चित्रकला के तत्व (Element of Art)



चित्रकला मनुष्य के विचारों को दृष्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करती है और इस अभिव्यक्ति को संयोजित ढंग से प्रस्तुत करने में कला के तत्वों का योगदान होता है। कलाकृति इन तत्वों की संयोजनात्मक रूप व्यवस्था होती है एवं इस संयोजन को आकर्षक बनाने में निम्न तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इन्हें चित्रकला के मूल तत्व कहा जाता है। 
चित्रकला के तत्व


       रेखा,     रूप,       रंग,        तान,        पोत,     अन्तराल 

1. रेखा

कला सृजन में रेखा दृष्य अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सरल एवं महत्वपूर्ण माध्यम है। रेखा को हम चित्रकार के भावों की अभिव्यक्ति का प्राचीनतम आधार भी मान सकते है।ं यह दृष्य सम्प्रषण को प्राथमिक साधन है। यह दृष्यकला की सबसे छोटी इकाई बिन्दु है एवं रेखा दो बिन्दुओं या दो सीमाओं के बीच का विस्तार है और कई बिन्दुओं के जुड़ाव या बिन्दुओं के पंक्तिबद्ध समूह से ‘‘रेखा’’ बनती है। किसी भी चित्र में रेखा का प्रतीकात्मक महत्व होता है और वह रूप की अभिव्यक्ति व प्रवाह को अंकित करती है। 

रेखाओं का वर्गीकरण

रेखाआंे का प्रमुख उद्देष्य होता है रूप का सृजन एवं भावों की अभिव्यक्ति। प्रत्येक रेखा के कुछ सामान्य प्रभाव होते है जिनका सम्बन्ध हमारी मनादेषाओं व संवदेनाओं से होता है और चित्र रचना मंे कलाकार इन रेखीय गुणांे का लाभ उठाता है।
रेखाएँ विभिन्न प्रकार की मानी गई हैं -

सीधी-खड़ी अथवा लम्बवत् रेखा :  सीधी खड़ी रेखाएँ ऊँचाई और उध्र्वगमन की प्रतीक हैं। जैसे - पेड़ सीधा खड़ा होता है, व्यक्ति खड़ा होता है आदि। ये रेखाएँ हमारे मन में उच्चता, महत्वाकाँक्षा, दृढ़ता, गौरव, अभिजात्य, स्थिरता एवं शाष्वतता की अनुभूति जगाती है।

सीधी पड़ी या क्षैतिज रेखा :  लम्बवत् रेखा आकार को आधार प्रदान करती है। मनुष्य विश्राम अथवा सुप्तावस्था में क्षैतिज स्थिति मंे होता है। ये रेखाएँ मानसिक शान्ति, विश्राम, निष्क्रियता, सन्तलुन, स्थिरता, मौन आदि भावों की घोतक है।

तिरछी  अथवा कर्णवत् रेखा : ये रेखाएँ अन्तराल में तिरछी व आड़ी खींची जाती है। अतः ‘‘कर्णवत्’’ कही जाती है। ये रेखाएँ गति, तीव्रता, उत्तेजना, व्याकुलता एवं नाटकीयता आदि भावों का संचार करती है।

कोणीय रेखा : जो रेखाएँ शीघ्रता से दिषा परिवर्तित करती हैं। वे कोणीय रेखाएँ कही जाती है। ये रेखाएँ असुरक्षा, अस्पष्टता, व्याकलुता, संघर्ष, क्षणिकता व आघात के भावों को प्रस्तुत करती है।

एक पुंजीय रेखा : ये रेखाएँ शोभा, प्रसार, स्वच्छन्दता, लिप्तता व अभिलाषा आदि भावों की घातेक है।

चक्राकार रेखा : वृत्ताकार एवं कुण्डलित सर्पाकार रेखाएँ चक्राकार रख्े ााओं के अन्तर्गतआती है।ये रेखाएँ गति, उत्तेजना, वृद्धि, शक्ति, निरन्तरता व पूर्णता आदि भावों की घोतक हैं।

