गगनेन्द्रनाथ ठाकुर
भारतीय कला में जब नये अंकुर फूट रहे थे तब गगनेन्द्रनाथ ठाकुर ऐसी मौलिक प्रतिभा लेकर अवतीर्ण हुए जिन्होंने सर्वथा नई दिशा अपनाई । इनमें और अन्य कलाकारों में यह अन्तर था कि अब तक के कला-सिद्धान्त, रूप, प्रयोग, टेकनीक एवं प्रवृत्तियों का इन्होंने नये ढंग से पाश्चात्य पद्धति पर परीक्षण और संस्कार किया। भारतीय कला के पुराने परम्परागत साँचों के प्रति विद्रोह भाव से प्रेरित होकर नही, अपितु एक मेधावी सर्जक की भाँति कला में स्फूर्ति लाने के लिए उन्होंने नई उगती शक्ति को प्रश्रय दिया। इनके पास राजपूत और मुगल शैली की चित्रावली का बहुत बड़ा संग्रह था, फलतः इनकी सर्जनात्मक प्रतिभा पर इन चित्रों का क्रमशः सूक्ष्म अदृश्य प्रभाव पड़ रहा था।
सहजात सृजनाकांक्षा तो उनमें थी ही, सुख-चैन, धन-वैभव और अवकाश ने कूंची और रंगों मे मनमानी खिलवाड़ करने की उन्हें छूट दे दी। उनका चित्र-सृजन केवल रईसी विलास मात्र नहीं कहा जा सकता। एक प्रखर चित्रसृष्टा होने के नाते कुछ निजी, कुछ पराया, कुछ नवीन, कुछ अनूठा देने की भावना और संकल्प था उनमें वह पाश्चात्य टेकनीक और भावधारा को अपना कर पुरानी चिरपरिचित लीक से आगे बढ़ना चाहते थे। यूरोप में श्इम्प्रेशनिज्मश् और श्क्यूबिज्मश् का उस समय काफी जोर था। क्यूबिक कलाकारों का मत है कि जिस चपटी सतह पर वे चित्र आँकते हैं वह द्विकोण होती है।, अतएव उसपर अंकित प्राकृतियाँ, वस्तुएँ और दृश्यचित्र भी त्रिकोण की बजाय द्विकोण ही होनी चाहिए। लेकिन वे चित्रांकन करते हुए वस्तु को द्विकोण न बना कर उसे इस पद्धति से घनाकृति (क्यूब) में दर्शाते थे कि वस्तु का सामने का भाग, पीठ पीछे, ऊपर व उसके भीतर की संस्थिति, किंचित रंग-पाटव और रेखाओं की खरोंच से इसी चपटी सतह पर बिना किसी प्रायास के उभर आते थे। इसके विपरीत इम्प्रेशनिस्ट अर्थात् प्रभाववादी कलाकार वातावरण की प्रभावोत्पदकता के लिए धुंधले रंगों का प्रयोग आवश्यक समझते हैं। वे वस्तु को स्थूल रूप में उभारना पसन्द नहीं करते, वरन् रंग-भ्रांति, रूपगोपन और मिश्रित प्रकाश-छाया की झिलमिल गहराई लाने के लिए पृथक-पृथक् रंगों की एक के ऊपर एक इस तरह श्टोनिंगश् सी करते हैं। श्इम्प्रेशनिज्मश् का महान आविष्कर्ता माने था जिसने अपनी एक पेंटिग को अकस्मात् ही श्इम्प्रेशनश् नाम दे दिया था। उसके बाद मोने, सेजॉ आदि कलाकारों ने इस परिपाटी को आगे बढ़ाया। ये सभी फ्रेंच कलाकार थे और उन्होंने अपनी इस नई शैली से प्रमुख देशों की कला को प्रभावित किया था। गगनेन्द्रनाथ ठाकुर इन्ही पाश्चात्य कला-शैलियों से आकृष्ट हुए। उन्होंने अकल्पनीय सम्मोहक छायालोक को सृष्ट कर अपने चित्रों में ऐसे रहस्यमय रंगों की सर्जना की जिसने पृष्ठभूमि में रेखाएँ उभारकर उन्हें अपनी निर्वाक गरिमा से ढक लिया। श्इम्प्रेशनिज्मश् और श्क्यूबिज्मश् के प्राथमिक अनुभूत प्रयोगों में सामजस्य स्थापित कर अपनी बरबस निर्माणात्मक कर्मशील प्रवृत्ति द्वारा चिर अमूर्त को नव्य मूर्त कर रहस् संकेतों में गगेन बाबू ने एक ऐसे अंतर्वातावरण की सृष्टि की जिसने कितने ही जादूभरे विचित्र रंग आँखों के आगे उड़ेल दिए।
