के0 वेंकटप्पा { K. Venkatappa }

चित्र :- लंका दहन

युग-प्रवर्तक अवनी बाबू जब कला-जागरण का मन्त्र लेकर आगे बढ़े तो के. वेंकटप्पा भी उनके अग्रगण्य शिष्यों में से एक थे । उन्होंने कलागुरु और अन्य साथियों के साथ कला की सीमाओं को व्यापक बनाने में अदभुत योग दिया था । कला-प्रेमियों का सान्निध्य और तत्त्वावधान तो उनके लिए वरदान सिद्ध हुआ ही. उनमें प्रारम्भ से ही कलान राग और गम्भीर साधना भी थी जो अनुभूति एवं कल्पना में संतुलित समन्वय खोज रही थी। कलकत्ता में अवनी बाबू का शिष्यत्त्व ग्रहण करने से पूर्व वे मद्रास के आर्ट स्कूल में कला की शिक्षा प्राप्त करते रहे । वहाँ उनकी प्रतिभा और सृजन की सहजात प्रेरणा का आभास मिल चुका था। मैमूर महाराज के प्राइवेट सेक्रेटरी, जो स्काटलैंड के निवामी थे, की सिफारिश से ये कलकत्ता भेजे गए और इस प्रकार कलागरु के संरक्षण में इनकी कला-माधना का पथ प्रशस्त होता गया।
सामान्य परिवार और सामान्य परिस्थितियों में उत्पन्न होने के कारण इन में कोई खास महत्त्वाकांक्षा न थी, फिर भी इनकी बौद्धिक चेतना इतनी जागरूक थी कि विवशताएँ इनके सामने उभर नहीं पाई। श्रम और मूक सन्तोष ही इनके जीवन का पाथेय बना रहा ।
विचित्र सी मानसिक स्थिति में इस श्रमी और साधक कलाकार ने अपना विशिष्ट पथ चुन लिया। इन्होंने लघु चित्रण की टेकनीक को अपनाया जो अधिकांश राजपूत शैली और किंचित् मुगल पद्धति की छाप लिये है। इनकी भाव-व्यंजना सूक्ष्म और सांकेतिक होते हुए भी स्पष्ट और बोधगम्य है । बौद्धिक त्वरा होते हुए भी रंग-चयन में अतीन्द्रिय सौंदर्य विवृति झलकती है। विभिन्न रंगों का कुशलता के साथ सम्मिश्रण हुआ है और कहीं-कहीं वेंकटप्पा ने रंगों का टेम्परा में स्वयं ही आविष्कार भी किया है। इनके रेखांकन में हाथ की सफाई और सौम्य सौष्ठव है। लघु चित्रण ने उनकी व्यंजना को अधिक प्रखर बना दिया है। विषय-वस्तु में फैलाव दृष्टिगोचर नही होता, पर इसी कारण उसमें प्राणवत्ता और गहराई अधिक आ गई है। श्प्रोटीश् के विभिन्न प्रकृति चित्रणों में इनकी बहमखी अभिव्यक्ति के दर्शन । हुए। लघु अंकन और सर्जना की अन्य विशेषताओं के संयोग से इन्होंने उसकी असलियत को समझा और हृदयंगम किया । फलतरू इनके दृश्य-चित्रणों में यथार्थता का समावेश हो गया। मौसम और उनकी कतिपय भंगिमाओं के दिग्दर्शक चित्र इतने आकर्षक बन पड़े हैं कि महात्मा गांधी इनके चित्र-संग्रह को देखकर उनकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गए थे। लैंडस्केप के दर्जनों चित्र इन्होंने अपने व्यक्तिगत संग्रहालय में शिष्यों को कला की ओर उत्प्रेरित करने के उद्देश्य से सजाये।
प्रकृति से इनकी कला का रागात्मक सम्बन्ध है। अनन्य निरीक्षण ने प्राकृतिक उपादानों के प्रति इनकी संवेदना को इतना अधिक उभारा है कि वे उसकी अंतरंग सुषमा में विभोर हो उठे हैं। इनकी वत्ति अंतर्मुखी होकर प्रकृति की आत्मा में झाँकने का प्रयास करती है। फ्रेंच कलाकार सेजाँ की भाँति ही वस्तु के तथ्य में पैठने की प्रवृत्ति इनमें है और बाहरी प्रभावों को आत्मसात कर इनकी कल्पना इतनी दुर्निवार हो उठती है कि वैशिष्ट्य की अभिव्यंजना में इनके मौलिक प्रतीक और भी मार्मिक एवं प्रभावोत्पादक बन जाते हैं। प्राकृतिक दृश्य कलाकार की भावना से आच्छन्न होकर सूक्ष्म, पर साथ ही अन्तर की आस्था को उबद्ध करते हुए वे प्रकट होते हैं।