प्रवाही रेखा :  लयात्मक व प्रवाहयुक्त रेखायंे, जैसे नदी की प्रवाहयुक्त व लयात्मक रेखाएँ इसके अन्तर्गत आती हंै। ये रेखाएँ गति, माधुर्य, लावण्य आदि भावों को दर्षाती है।


2. रूप

कलाकार के चित्र भूमि पर अंकन प्रारम्भ करते ही रूप का निमार्ण आरम्भ हो जाता है। इस रूप सजृन के साथ ही चित्र भूमि सक्रिय हो जाती है और वह सक्रिय रूपों आकारों तथा सहायक आकारांे के मध्य विभक्त हो जाती है। इन्हंे ही रूप कहा जाता है। इस प्रकार वह क्षेत्र या स्थान है जिसका निष्चित आकार आरै वर्ण है। इसका निर्धारण वस्तु के बाह्य रूपाकार से होता है। आकृतियों के बिना दृष्य कलाओं का अस्तित्व ही नहीं है। आकृति की रचना विषय की आवष्यकतानुसार सादृष्यमूलक, आकृतिमूलक या अमूर्त भी हो सकती है। रूप या आकार अनके प्रकार के हो सकते है। जिन्हें उनके प्रभाव के अनुसार निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है।

रूप का वर्गीकरण

(क) नियमित जिसके दोनांे भाग समान हों  जैसे - वृत्त, आयत, त्रिकोण, चतुर्भुज आदि।
 
चित्र 1 (नियमित आकार रचना)
 
⧭ आयताकार: ऐसे रूपाकार जिनमंे रेखाएँ समकोणीय होती है। ये रूप स्थिरता, दृढ़ता, शांित, एकता आदि भावों को बताते हंै।
⧭ त्रिभुजाकार: ये वे आकार हैं जिनका आधार शीर्ष की अपेक्षा चैड़ा होता है। जैसे - पिरामिड का आकार। ये आकार स्थिरता, सुरक्षा व शाष्वतता व विकास का भाव प्रकट करते हैं।
⧭ विलोम त्रिभुजाकार: ये आकार उल्टे त्रिभुज की आकृति के समान होते हैं, जो त्रिभुज के रूपाकार से विपरित स्थिति में प्रदर्षित हो रहे होते हैं। ये रूपाकार अनिष्चय, अषांति, लिप्तता व शीघ्र परिवतर्न आदि प्रभावांे को उत्पन्न करते हैं।
इनके अतिरिक्त रूप को यर्थाथवादी, आंलकारिक, सरल, काल्पनिक व प्रतीकात्मक भेदों के आधार भी समझा जा सकता है। प्रत्येक कलाकार अपनी भावनाआंे एवं संवेदनाओं के आधार पर बाह्य स्वरूपों से प्रेरणा ग्रहण कर, अपने चित्रों में मौलिक रूपों का सृजन करता है।

(ख) अनियमित जिसका एक भाग दूसरे भाग के समान न हो। जैसे - शंख, पत्ती आदि।
 
चित्र 2 (अनियमित आकार रचना)

3. रंग या वर्ण

रंग चित्रकला का एक महत्वपूर्ण तत्व होता है। “रंग वस्तुतः प्रकाष का गुण है“ जो नेत्रों के द्वारा मस्तिष्क के द्वारा अनुभव किया जाता है। प्रकाष की किरणें जब किसी वस्तु के ऊपर पड़ती हैं तो वह वस्तु प्रकाष के कुछभाग को आत्मसात् कर परावर्तित(प्रतिबिम्बित) करती हैं और वह प्रतिबिम्ब हमें रंग के रूप में दिखाई देता है। इसे इन्द्रधनुष के उदाहरण से भी समझा जा सकता है जहाँ प्रकाष की किरणें विबग्योर ;टपइहलवतद्ध बैगनी  ;टद्ध, आसमानी ;प्द्ध, नीला ;ठद्ध, हरा ;ळद्ध,पीला ;ल्द्ध, नारंगी ;व्द्ध एवं लाल ;त्द्ध रंगों की आभाओं में दिखाई देती है।ं इसे त्रिकोण शीषे के द्वारा भी समझा जा सकता है।
प्रत्येक रंग के कुछ भौतिक गुण होते हैं, जिन्हें निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।

