देवी प्रसाद राय चैधरी {Devi Prasad Roy Choudhury}

देवीप्रसाद राय चैधरी का जन्म 15 जून 1899 ई० मे "पूर्वी वंगाल के रंगपुर जिले मे ताजहट" नामक स्थान पर हुआ देवी प्रसाद मूल रुप से मूर्तिकार थे इनके गुरु अवनीन्द्रनाथ टैगोर थे 
देवीप्रसाद राय चैधरी "बंगाल स्कूल" की कला-प्रेरणाओं और प्रभावों को एक दिन मद्रास तक ले गये थे और सन 1928 से यहीं के आर्ट स्कूल में अध्यक्ष पद पर कार्य कर रहे हैं। इसमें एक पथ-प्रदर्शक की हैसियत से उनका कार्य इतना व्यापक हुुआ कि वह सिर्फ अपनी परिधि में सिमटा न रहकर दूर-दूर तक अपनी शक्ति को बिखेर सका है। कला के पुनर्संस्थापन में जो प्राचीन भारतीय कला-परम्पराएँ विकसित हुई थीं, उनका कमजोर पौधा अभी मजबूत न हो पाया था। नवीन वाद-विवादों की आँधियों और प्रचण्ड झोकों में वह भृमिसात भी हो सकता था। देवीप्रसादराय चैधरी भी अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के उन प्रतिनिधि प्रतिभाशाली शिष्यों में से हैं, जिन्होंने इस पौध को सर्वथा नये प्रांत में सुदृढ़ तो किया ही, सामयिक गतिविधियों पर दृष्टिपात कर कला में नवीन दिशा का रुख भी अपनाया।
देवीप्रसादराय चैधरी की कलात्मक प्रतिभा की कुंजी उनके उद्दाम व्यक्तित्त्व में निहित है। उनकी सतत विकासशील प्रवृत्ति में कुछ ऐसी गति और वेग है कि उनके सृजन में चाहे वह तूलीका से किया गया चित्रण हो अथवा छेनी से कोरे गए रूपाकार एक दुर्द्धर्ष तनाव दीख पड़ता है। उनमें एक ऐसी आत्म-व्यंजक कसोटी है जो सीधे मार्ग पर कशाघात करती है। वे मूर्तिकार भी हैं और चित्रकार भी दोनों में पृथक ढंग से अपनी विशृंखल भावनाओं को ढाला है। जो उनकी भीतरी तह तक पैठ सकता है वही उनकी कला में झांक सकता है। कहते हैं--राय चैधरी की उंगलियों के समक्ष मिट्टी झुक जाती है। वे उसका निर्माण नहीं करते, झपट्टा सा मारकर उसे निखोरते हैं मानो उनके मस्तिष्क की उथल-पुथल, संत्रस्त चेतना और अन्तर का सारा काठिन्य उसमें विश्राम पा जाता है। उनकी प्रतिमाएं हृदय में उभरती हैं और स्वतः अनायास ही मिट्टी में ढल जाती हैं। उनकी यह निर्वैयक्तिकता, भीतरी और प्रबल व्यक्तित्व उनकी कला में व्यंजित हया है।
यद्यपि उनके कृतित्व में अनेक विसंगतियाँ द्रष्टव्य हैं, फिर भी उनकी चित्रकला और मूर्तिकला अनेक स्थलों पर तद्प हो गई है। उनकी अधिकांश प्रतिमाएँ रेखाओं में व्यंजित प्राकृतियाँ हैं जिनमें विषम परिस्थितियों से द्वन्द्व संघर्ष निरूपित हुआ है। राय चैधरी ने श्रमिक और उनके जीवन की कितनी ही समस्याओं को छुआ है। निम्न वर्ग के संघर्षपूर्ण जीवन और दीन-हीन मजदूर उनकी कला की प्रेरणा रहे हैं। उनकी सुप्रसिद्ध कलाकृति "श्रम की विजय" में संघर्ष और कशमकश की अलग-अलग लीकें पहचानी जा सकती हैं। यही एक विषय उनकी अन्तरात्मा को लगभग आठ वर्ष तक कचोटता रहा था। पुनरू अपने कतिपय रेखाचित्रों में मन के इस द्वन्द्व को उन्होंने व्यक्त किया।"