर्ट-स्कूल की शिक्षा समाप्त होते ही विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर इन्हें शान्तिनिकेतन ले आए थे। उस समय अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने जो इनके मामा थे, आश्वासन दिया था, ष्इसको मैं भली भाँति तैयार कर दूंगा । कलाकार होने के लिए उत्कट पर्यवेक्षण-क्षमता ही तो चाहिए।ष् लगभग 1912 से 1923 तक शान्तिनिकेतन के श्कला भवनश् में ये विश्वकवि के संम्पर्क में रहे । चित्रकला के क्षेत्र में ये अब तक काफी प्रख्यात हो चुके थे। इसी बीच जब महात्मा गान्धी शन्तिनिकेतन पधारे तो इन्होंने अपना श्बन्दिनीश् चित्र उपहार में देकर उनका अभिनन्दन किया।
जोडासाँको-भवन में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने नन्दलाल बसु, मुकुल डे और असित कुमार हाल्दार इन तीनों के सहयोग से श्विचित्राश् की स्थापना की थी। इसमें अवनीन्द्र नाथ ठाकुर, गगनेन्द्रनाथ ठाकुर, समरेन्द्रनाथ गुप्त और विश्व कवि के सुपुत्र रथीन्द्रनाथ ठाकुर भी विशेष दिलचस्पी रखते थे। उनकी उत्कृष्ट कलाकृतियों ने कला-साधकों का पथ प्रशस्त कर दिया था । असित कुमार हाल्दार में अद्भुत रूप-कल्पना थी, साथ ही चित्रण-सामर्थ्य और रंगों के नियोजन की जीवन्त प्रतिभा भी। वे कलाकार साधक और शिल्पी दोनों थे, फलतः उनके चित्र प्राणों के रस में डुबकर उतरने लगे। श्विचित्राश् में यदा-कदा उनके चित्रों की प्रदर्शनी तो होती ही थी, विश्वकवि की प्रशंसा और प्रोत्साहन भी उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे । उस समय के अपने हृदगत उद्गार व्यक्त करते हुए अमित हाल्दार ने लिखा हैे 
श्कभी-कभी एक प्रकार के अहंकार का अनुभव होता जब मैं देखता कि मेरी चित्रकला को देखकर गरुदेव मग्ध हो जाते हैं। मेरे अ्राँके हुए रेखाचित्रों पर उन्होंने कई गीतों की रचना भी की थी। श्चित्र-विचित्रश् शीर्षक से वे मेरे चित्रों के साथ उन कवितायों को प्रकाशित भी करना चाहते थे, पर उनकी यह इच्छा कुछ कारणों से पूरी न हो सकी।
जब कभी गुरुदेव मेरी प्रशंसा करते थे तो साथ ही सावधान भी कर देते थे-श्देख, तेरी बड़ाई तो कर रहा हूँ, पर पतन का मूल अहंकार ही होता है । समझ गया न?श् अनेक बार अनेक विपयों में मेरे ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए प्रश्नादि भी किया करते थे।ष्
असित कुमार हाल्दार की असाधारण प्रतिभा हर प्रकार की परिस्थितियों में व्यंजित होती गई। यद्यपि प्रारम्भ में श्बंगाल स्कूलश् की प्रचलित पद्धति पर ही उनकी कला का विकास हुआ, तथापि शनैःशनैः इनका रूमानी मानस चित्रविचित्र रंगों के संयोग से रेखाओं में ढलकर उसी भाँति उभरा जैसे भीतर आनन्द का ज्वार उमड़ कर कविता की पंक्तियों में फूट पड़ता है। उनके स्वप्न, उनके अन्तर्भाव, अद्भुत रूप और अभिनव रंगों में गुंजरित हो चित्रों की तन्द्रा में खो गये । हाल्दार ने प्रकृति और विराट मानवता को कवि की भावुक, उल्लसित दृष्टि से निहारा । उनके चित्रों में मूक्ष्म अनुभूतियाँ और संगीत का सा मार्दव व्यंजित हुआ। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, उनकी महजात सर्जक वृत्ति फारसी और मुगल शैली की नफासत लिये रूबाईयों के ढंग की सी चित्रात्मक कोमलता और काव्य के सौन्दर्य में प्रस्फुटित हुई। विश्वकवि ने अपने एक पत्र में इन्हें लिखा था, ष्तुम केवल चित्रकार ही नहीं हो, कवि भी हो । यही कारण है तुम्हारी तूली से रसधारा झरती है।ष्