⧭ रंगत 
⧭ मान 
⧭ प्रबलता 
⧭हल्की रंगत 
⧭ गहरी रंगत
 



रंगत : 
रंगों का स्वभाव रंगत कहलाता है। ‘रंगत’ रंग का वह गुण होता है जिसके द्वारा हम लाल, पीले व नीले के बीच का भेद समझते है।ं

मान : मान रंगत में हल्कपे न व गहरेपन का सूचक है। इसे रंगों का गहरापन व हल्कापन भी कहते हैं। किसी भी रंग मंे काला रंग मिलाने से गहरा तथा श्वेत रंग मिलाने से हल्का प्रभाव प्राप्त होता है। प्रकाष से लेकर अन्धकार तक सफदे व काले रंग के अनेक मिश्रण हो सकते हैं। इनके मिश्रण से रंगों के मान को घटाया-बढा़या जा सकता है। यही श्वेत व काले रंग के विभिन्न मान कहलाते हंै।

प्रबलता : रंगों की प्रबलता का अभिप्राय प्रायः चटकदार रंगांे से होता है। रंगों मंे चटकपन शुद्धता के कारण भी हो सकता है और किन्हीं रंगांे के मिश्रण द्वारा भी अर्थात जिन रंगों मंे चटकपन हो या जिन रंगों के मिश्रण से रंगों मंे तेजपन आ जाए, उन रंगों का यह गुण प्रबलता कहलाती है।

हल्की रंगत : किसी भी रंग मंे श्वेत रंग मिलाने से उस रगं का हल्का रंग बनता है। इसे उक्त रंग के मान का बढ़ना कहते हैं या उक्त रंग की आभा कहते हैं। किसी एक रंग के उपवर्ण जिससे उसके हल्के-गहरेपन का आभास होता है।

गहरी रंगत : किसी भी रंग मंे काला रंग मिलाने से गहरा रंग बनता है। इसे उक्त रंग छाया कहते हंै तथा यह उक्त रंग क े मान का घटना कहलाता ह।ै इससे वस्तुओं मंे ठासे पन या धुँधलापन का प्रभाव उत्पन्न हाते ा है। 

रंग भेद

प्राथमिक रंग :  प्राथमिक रंग तीन होते हैं - लाल, पीला और नीला। ये मौलिक रंग द्रव्य होते है। ये किन्हीं अन्य रंगों के मिश्रण से नहीं बनते बल्कि इनके मिश्रण से अन्य रंग बनते हंै।

द्वितीय रंग : किन्हीं दो प्राथमिक रंगों को मिलाकर प्रायः तीन द्वितीयक रंग बनते हैं। यह रंग होतेे हैं - नारंगी, बैंगनी और हरा। इन्हें हम ‘‘द्वितीय श्रेणी के रंग कहते हंै। 
पीला + लाल = नारंगी 
लाल + नीला = बंैगनी 
नीला + पीला = हरा

तृतीयक/समीपवर्ती रंग :  द्वितीय श्रेणी के दो रंगंों के मिश्रण से जो रंग तैयार होते हंै। उन्हें हम समीपवर्ती या तृतीयक रगं कहते हंै। 
नारंगी + बैंगनी = तृतीयक रगं 
बैंगनी + हरा = तृतीयक रंग 
हरा + नारंगी = तृतीयक रगं
 