उनके चित्रों में चाहे वे उषा की लालिमा लिये हों, या साँझ की क्रमशः मलिन होती आभा, अथवा कूहरा छाई रातों में गली के टिमटिमाते लैम्पों का मन्द प्रकाश हो या हिमालय प्रदेश में वर्षाकालीन दर फैले मैदानों का मोहक नजारा-सभी में जिन्दगी का राग और एक अखण्ड रसमय सौंदर्य-चेतना की दीप्ति है। उनकी घनाकृतियाँ ऐसी नहीं कि जो समझ में न पाएँ, पाश्चात्य कलाकारों के श्क्यूबिज्मश् का वे मात्र अंधानुकरण नहीं, बल्कि उनमें विशदतर एवं गम्भीरतर भाव एवं सौंदर्य निहित है। पश्चिमी घनाकृति चित्रों में कलात्मकता का समावेश वहाँ तक अभीष्ट है जहाँ तक कि चिंतन तत्त्व तदनुकूल वातावरण सृष्ट करने में सहायक हो। प्रायः प्रतीकों के उभार और संस्थिति में उनकी शक्ति इतनी केन्द्रित हो जाती है कि बाहरी सौष्ठव एवं सज्जा पर उनका विशेष ध्यान नहीं रहता। यहाँ तक कि मातीस और पिकासो जैसे महान कलाकारों के चित्र भी कई बार इस कसौटी पर कलाहीन और अनाकर्षक से जंचते हैं। इसके विपरीत गगेन बाबू के कतिपय चित्रों में प्रकाश और अंधकार का शाश्वत संघर्ष दर्शाया गया है, लेकिन इस संघर्ष में सौंदर्य व्याप्त है और अंधकार के अवसाद को परास्त कर प्रकाश उस पर हावी हुआ है। श्मृत्युश् चित्र में भी उनकी रहस्यमयी प्रकृति सजीव होकर विहँस सी रही है। उनके रेखा और रंग हवा में तैर कर अलाउद्दीन के जादुई चिराग के से करिश्मे दिखाकर विलीन हो जाते हैं, किन्तु उसके चारों ओर के छाया सत्य के भीतर से कोई संगत, सहज, साध्य स्वरूप उभर आता है। प्रो० सी० गांगुली के शब्दों में---ष्अत्यन्त सूक्ष्म समानान्तर रेखाओं से इन्होंने बड़ी ही आकर्षक श्हिमालय में बरसाती मैदानश् का नजारा प्रस्तुत किया है। प्रकाश और छाया की असमाप्त त्रिकोण रेखाओं से एक बन्दी राजकुमारी का अनूठा अफसाना व्यंजित किया है तथा एक श्नत्य करती बालिकाश् के लहंगे की झिलमिलाती तहों से घनाकृति उभारी है जिसने मूल विषय को अपने आप में प्रावृत्त नही किया है।ष्
गगनेन्द्रनाथ ठाकुर को अत्यधिक चित्रण का शौक था। रूपहले-सुनहले चमकते गत्तों पर और कभी सिल्क पर भारतीय स्याही में जिस में इतस्ततः हरे व लाल रंगों की अद्भुत छटा दर्शनीय है, वह जल्दी-जल्दी सधी उंगलियों से तिकोन, चैकोर, गोल, सीधी, घनाकार रेखाओं से भाँति-भाँति के चित्र आँकते थे। प्रारम्भ में जापानी चित्रकला ने उन्हें प्रेरित किया। काकुजी आकाकूरा का प्रभाव उन की प्राथमिक कलाकृतियों पर द्रष्टव्य है। श्भारतीय कौवेश् शीर्षक चित्र में रंग-विधान और प्रकाश-छाया का कलात्मक निदर्शन लगभग इसी ढंग का है। अपनी परवर्ती कलाकृतियों में उन्होंने सुप्रसिद्ध जापानी चित्रकार ओगाता कोरिन का प्रभाव आत्मसात् करने का प्रयत्न किया, परन्तु ऐसी चित्रकला की दृष्टि से विशेष सफल नहीं हुए । हाँ, निशा दृश्यों के चित्रण में उन्होंने अनेक स्थलों पर जापानी चित्रकारों को भी मात दी है। खासकर आधी रात में गुजरते जलूस, आनन्द और मौज भरे उत्सव, मंदिर और धर्मस्थलों में उमड़ती भीड़ को चित्रित करने में झिलमिल प्रकाश-छाया का जो अनुठा वातावरण प्रस्तुत किया गया है, उसमें चीनी रोशनी की शोभा को फीका कर दिया है।
पौराणिक विषयों और कल्पित आख्यानों को लेकर यदाकदा बनाये गए उनके चित्र भी बड़े ही सुन्दर बन पड़े हैं। श्माँ से विदा लेते समय चैतन्य का भक्ति-विह्वल कीर्तनश् तथा अन्य कितने ही चित्रों में इस बंगाल के संत की विमोहक भाव-भंगिमाओं के दर्शन होते हैं। ग्राम्य हरीतिमा के कोड़ में बनी कुटिया का दृश्य और सिल्क पर बनी उनकी वह पेंटिंग जिसमें जगन्नाथपुरी के निकट समुद्र के किनारे रेत के एकाकी टीले पर श्री चैतन्य महाप्रभु गम्भीर चिन्तन मुद्रा में बैठे हैं और जल को उत्ताल लहरें उनके पावन चरणों को स्पर्श कर रही हैं, बड़ी ही यथार्थ और व्यंजक ज्ञात होती हैं। चन्द्र ज्योत्स्ना श्री चैतन्य की