सडक बनाने वाले" और "जब शीत ऋतु आती है" मूर्तियाॅ में उनकी उदार करुणा का भाव झलकता है । भौतिक क्लान्ति के दारुण आघातों ने उनकी बौद्धिक संवेदना को अत्यन्त सूक्ष्मता से उभाड़ा है। अपनी तरुणावस्था में उन्होंने बुजुर्ग कलाकारों की टेकनीक को अपनाया, पर किसी एक ही प्रवृत्ति को स्वीकार करना अथवा कूप-मंडूक बने रहना इन्हें रुचिकर न हुआ । नये मार्गों को खोज में वे अनवरत आगे बढ़ते रहे, किन्तु किसी एक निश्चित पथ पर पहुँचने का उपक्रम कर इन्होंने अपनी दिशा बदल दी। विषयवस्तु की नूतनता के साथ-साथ इन्होंने जीवन के प्रति मूलतः नये दृष्टिकोणों को अपनाया। इन्होंने यह अनुभव किया कि किसी एक ही रास्ते पर बहुत दिनों तक चलना इनके लिए सम्भव न हो सकेगा। विभिन्न स्थितियों के विपर्यय ने इनमें असंतोष जगा दिया और इनकी कुंठाएँ इनके रूपाकारों में प्रकट हई। प्रतिकुल मान्यताएँ और जीवन के अन्तविरोधों ने इनमें तिलमिलाहट और जुगुप्सा उत्पन्न कर दी थी। आज की आर्थिक परिस्थितियों में समाज का जो ढाँचा है और उसके भीतर जो हाहाकार, वेबसी और घुटन पैदा हो गई है उससे इनमें नये तर्क, नये सिद्धान्त, नूतन प्रेरणा शक्ति, दृढ़ता, आत्म-विश्वास और दर्प जगा। वे जीवन की गहराइयों में उतरते चले गए और उनके उन्मुक्त सृजन की गति के प्रेरणा स्रोत खुलते गए। उनके उद्वेग, उनकी सजग वृत्तियाँ बौद्धिकता से उलझ कर अजीब ढंग से प्रकट हुईं। श्बंगाल स्कूलश् की प्रचलित पद्धतियों और प्रभावों से वे सर्वथा मुक्त हो गये और उन्होंने पाश्चात्य कलाचार्यों की विशेषताओं का अध्ययन कर अपनी एक निजी शैली का प्रवर्तन किया जिसमें प्राचीन भारतीय क्लासिकल परम्पराएँ और पश्चिम के "प्रकृतवाद" की सम्मिश्रित झलक थी।
राय चैधरी जीवन में सदैव नये मोड़ों को पसंद करते हैं । वे एक अनथक खोजी हैं जो नवीन टेकनीक और कार्य करने के उन तरीकों को अख्तियार करना चाहते हैं जो कभी पहले प्रयोग में नहीं लाये गये। इन नूतन ढंगों के पीछे वे इतने अधिक दीवाने हैं कि कभी-कभी अपनी बनाई प्रतिमाओं और चित्रों को जो पूरे होने को होते हैं, पर जिन पर उन्हें यह सन्देह हो जाए कि ये उनके ही किसी पिछले मनोभाव अथवा किसी दुसरे कलाकार द्वारा बनाई वस्तुओं की अनुकृति हैं तो उन्हें वे निर्दयता पूर्वक एक झपाटे मे फौरन नश्ट कर डालते हैं।
राय चैधरी द्वारा गढ़ी गई प्रतिमाओं में सौदर्य, सुघडता और विवरणात्मक स्पष्टता है । वे नसों, मांस-पेशियों और शरीर की प्रौढ गठन पर विशेप ध्यान देते हैं । "स्नान करती हुई नारी" में आदर्श निर्माण का प्रयास हुआ है, तथापि मूर्तियों में यथार्थ और वास्तविक स्वरूप का प्रदर्शन ही उन्हें अधिक रुचता है। कभी-कभी तो उनकी मूत्तियों में स्वाभाविकता से अधिक उद्दाम उभार है। वे मिट्टी में प्राणों को थिरकता हुआ देखना चाहते हैं । वे अभिव्यक्ति की सफलता के मूल में कठोर साधना और अन्तर में अनुभूत नैसर्गिक प्रेरणाओं की परिणति ही कला की सच्ची उपलब्धि मानते हैं। उन्होंने लिखा है,......