चित्र 4 प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक रंग चक्र

पूरक या विराध्ेाी रंग : वर्ण-क्रम में एक दूसरे के ठीक सामने आने वाली  रंगते एक-दूसरे की विरोधी रंगते होती हंै अथवा किन्हीं भी दो प्रमुख रंगतों को मिला दिया जाये तो इससे प्राप्त द्वितीयक रंगत शेष बची हुई मुख्य रंगत की विराध्ेाी रंगत होती हैं। जैसे - लाल का विराध्ेाी या पूरक है - हरा, नारंगी का पूरक है नीला और बैंगनी का पूरक है पीला।

अवणीर्य रंग : श्याम एवं श्वते को अवणीर्य रंग माना जाता है। लेिकन किसी भी रंगत की तानांे के लिए दो रंग महत्वपूर्ण होते हंै।

उष्ण तथा शीतल रंग : प्रकाष के प्रभाव से जब हम रंगों को देखते हैं। तब उत्तजे ना के विचार से कुछ रंगों में उष्णता का प्रभाव और कुछ रंगों मंे शीतलता का प्रभाव उत्पन्न हाता है। चित्र में उष्ण रंगों से वस्तु निकट व शीतल रंगों से वस्तु के दूर होने का आभास होता है, जो रंगों से वस्तु के दूर होनेे का आभास होता है। जो रंग सूर्य के आस-पास वाले रंगत के होते हैं वे उष्ण स्वभाव के और जो रंग प्राकृतिक सुन्दरता जैसे पडे ़-पौधे, सागर-आकाष के सम्बद्ध होते हंै वे शीतल स्वभाव वाले होते हंै।
 
चित्र 5 उष्ण-षीत रंग चक्र

उष्ण रगं : लाल, पीला, नारंगंी या इनके संयागे से बने रंग उष्ण स्वभाव वाले हंै।
शीतल रंग : नीला, हरा या इनके संयोग से बने रंग शीत (ठण्ड)  स्वभाव वाले होतेे हंै।
उदासीन रंग : श्वेत, काला या इनके मिश्रण से बने रंग उदासीन रंग कहलाते हैं।


रंग योजना

किसी भी चित्र की रचना के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है रंगविन्यास। चित्र में आकर्षण उत्पन्न करने के लिए रंग-योजना का विषेष ध्यान रखना पड़ता है। रंग-योजना द्वारा ही चित्र संयोजन को अच्छा बनाया जा सकता है।

⧭ एकवणीर्य रंग योजना :
एक वणीर्य रंग योजना के चित्र में रंग व रंगों की गहराई, गहरी, उभार हल्के में दिखलाई जाती है। इस विधि मंे प्रयुक्त टोन मंे गहरे व हल्केपन का संतुलन होता है। इसमें किसी एक रंग की विभिन्न रंगतों का प्रयोग कर जो चित्र रचना की जाती है उसे एकवर्णीय रंग योजना कहते हंै।
 
चित्र 6 एकवणीर्य रंग याजे ना

बहुवर्णीय रंग योजना : किसी भी चित्र मंे अनेक रंगों के प्रयोग की योजना को बहुवर्णीय रंग योजना कहा जाता है। इन चित्रों को बनाते समय रंगों के सामंजस्य व संतुलन का विषेष ध्यान और रंगों के ज्ञान का होना परम आवष्यक है।

विपरीत (पूरक रगं) योजना : चित्रांकन में जब कोई दो प्रथम श्रेणी के रंग तथा उनमें से एक का विरोधी द्वितीय श्रेणी की रंगत ले अथवा दो प्रथम श्रेणी के रंग तथा दोनों के मध्यवर्ती का विराध्ेाी तृतीय श्रेणी का कोई रंग ले तो वर्ण योजना ‘विपरीत-पूरक रंग-योजना’ कहलाती है।

पूरक रगं योजना : वर्ण चक्र के प्राथमिक रंगों के परस्पर आमने-सामने के रंग पूरक रंग कहलाते हैं। इनमें एक रंग प्रथम श्रेणी का होता है तथा दूसरा द्वितीय श्रेणी का रंग होता है। पूरक रंग-योजना एक से अधिक पूरक रंगों की होती है। जैसे - लाल - हरा, पीला - बैंगनी, नीला - नारंगी।