मुख दीप्ति को इस प्रकार द्विगुणित कर रही है कि निर्जन में उनकी उन्मुक्त आत्मा अमर शान्ति का सन्देश दे रही है। अनेक चित्रों में जहाँ कलाकार की आत्मा की गहराई पत्तों में से झांकती है, एक सचेत जिज्ञासा की परिवत्ति जादू का सा असर करती हई दर्शक के मन पर छा जाती है। श्एकान्त गीतश् में अद्भुत शान्ति, एकाकीपन व शोक का गहरा भाव है तो श्रहस्य का घरश्, श्स्वप्नदेशश्, श्मेरा अन्दरूनी बागश्, श्सुबह का तारा, श्रहस्यमय घुड़सवारश्, श्परी देशश् आदि कलाकृतियों में अन्तर के उखड़े पुखड़े सपने साकार हुए हैं। मैसूर चित्रशाला में रखी इनकी एक पेंटिग श्बन्दी प्रकाश में और भी असाधारण तल्लीनता और विस्मति का भाव है, कलाकार ने मानो भगोड़े प्रकाश को इस चतुराई से अपनी जकड़बन्दी में गिरफ्तार किया है कि दहलीज, जीने, तहखाने और किवाड़ों की दरार और झरोखों से उभरता हुआ प्रकाश सहमा रुक कर अंधकार को भासमान कर रहा है। श्रांची में संध्याकालश् के दृश्य में देशी सौंदर्य और भारत की ग्राम्य खुशहाली का दिग्दर्शन होता है।
गगेन बाबू प्रयोगी थे और उनके कतिपय अभिनव प्रयोगों एवं परीक्षणों में गहरी बौद्धिक पैठ थी। चित्रों के अलावा उन्होंने प्राकृतियों और छवि-चित्रों का भी निर्माण किया। विश्व कवि टैगोर और सर जे. सी. बोस के बहुत सुन्दर छवि-चित्र उन्होंने अंकित किये हैं। उनके व्यंग्य चित्र भी हैं जिनमें तीखी व्यंजना और दिल को वेधने वाला पैनापन है। श्कानून की शक्ति में आदि व्यंग्य-चित्र बड़े ही सफल बन पड़े है। उन्होंने हिमालय की सौंदर्यमयी, गरिमा और पावनता का भी चित्रण किया है। श्प्रकाश कीे प्रथम रेखाश् में हिमालय की ऊँची चोटियों पर उदित होते सूर्य की छिटकी किरणों से अरुणाभा फूट रही है जो बर्फ के साथ अठखेलियाँ करती हुई रंग-बिरंगा प्रकाश बिखेरती है। गगेन बाबू के मन की विचित्र झोंक और भावेण से अंकित कितनी ही ऐमी कलाकृतियां हैं जो निजी गम्भीरता और वैचित्र्य मे दर्शक को अभिभूत कर लेती है। ये अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई थे। इकहत्तर वर्ष तक की आयु को भोग कर कला को एक अर्स तक अपना अमूल्य अवदान देते रहे। बर्लिन और हैम्बर्ग में इनके चित्रों की प्रदशिनयाँ हुई और विदेशी कला मर्मज्ञों ने श्एक्सप्रेशनिज्मश् (अभिव्यंक्तिवाद) के सफल चित्रण के लिए इनकी भूरि-भूरि प्रशंमा की। सन् 1914 में पेरिस में, 1927 में अमेरिका में और 1934 में लन्दन में इनकी कला को समर्थन मिला और इस प्रकार विश्वव्यापी ख्याति इन्हें प्राप्त हुई। श्दि इंडियन सोसाइटी आफ ओरियन्टल आर्टश् की स्थापना इन्ही की प्रेरणा का परिणाम थी। उसमें कितने ही प्रभावशाली व्यक्तियों-खासकर ब्रिटेन वालों की जिसमें जेटलैंड के मारकिस सर जान वुड्रोफ और पर्सीब्राउन अदि मुख्य थे, संरक्षकता रही और यह संस्था अर्से तक भारतीय कला का नेतृत्व करती रही, यहाँ तक कि बंगाल स्कूल की प्रगति के बीज भी इसी में निहित थे।
गगेन बाबू के चित्रों का महत्त्वपूर्ण संग्रह बम्बई के प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम, मैसूर के जगमोहन पैलेस, श्री चित्रालयम त्रिवेन्द्रम, हैदराबाद म्यूजियम भारत कला भवन, बनारस, कलकत्ता की आषुतोष म्यूजियम आॅफ इंडियन आर्ट तथा जेटलैंड के मारकिस के साथ हैं। युग की गतिविधि को लक्ष्य में रखते हुए इन्होंने जो कला में उदात्त सिद्धियाँ प्राप्त की वे आज के कलाकारों को विस्मित तो कर ही रही है, भविष्य में भी उन्हें कला पथ पर उन्मुख करती रहेंगी।