अमित कुमार हाल्दार के चित्रों में पार्श्व से ऊपर की ओर उठने वाली धूमिल सी रेखाएँ और कोमल मृदु रंग कविता की तरह फैल जाते हैं । श्उसकी बपौतीश् चित्र में छिपते हुए मूर्य के सघन होते अन्धकार में एकाकी साधु की प्रतिच्छवि अंकित है । श्नये-पुरानेश् और श्बसंत-बहारश् में उल्फुल्ल बाल्यावस्था के साथ जर्जर वृद्धावस्था का बड़ा ही कचोटता हुआ तुलनात्मक दिग्दर्शन है । श्ताल और प्रकाश, श्नववधुश्, श्संगीतश्, श्असीम जीवनश् आदि चित्रों में आत्मा की गहराई उड़ेल दी गई है और मुसीबत के दिनों में एक हताश माँ, जो निर्धनता के कारण कलंकित जीवन बिताने को वाध्य हुई है, अपने असहाय बालक को अंक में चिपकाए बैठी है। उनके पौराणिक चित्र श्हर-पार्वतीश्, श्शिवश्, श्लक्ष्मीश्, श्कच-देवयानीश् आदि में जीवन की आधार-भूमि बहुत क्षीण है, वह रूढ़िवादिता से प्रेरित हुई है, फिर भी उनकी रेखाएँ और रंग-विधान में सादगी, सरलता और चारु भव्यता है।
अपनी विशिष्ट शैली से हटकर अमित कुमार हाल्दार ने भावात्मक विषयों को भी भौतिकवादी पद्धति से निरूपित किया। श्प्रारब्धश् शीर्षक चित्र में कितने ही अमूर्त भाव मूर्त हो उठे हैं। सूक्ष्म कल्पना भावात्मक शैथिल्य में खोकर ऐसे अज्ञात एवं भिन्न तत्वों के सम्मिश्रण से सर्वथा मौलिक कल्पित रूपों और विकास-प्रक्रिया को लेकर उभरी है।
प्रारम्भ में असित कुमार हाल्दार ने भित्ति-चित्रकार के रूप में ख्याति प्राप्त की थी। सम्राट् जार्ज पंचम जब कलकत्ता आये थे तो उनके स्वागत में लगाये गये शामियाने को नन्दलाल बसू और वेंकटप्पा के साथ इन्होंने चित्रों से सुसज्जित किया था। इनके उस समय के बड़े-बड़े चित्र भित्ति-चित्रण शैली एवं उसी टेकनीक को लेकर निर्मित हुए ।
इनके विषयों की तन्मय एकाग्रता एवं गाम्भीर्य में अजन्ता की कला का प्रभाव द्रष्टव्य है । अनेक चित्रों में ग्रामीण बालक-बालिकाओं, सन्थाल और उनके लोकनृत्यों की सुन्दर अभिव्यक्त्ति हुई है। कृष्ण की रासलीला और गोप-गोपियों को मुग्ध, भक्ति-विह्वल भाव से सिरजा गया है। श्अशोक-पुत्र कुणालश्, श्राम और गुहश्, श्चन्द्रमा और कमलश् आदि चित्रों में बड़ी ही कोमल व्यंजना है, चित्रकार होने के साथ-साथ ये बहुपठित साहित्यिक मनोवृत्ति के व्यक्ति थे। उन्होंने प्रारम्भ में जब बंगला और अंग्रेजी निबन्ध और एकांकी नाटक भी लिखे तो उसी के समानान्तर स्केच और खेल-खेल में कितने ही रंगों पर प्रयोग किया। किन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया इनकी दिल की कहानी रंगों में अधिक ढलती गई। साहित्य की अन्तरंग साधना ने इनकी कला में दुहरी सबलता भर दी और निजी मन की सर्जना चित्रों की गम्भीरता में लय होकर आविर्भूत हुई।