विरोधी रंग-योजना : जिन चित्रों मंे विपरीत स्वभाव वाले तीन-तीन रंगों के समूहों का प्रयोग होता है। उन्हें विरोधी वर्ण-योजना वाला चित्र कहा जाता है।
जैसे - लाल, पीला व नीला एक-दूसरे के विरोधी रंग हांेगे। नारंगी, बैंगनी व हरा एक दूसरे के विरोधी रगं हांेगे।

वर्णहीन रंग-योजना : चित्रांकन में श्वेत, काले व भूरे रंगों का प्रयोग करने से चित्र वर्णहीन कहलाता है। उपरोक्त रंगों को रंग की श्रेणी में नहीं गिना जाता। ये ‘उदासीन/तटस्थ’ रंग कहलाते हैं।
एक चित्र मंे अच्छी आकर्षित करने वाली रंग-योजना के लिए उपरोक्त तथ्यांे का तथा रंगों की विषष्ेाताओं, प्रभावांे व गुणांे का ध्यान रखना महत्वपूर्ण होता है। 


रंगों की विषेषताएँ एवं प्रभाव

रंग दृष्यात्मक अनुभूति का महत्वपूर्ण पक्ष होता है। यह मानव के मस्तिष्क पर प्रभाव डालते है।ं रंगों का अपना प्रतीकात्मक व मनोवैज्ञानिक अर्थ भी होता हैं। जैसे -

लाल : यह सर्वाधिक उत्तेजित करने वाला रंग है। इस रंग से सक्रियता एंव आक्रमणता प्रकट होती हैै यह रगं क्रोध, प्रेम, श्रृंगार व वीरता को भी प्रकट करता ह।ै

पीला : पीला रंग ऊर्जा प्रदान करने वाला आकर्षक रंग है। यह मानसिक सक्रियता को बढा़ने वाला है। इससे प्रकाष, दिव्यता, प्रोत्साहन, आषा एंव सन्तुष्टि आदि प्रकट होती है।

नीला : नीला रंग शान्ति को प्रकट करने वाला होता है। यह शीतलता व एकाग्रता प्रदान करता है। इससे आषा, लगन, आनन्द, विषालता, ईमानदारी, मधुरता, निष्क्रियता, विस्तार, अनन्तता, विष्वास, आत्मीयता एवं सद्भाव आदि प्रकट होता है।

हरा : यह रंग ताजगी का एहसास कराने वाला है आरै मन को सुख की अनुभूति प्रदान करता है। इससे हरियाली प्रकट होती है। यह रंग सौन्दर्य, माधुर्य, सुरक्षा, विश्राम आदि को प्रकट करता है।

बैंगनी : यह रंग राजसी वैभव का प्रतीक है। इससे सम्मान, रहस्य, समृद्धि, प्रभावषीलता, ऐष्वर्य, श्रेष्ठता, नाटकीय एवं वीरता आदि प्रकट होती है। इस रंग मंे लाल एवं नीले रगं के मिश्रित प्रभाव विद्यमान रहते हंै।

नारंगंी : नारंगी रंग अध्यात्मिकता का सूचक हैै यह पे्ररणादायक है आरै ज्ञान प्रदान करता हैै यह अत्यधिक क्रियाषील है। तथा चित्त को शान्ति प्रदान करता है। इस रंग से वीरता, सन्यास, वैराग्य, दर्षन, ज्ञान एवं गर्व आदि प्रकट होते हंै।

सफेद : सफेद रंग शान्ति, शुद्धता, पवित्रता एवं सत्य का प्रतीक है। यह प्रकाष यक्ुत हल्का तथा कोमल है तथा शद्धु रंगों की श्रेणी मंे आता है।

काला : काला रंग गम्भीरता एवं एकान्तवास का प्रतीक है। यह शुद्ध रंगों की श्रेणी में आता है। इससे भय, शोक, आतंक, अवसाद, अन्धकार एवं विष्वासघात आदि प्रभाव उत्पन्न होते हैं।