चित्रों या मूतियों में व्यक्त धार्मिक विचारों अथवा सामाजिक धारणाओं के विकास का अध्ययन करने पर यह सिद्ध हो जाएगा कि कलाकारों को निर्माण की प्राणमयी प्रेरणा देने वाली वस्तु मूलभूत मानव-भावनाएं ही थीं। यह गतिविधि प्रागैतिहासिक काल से चली आई है और इससे प्रेरणात्नक तत्त्व हजारों वर्षों तक जीवित रहकर प्राणी-जगत् के सर्वोच्च जीव-मनुष्य पर हावी रहा है, उस मनुष्य पर जिसमें असीम चिन्तन और कल्पना शक्ति है। इस प्रकार हम इस तथ्य पर भरोसा करते हैं कि कला का उद्देश्य रहा है--ऐसी निर्मल और सरल अभिव्यक्ति, जो व्यक्त विषय के उद्देश्य द्वारा अपेक्षित कतिपय कलारूपों की माँग को संतुष्ट करती रही है और साथ ही जो उन कलारूपों के निर्माता के मनःपटल का प्रतिबिम्ब रही है। अतः इन कलारूपों की अभिव्यक्तियों का कोई भी सम्बन्ध उन नैतिक विचारों से नही रहा जो व्यक्ति, समय और परम्पराओं की सुविधा के लिए विकसित किये जाते रहे।
राय चैधरी कला की प्रच्छन्न महान शक्तियों को उनके तात्त्विक रूप में क्रियाशील होते देखना चाहते है । उत्कृष्ट कृतियों के सृजन में उनकी हृदगत भावनाएँ मूल वस्तु से एकाकार होने के लिए मचल उठती है । अंग-प्रत्यंगों के समानुपात पर वे इतना जोर नहीं देते जितना कि अपने विश्वासों के अनरूप उन्हें ढालने में । उनके आभ्यंतर स्वप्न यथार्थ बनकर प्रकट होते हैं और अपनी सृजन-सामर्थ्य के उत्कर्ष को वे संपूर्णतः समर्पित कर देते हैं।
राय चैधरी की मूर्ति-कला पर रोदा और बोरदेले का प्रभाव पड़ा है, किन्तु मैलोल और इप्सटाइन की भाँति उनकी कला श्आधुनिकश् नहीं हो सकी है । आज की मूर्तिकला में कोमलता और मार्दव लाने की चेष्टा की जाती है, साथ ही स्वाभाविकता और यथार्थ रूपान्तरण की प्रवृत्ति भी दीख पड़ती है। कलाकार का अप्रत्यक्ष साक्षात् मूल वस्तु को आच्छन्न-सा कर लेता है। इसके विपरीत राय चैधरी के मुक्त प्रयास में स्नायविक तनाव और भीतरी प्रतिक्रिया की गहरी छाप द्रष्टव्य है। उनमें यह उत्तर स्वयमेव ध्वनित होता है कि समानुपात और मार्दव एक दूसरे से भिन्न वस्तु नहीं हैं, न उन्हें पृथक-पृथक दर्शाया ही जा सकता है। बल्कि यों कहें कि कलाकार के सौन्दर्य-विधान में ही सारी कोमलता और समानुपात निहित है । इंगलैण्ड के सुप्रसिद्ध मूर्तिकार हेनरी मूर की प्रतिमाओं में वस्तुस्थिति का संतुलित विधान और कोमल निष्ठा है, लेकिन वह ऊपर से थोपी हुई अथवा दिखावटी न होकर भीतर अनुभूती सत्य का परिणाम है।
मूर्तिकला के समान चित्रकला में भी इनके उत्तेजना से प्रकम्पित उद्वेग उभड़े हैं जिनमें भीतर की कशिश और पालोड़न को व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं समूची चित्रमाला में ऐसी दृश्य-परम्परा उपस्थित हुई है जिसमें तादृश पालंकारिक सज्जा का विधान है, किन्तु उनमें रूढ़िगत चमत्कार न होकर दबाव का व्यक्त प्राग्रह है। अपने चित्रों में राय चैधरी ने सदैव वांछित वातावरण की ही सष्टि की, उसे कभी प्रासंगिक अथवा भ्रम से धूमिल नहीं बनाया। चित्रगत यथार्थ को उन्होंने भावुकता का शिकार नहीं होने दिया। जब तब उद्वेग उमड़े तो उन्होंने क्लासिकल मर्यादाओं से बाँध कर उन्हें संयमित किया, पर उन्हें अनुचित रूप से दबाया अथवा मसोसा नहीं। चाक्षुष शृंगारिकता उत्पन्न करने में (जो शुद्ध ऐन्द्रिय होती है) इनका कोई सानी नहीं रखता। लेपचा कुमारी के स्वस्थ सौंदर्य को इन्होंने बड़े ही स्वस्थ रूप में दर्शाया है ।