सन् 1923 में विलायत से लौट कर इन्होंने जयपुर और लखनऊ के शिल्प-विद्यालयों के अध्यक्ष पद पर कार्य किया। ये पहले भारतीय कलाकार थे जिन्हें अंग्रेजी साम्राज्यशाही के उस ठेठ जमाने में लखनऊ के गवर्नमेण्ट स्कल आफ आर्ट के प्रिंसिपल के गौरवपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया था। भारतीयता पर गर्व करने वाले कितने ही विशिष्ट एवं सम्भ्रान्त व्यक्तियों की नजर उस समय इन पर थी कि किस नैपुण्य और कौशल से सरकार के मातहत तत्कालीन कला को भारतीय तत्त्वों से सम्पुष्ट एवं समृद्ध बनाया गया। सुदूर अतीत की कला-प्रणालियों को नई दृष्टिभंगी से उस समय भारत की अपनी निजी परम्परा के अनुसार शिक्षा देने की ओर इनकी विशेष रुचि थी। जयपुर में श्राजपूती कलमश् की उन सभी विशेषताओं के पुनरुद्धार का इन्होंने घोर प्रयत्न किया जो अब तक विस्मृति के गर्त में विलुप्त हुई-सी लगती थीं। इन्होंने लिखा-ष्पाश्चात्य आदर्श के अनुसार साउथ केन्सिगटन में अंग्रेज शिक्षकों द्वारा दी जानेवाली कला-शिक्षा का अनुकरण करते हुए हमारे यहाँ भी प्रादेशिक कला-विद्यालयों में कला की शिक्षा दी जाती थी। इसके स्थान पर भारतीय परम्परा के अनुसार शिक्षा देने के लिए मैं प्रयत्नशील हुा । मैंने यह भी देखा कि यूरोपीय कला-शिक्षा-पद्धति का भी हमारे देश पर विशेष प्रभाव था। डेढ़ सौ वर्ष के अंग्रेजों के राज्य-काल में हमने दो सहत्र्ा्र वर्ष पुराने अपने कृतित्व को सर्वथा भुला दिया था। जब देशवासियों को यह ज्ञान हो जायेगा कि कला के क्षेत्र में हमारा निजी आदर्श सक्रिय रहा और दो हजार वर्ष तक सारे एशिया-खंड में उस कला का विस्तार रहा. तभी देश की कला के प्रति वे सच्चे श्रद्धावान बनेंगे । यूरोप की कला ने हमारे देश की कला पर अपनी छाप डाली, पर इस देश की कला के आदर्श को ग्रहण करने में वह असमर्थ रही है। इस देश की कला और साहित्य की नींव रही है --धर्म और दर्शन । वैज्ञानिकों के मन में यह आदर्श जम नहीं पाता। भारत की कला मानव-जीवन और धर्म के साथ ओत-प्रोत रही है, केवल ड्राइंगरूम सजाने की वस्तु ही नहीं रही है।ष्
देशी रचना-प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ उन्होंने विदेशी कला की अच्छाइयों को भी प्रात्मसात् किया। काउण्ट ओकाकुरा की प्रेरणा से जापान की राष्ट्रीय चेतना पर पनपी चित्रकला हृदयंगम कर वहाँ के अनुभवों से इन्होंने पर्याप्त लाभ उठाया। शनैः-शनैः इनकी दृष्टि में इतनी व्यापकता आ गई कि बहुविध जीवन-तत्त्वों, विश्वासों, भावनाओं और आदर्शों को इन्होंने कला के माध्यम से अभिव्यंजित किया। काँसे और पक्की मिट्टी पर इन्होंने मूर्तियाँ गढ़ीं जलरंग एवं तैल-चित्रों का निर्माण किया तथा रेशेदार दफ्ती और हाथ के बने कागज को भी उपयोग में लाये। हाल्दार की कितनी ही उकृष्ट कलाकृतियां आज व्यक्तिगत और सार्वजनिक संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। इलाहाबाद म्युनिसिपल म्यूजियम के श्हाल्दार भवनश् में उनके प्रतिनिधि चित्र तो संगृहीत हैं ही, इसके ष्अलावा बोस्टन म्यूजियम, विक्टोरिया एण्ड एलबर्ट म्यूजियम-लन्दन, इण्डियन म्यूजियम-कलकत्ता, श्रीचित्रालयम्-त्रिवेन्द्रम और रामास्वामी मुदालियर संग्रहालयष् में भी इनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ रखी हुई हैं।
असित हाल्दार ने भारतीय कला के विशाल सेतु के एक और स्तम्भ को मजबूत किया था जिसके सुदृढ़ आधार पर कला अडिग रूप से स्थित है। उन्होंने अग्रणी कलाकारों के पदचिन्हों का अनुसरण करते हए उतने ही श्रम और साधना से अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और नन्दलाल वसु के साथ प्रारम्भिक कला की नींव को परिपक्व और सबल बनाने में योगदान दिया था।

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