4. तान

तान रंगत के हल्के व गहरपे न को कहते हैं। यह रंगत में सफेद तथा काले के परिणाम का द्योतक है। किसी भी वर्ण में सफेद या काले की मात्रा के अन्तर से उसके अनेक तान प्राप्त कर सकते है। तान किसी भी चित्र में प्रयुक्त वर्ण आयोज न की जान है। किसी भी एक वर्ण की सतह पर प्रकाष के एक समान भाव के अभाव में भी उस वर्ण के विभिन्न तान प्रस्तुत हो जाते हैं। इसके विपरीत प्रकाष के एक समान प्रभ् ााव के होते हएु भी वस्तु के एक तलीय न होने पर भी उसके वर्ण के विभिन्न तान प्रस्तुत हो जाते है।

तान का वर्गीकरण - 
1. छाया
2. मध्यम
3. प्रकाष

वस्ततु: तान का यह क्रमिक विभाजन काले व सफदे की मात्राआंे के रगं मंे मिश्रण से प्राप्त किया जाता है, जो रंग को हल्का व गहरा बनाती हंै।
कोई भी चित्र तान के अभाव में अधूरा रहेगा यथार्थ अंकन के लिए तान आवष्यक तत्व है। पास की आकृति को गहरी तान एवं दूर की आकृति को हल्कीतान में चित्रित कर परिपे्रक्ष्य के प्रभाव को उत्पन्न किया जाता है। द्विआयामी धरातल पर त्रिआयामी प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है एवं चित्र में सन्तुलन, विरोधाभास एवं लय आदि प्रभाव भी उत्पन्न किये जा सकते हैं।


5. पोत

‘‘किसी भी वस्तु के धरातल के गुण को ही पोत कहते हंै।’’ कला तत्वांे मंे पोत का विषष्ेा महत्व है। अतः चित्रकार को इसके प्रयोग मंे विषेष कुषलता प्राप्त करना अनिवार्य है। ‘‘चित्रतल पर यथार्थ अंकन की दृष्टि से पोत महत्वपूर्ण तत्व होता है। पोत की विविधता से अन्तराल को गति प्रदान कर उसकी एकरसता को समाप्त किया जा सकता है।
चित्रकार द्विआयामी धरातल जैसे कपड़ा, मिटट्ी, छाल, ताड़पत्र, भित्ति आदि को अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाता है आरै इनके स्वाभाविक पोत का प्रयोग वह अपनी अभिव्यक्ति में करता है। धरातल की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति को पोत के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। चिकने, खुरदरे, रूई, तेल, पत्थर, पानी आदि का अंकन पाते द्वारा ही रूपभेद को प्राप्त करता है। 

पोत का वर्गीकरण : पोत को तीन भागांे में विभाजित किया जाता है -


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(क) प्राकृतिक पोत : इसके अन्तगर्त वे सभी धरातल आ जाते हंै जो प्रकृ्रति तथा मानव निमिर्त वस्तुओं मंे होते हैं। पदार्थ चित्रण मंे कलाकार को इसका अध्ययन स्पर्ष करके भी करना चाहिये। पाते का वस्तुओं (पुष्प, पत्र तथा फल आदि) को काटकर तथा सुखाकर भी अध्ययन करना चाहिये।

(ख) अनुकृत पोत : प्रकृति प्रदत्त पोत का अनुकरण करके निर्मित किये जाने वाले पोत अनुकृत पाते कहे जाते हंै। पदार्थ चित्रण में प्रतिकृति अंकन हेतु चित्रकार इसका प्रयागे करता है। प्रकृति में अनुभतू पदार्थाें को चित्रित करते समय इनके धरातलीय गुणों का आभास या भ्रम कराना इस प्रकार के पोत की श्रेणी मंे आते हैं।
यदि भारतीय लघु चित्रों का अध्ययन करें तो स्पष्ट होगा कि पोत का प्रयोग अनुकृति के आधार पर होतेे हुए भी अलंकृत बन पड़ा है। अनुकृत पोत के प्रभाव से द्वि-आयामी तल पर त्रिआयामी प्रभाव भी उत्पन्न किये जा सकते हंै।