राय चैधरी का प्रकृति से लगाव है, पर उसका कृत्रिम चित्रण कर वे उसे विस्मयकारी आनन्दोपभोग का साधन नहीं बनाना चाहते, इसके विपरीत मानवीय सौंदर्य के संदर्भ में रखकर उसकी समस्त आन्तरिक शक्ति को उदबद्ध कर वे सरल किन्तु भव्य रूपरेखा में उसे बाँधना चाहते हैं। ष्लेपचा कुमारीश् के अतिरिक्त "नेपाली लड़की" "भूटिया औरत" और "तिब्बत की बालिका "ने भी उन्हें आकर्षित किया है। उनके सौंदर्य एवं हावभावों का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण इनकी तूलिका से हुआ है। इन चित्रों में यौवन का उन्माद, स्नेह-स्निग्ध उज्ज्वल ग्राभा, एक कलाकार का सुनहला स्वप्न, नई-नई कल्पनाओं की उमंग और वासना का उद्दाम वेग उमड़ा पड़ता है, किन्तु यह सब भीतर ही भीतर उनके रंग-रंग में समाविष्ट है, केवल ऊपर रंगों के फैलाव में ही गतिमान नही। प्रेम-प्रपीड़ित नारी की मनोव्यथा श्कमल उगे हए पोखरों में उसके मुरझाए मन और ढले यौवन का प्रतीक बनकर प्रकट हुई और श्कौतूहलश् में एक चंचल सुन्दर नारी का सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन का दुस्साहस दर्शाया गया है।
राय चैधरी प्राकृति-चित्रों में सर्वाधिक सफल हुए हैं। शारीरिक रेखाओं के उभार, समानुपात और सम्पुंजन को मनोवैज्ञानिक गहराई से चित्रांकन करने में और इस प्रकार हुबहु मानवीय रूप को सामने लाकर खड़ा करने में इन्होंने कमाल किया है। इनके महत्त्वपूर्ण पोर्टेट-चित्रों में "अवीन्द्रनाथ ठाकुर" जो रुपहले.सुनहले रंगों में रूपायित हुआ "अवनीन्द्रनाथ ठाकुर" "प्रो० सी० गांगुली" "पर्सी ब्राउन मिसेज ब्लैकवेल" तथा कुछ अन्य प्राकृति-चित्रों में, जिनमें रंगों की समृद्ध सुसज्जित है, "मुसाफिर" जिसमें एक मनहूस, दाढ़ी वाले राहगीर का चित्र खींचा गया है, बड़ी ही सजीवता से आँके गए। "खतरनाक रास्तों" में मानव के संघर्ष और घोर श्रम का दिग्दर्शन कराया गया है। कभी न हार मानने वाले उत्साही यात्री बर्फ से ढके उन पर्वत-शिखरों पर पहंचने के लिए आतुर हैं जिनके खात्मे की कहीं सम्भावना नहीं है।
राय चैधरी की बहुमुखी प्रतिभा अनेक रूपों और विभिन्न धाराओं में विकसित हुई है । वे एक बड़े ही दक्ष निशानेबाज, कुश्तीबाज, संगीतज्ञ, नाविक और कुशल शिल्पी हैं। वे एक ऐसे सच्चे देशभक्त हैं जो मातृभूमि की रक्षा के लिए खून तक बहा सकते हैं, लेकिन विचारों से वे साम्यवादी हैं और मजदूरों के हित में बड़े से बड़ा त्याग कर सकते हैं। जीवन की उमंग-उल्लास और रंगीनियों से वे कतराते हैं, उन्हें वहीं अपनत्व का अनुभव होता है जहाँ अभाव है, बेबसी है और