(ग) सृजित पोत : यह उपरोक्त दोनों पोत से भिन्न है। इसके अन्तर्गत कलाकार अनेक यंत्रों व विभिन्न साधनों के द्वारा भाँति-भाँति के पाते का सृजन करता है। पानी और तेल रंग परस्पर मिलाने पर, मोटे रंग लगाने पर एवं अन्य पोत संसाधनों के प्रयोग द्वारा वह कल्पनाजन्य नई सतह तथा धरातल का निर्माण करता है। चित्र कर्म क्यांेिक एक सृजन कार्य है। अतः कलाकार नये-नये पोत सृजन करता है। के.के. हैब्बर, जगदीश स्वामीनाथन तथा राजस्थानी कलाकार परमानंद चोयल की कृतियांे का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि आधुिनक चित्रकार पोतविधि के प्रति कितने सचेत थे। 


6. अन्तराल

अन्तराल चित्र का वह तत्व है जिसके अभाव में संयोजन असम्भव है। द्वि-आयामी चित्र-भूमि ही चित्र का अन्तराल हाता है। व्यापक अर्थ में ‘अन्तराल’ चित्र का वह तत्व है जो प्रत्येक रूपाकार एवं तत्वों को अपने में समाहित करता है। 
अन्तराल की परिभाषा : चित्रकार जिस चित्र-भूमि पर अंकन कार्य करता है, वह स्पष्टतया द्वि-आयामी होती है। जिस पर वह रूप का निमार्ण करता है। यही अन्तराल कहलाता है।

धरातल का विभाजन : धरातल पर रेखा अंकित करते ही वह दो भागांे मंे विभाजित हो जाता है। यह विभाजन दो प्रकार का होता है -

(क) सम-विभक्ति :  रेखाआंे की सहायता से चित्र-भूमि को इस प्रकार विभक्त किया जाता है कि दाँये-बाँये और ऊपर-नीचे के तल का भार बराबर हो। प्राचीन भारतीय चित्रकारांे ने प्रायः सम-विभक्ति का ही प्रयोग किया है। सम-विभक्ति का प्रयोग सन्तुलन, एकता शक्ति व समता आदि भाव को प्रदषिर्त करने के लिए होता है।

(ख) विषम विभक्ति :  इस विभाजन में, ‘‘जैसा इधर, वैसा उधर’’ वाली परिपाटी का पालन नहीं किया जाता बल्कि यहाँ कलाकार स्वतन्त्र होता है कि वह किसी भी प्रकार का असम विभाजन करें। इसमें द्वारा मौलिकता व सृजन का पक्ष प्रबल होता है। यह विभाजन उत्तेजना, प्रगति, सृजन एवं क्रियाषीलता का भाव उत्पन्न करने मंे सहायक होता है।

सक्रिय तथा सहायक अन्तराल

चित्र-भूमि पर जो विभक्ति का मुख्य स्थान होता है। वह सक्रिय विभक्ति तल अथवा अन्तराल कहलाता है तथा अन्य गौण विभक्तियाँ सहायक तल अथवा अन्तराल कहलाता है।

प्रायः संसार के सभी अच्छे चित्रों मंे सक्रिय व सहायक तल का सुन्दर समन्वय एवं संयोजन किया गया है। पूर्वीय कला में तो सृजन अधिक ही निखरकर आया है।

अन्तराल तथा रूप व्यवस्था

वस्तु आकृति जितना स्थान घेरती है वह उनका धनफल परिणाम के आधार पर परस्पर सम्बन्ध होता है। चित्रभूमि द्वि-आयामी होती है। अतः चित्रभूमि पर केवल दृष्टि-भ्रम उत्पन्न करके ही त्रि-आयामी प्रभाव लाते हंै आरै आकारों के मध्य दूरी के प्रभाव को स्पष्ट करते हंै। चित्रभूमि पर यह प्रभाव वास्तव में उसको विभाजित करके ही प्राप्त किया जा सकता है जिसकी विधि निम्न है -