गम की संजीदगी है। अपने धन के वे इतने पक्के हैं कि जब तक वे मोते नहीं, बिना अवकाश लिये निरंतर काम में जुटे रहते हैं। वे एकान्त-प्रिय है, इधर-उधर घूमने-फिरने, मेल-जोल बढ़ाने, सोसाइटी और गोष्ठियों में जाने-आने का उन्हें कतई शौक नहीं है । वे बहुत कम किसी से मिलते-जलते हैं, हाँ--यदि किसी से उनका हार्दिक मंत्री भाव होता है तो उससे वे दिल खोलकर व्यवहार करते है। कभी-कभी उनसे मिलने आने वाले व्यक्ति उनकी स्पष्ट वक्तृता, सत्य किन्तु कटु आलोचना, जीवन की विसंगतियों और अक्षम्य त्रुटियों पर किये गए क्रूर प्रहारों से तिलमिला उठते हैं। उनकी सत्यवादिता में एक ऐसा रूखापन जो भयभीत-सा कर देता है, पर उनकी ईमानदारी और अन्तर में छिपे प्रेम को भी शीघ्र ही पहचाना जा सकता हैं।
राय चैधरी की सृजन-सामर्थ्य एकाधिक माध्यमों में प्रस्फुटित हुई है। मूर्तिकला और चित्रकला में तो उनकी पूरी दखल है ही, पोर्टेट-पेंटिंग, जलरंग, पैनलपेटिंग, वाश पद्धति और जापानी तरीके से सिल्क आदि पर चित्रांकन के भी इन्होंने सफल प्रयोग किये हैं। "तूफान के बाद" "स्नान का घाट" आदि चित्र इनकी विभिन्न रुचियों के द्योतक हैं । पोर्टेट चित्रों में जलरंगों का प्रयोग होने पर भी उनमें तैलरंगों की सी गहराई और सुस्थिरता है। कुछ चित्रों का निर्माण ऐसी सजीवता से हुआ है कि व्यक्तित्व को ढालने के साथ-साथ उनमें सूक्ष्म चारित्रिक विशेषताएँ भी उभर आई हैं। दृश्यचित्रों के भी ये दक्ष चित्रकार हैं । खासकर पर्वत शिखरों पर कुहरे से समाच्छन्न प्रातःकाल का बहुत सुन्दर चित्रण हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय चित्रकला में विभिन्न प्रयोग किये गए हैं, पर अब इनका झुकाव अधिकाधिक यथार्थ की और होता जा रहा है। भारतीय नारियों के चित्रण में इन्होंने पूर्वदेशीय पद्धति अपनाई है. इनमें रेम्बरेंट और टिशियन का सा वैलक्षण्य ओर सौंदर्य की पकड का आभास मिलता है।
इनकी कला की अपनी निजी शैली. ढंग और खुबी है. फिर भी सभी शैलियाँ और कला-परम्पराएँ उनमें सामाहित हो गई हैं । टेकनीक उनके लिए खिलवाड़ है। उनकी कल्पना की दुनियाँ रूपाकारों और प्रतिरूपों की नहीं, अपितु चिन्तन और धारणाओं की जटिल संरचना है जो तूलिका के संस्पर्श से सुन्दर कलाकृतियों के रूप में व्यक्त हो जाती है। उनकी लगन, अध्यवसाय तथा भीतर की उद्दाम प्रेरणाएँ इतनी प्रचंड है कि उनका उपयुक्त निकास किसी एक माध्यम में सम्भव नही । राय चैधरी का महत्त्व पाश्चात्य एवं पौर्वात्य कलाटेकनीक एवं दृष्टिकोणों के सामजस्य तक ही सीमित नहीं है, अपितु मद्रास स्कूल के रूप में अपनी निजी कला-शैली प्रस्थापित कर कला के क्षेत्र में इन्होंने युगान्तर उपस्थित कर दिया है।
देवीप्रसाद राय चैधरी 15 अक्टूबर सन 1975 ई० मे स्वर्ग सिधार गये 
देवीप्रसाद राय चैधरी द्वारा बनायी गयी मूर्तियाॅ:- 
1, श्रम की विजय 
2, स्वतन्त्रता स्मार्क 
3, शहीद स्मार्क (पटना) 
4, श्रम की विजय (मद्राश)

Post a Comment

أحدث أقدم