➤ अतिच्छादित बल : इस विधि द्वारा आकारांे के मध्य दूरी का आभास होता है, जो तल सर्वाधिक निकट होगा वह अतिच्छिादित नहीं हागे ा। अन्य शष्ेा तल आच्छादित हो सकते है, चाहे तल का परिणाम एक समान ही हो।

➤ आकार मंे विभिन्नता : चित्रभूमि पर आकार की महत्ता के अनुसार उन्हें छोटा-बड़ा दिखाकर भी नियोजन किया जा सकता है। अजन्ता का माता तथा पत्रु वाले चित्र मंे तथागत (बुद्ध) को आकार के विषाल दिखाकर उनकी वरीयता व ज्ञान का प्रदषर्न किया हैै इस सिद्धान्त का प्रयागे मिश्र की चित्रकला में भी किया गया है।

आकार की स्थिति : चित्र-भूमि पर आकृति को विभिन्न स्थान में रखकर भी दूरी का आभास उत्पन्न किया जा सकता है। चित्रभूमि का सबसे नीचा किनारा सर्वाधिक निकट और इसी क्रम से ऊपर जाने पर दर्षक से दरू होने का आभास देता है।

रेखीय क्षयवृद्धि  : जो आकार क्षितिज रेखा के जितने निकट होता जायेगा वह उतना ही छोटा और ओझल बिन्दु पर जाकर उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार क्षयवृद्धि के नियम से आकारांे के मध्य दूरी का भाव उत्पन्न किया जा सकता है।

वातावरणीय क्षयवृद्धि :  निकट का आकार स्पष्ट तथा प्रखरवर्ण मंे तथा दूर का आकार अस्पष्ट तथा मध्यम रंगतों मंे होगा - ऐसा वातावरण के झीने परदे के कारण होता है। इस सिद्धान्त का प्रयोग करके भी दूरी का प्रभाव लाया जा सकता है। चित्रभूमि पर गर्म वर्ण तथा शद्धु रंगतों का प्रयोग निकटता और ठण्डे तथा मिश्रित वर्ण का प्रयोग दूरी का बोध करते हंै। अन्तराल में आकरों को इन विधियांे द्वारा संजोकर उसमें सक्रियता तथा प्रभाव उत्पन्न कर सकते है। अतः चित्रभूमि पर अन्तराल व आकारांे का सम्बन्ध मधुर होना चाहिये।

स्र्वर्णिम विभाजन :  अन्तराल विभाजन मंे सबसे श्रष्ेठ विभाजन वह कहा जाता है जहाँ एकता व रोचकता का भाव प्रस्तुत होता है। स्वणिर्म विभाजन गणितीय सिद्धान्तों पर आधारित होता है। इसमें चित्रभूमि का विभाजन इस प्रकार किया जाता है कि सबसे छोटेे व सबसे बडे़ आकार के बीच वही अनुपात होता है जो बड़े लाग के सम्पूर्ण विभाजन से ही अर्थात् बड़े आकार के क्षेत्र को छोटे आकार को बराबर किया जाए तो छोटे तो दो छोटे आकारांे के बराबर एक बड़ा आकार होगा। अ---------स----------ब

स्वर्णिम सिद्धान्त का प्रयोग कला की सभी विधाओं मंे हुआ। स्थापत्य कला, मूर्तिकला एवं चित्रकला आदि सभी स्वणिर्म सिद्धान्तों से युक्त कृतियों प्रायः अमर र्हइु। मिश्रवासियों ने सर्वप्रथम गणितीय सिद्धान्तांे का प्रयोग कला में किया जिन्हें गीज़्ाा के पिरोमिडांे एवं चित्र में वींची की कृति ‘विट्रूवियन आकृति’ में देखा जा सकता हैै।

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