इनके जीवन का एक रोचक प्रसंग है कि एक बार गगनेन्द्रनाथ ठाकुर, पर्सी ब्राउन और स्वयं इन्होंने दार्जिलिंग से हिमालय को चित्रित करने का प्रयत्न किया । ये तीनों कलाकार गर्मी भर वहीं रहे और प्रायः प्रतिदिन ही इस मनोरम दृश्य को अंकित करने के लिए जाते रहे, किन्तु हिमाच्छादित शिखरों पर संध्या समय जो सतरंगी रूपहली प्राभा लहराती सी प्रतीत होती है उन रंगों को वे आसानी से न पकड़ सके। एक रात वेंकटप्पा ने झोंक में सहसा उन रंगों का भी आविष्कार कर डाला जिन पर तीनों कलाकार अब तक सिरपच्ची करते-करते ऊब चले थे। जब इनके दोनों साथियों को ज्ञात हा तो चकित रह गए। ऐसे मौकों पर कलाकार की भावना शतधा होकर बह निकलना चाहती है और उसे किसी भी चारु वातावरण को आँकने के लिए उतना ही कल्पनाशील होना पड़ता है, किन्तु कोरी कल्पना से ही काम नहीं चलता, उसमें समुचित रंग-योजना और सानुपातिक रेखांकन अपेक्षित है। वेंकटप्पा में यह सामर्थ्य है और वे वस्तु की गहराई में पैठकर उसकी यथार्थता को पा जाने का पूरा प्रयत्न करते हैं ।
वेंकटप्पा के सौंदर्यबोध की दूसरी विशेषता उनका हठयोग है। वे स्वयं निष्ठा के व्यक्ति है। उनका रौबीला आडम्बरहीन व्यक्तित्व हर किसी के समक्ष खुलकर नहीं बिखरता। वे अपने आप में डूबे हुए से रहते है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे निरे असामाजिक है। कभी-कभी उनमें खप्त और झक सी सवार होती है अवश्य, किन्तु उनके रूखे स्वभाव के भीतर इतना सरल और करुणाविगलित हृदय छिपा है कि उनके साहचर्य की स्निग्धता को उनके समीप रहने वाले ही अनुभव कर सकते है। उनका विच्छिन्न चिन्तन उनके व्यक्तित्व की घनता में प्रायः दब जाता है, तथापि उनकी प्रखरता को कुंठित नहीं कर पाता। इनके अनेक चित्रों में अंतर की कुंठा उभर आई है। श्स्वर्णमृगश्, श्लंका तक पुल का निर्माणश् आदि चित्रों में भीतर की उल्लासपूर्ण गरिमा के दर्शन होते है, फिर भी जीवन की नैसर्गिक निष्कृतियों से वे एक दम वंचित नहीं है। स्वर्णमृग में मारीच दूर खड़ा हुआ राम के समीप बैठी जानकी का ध्यान आकर्षित कर रहा है। उसकी छाया समीप ही पोखर के जल में प्रतिबिम्बित हो रही है। राम के मुखारबिन्द पर भावी संकट की द्योतक मायूसी और मलिनता है। सीता भयभीत सी कौतूहलपूर्ण दृष्टि से आदर्श हिन्दू पत्नी की भाँति पति में पूर्ण प्राश्वस्त है । मदोन्मत्त रावण बादलों के अंधकार में खोया हुआ दानवी धृणा को साकार कर रहा है। इस प्रकार राजपूती तर्ज पर कतिपय मानव-चेष्टाओं का इस टेम्परा-चित्रिका में सुन्दर निदर्शन हुआ है।
उनके कुछ अन्य चित्र श्बुद्ध और उनके अनुयायीश्, श्मृगतृष्णाश् श्पक्षी, श्गोचारणश् आदि उनकी सूक्ष्म सौंदर्य-दृष्टि और कल्पनाप्रवण रूप-विधान की विशेषता झलकाते है। इनके सुप्रसिद्ध चित्र श्संगीत मण्डलीश् में राजपूत और मुगल चित्रण पद्धति का अनुसरण किया गया है, अतएव इसमें वैयक्तिक या निजी आग्रह नही है । ऐसे चित्रों में एक विशेष प्रकार की प्रारोपित स्थूलता और सम धरातलता ही प्रादि से अंत तक मिलती है।
ये उभरे भित्ति-चित्रण में भी अत्यन्त दक्ष है। मैसूर महाराज स्वर्गीय कृष्ण राजेन्द्र जी के आग्रह से इन्होंने दरबार हाल के अम्बाविलाम में बद्ध और राम के जीवन-प्रसंगों का आकर्षक अकन किया था। श्भिक्षक के रूप में बुद्धश् और श्हनुमान को अंगूठी देते हुए रामश् प्राचीन और अर्वाचीन चित्रण परम्परा के अदभूत समन्वय के दिग्दर्शक हैं। बहुत कम भारतीय चित्रकार इस ढंग की चित्रण-पद्धति अपना सके है । दुःख है कि ये मूल्यवान कला-निधियाँ महलों में ही बन्दी होकर सामान्य जनों की दृष्टि से दूर जा पड़ी है। इन्होंने लघु आकृति चित्रों का भी हाथी दाँत पर निर्माण किया है। इनके प्राथमिक छवि-चित्रों में अवनीन्द्र नाथ ठाकुर, रामास्वामी मुदालियर और महाराजा मैसूर के चित्र उल्लेखनीय हैं। कचविहार की महारानी ने अपने मृत पति का एक आकर्षक छवि-चित्र इन्हीं से तैयार कराया था। राजा-महाराजाओं और वैभवशालियों के पास रहकर भी इनका दुर्दम्य व्यक्तित्त्व कभी दमित न हुआ। प्रारम्भ से ही इन्होंने जो ढंग अख्तियार किया था-वह किसी के दबाव से नहीं बदला, न ही कला के गम्भीर प्रयोजन को इन्होंने चटकीले रंगों के आकर्षण में भटकने दिया। जहाँ कहीं भी उनकी अन्तर्भावनाओं को उन्मुक्त अभिव्यक्ति न मिली. तुरन्त ही इनमें प्रतिवाद का भाव प्रकट हो गया । इनकी अपनी शर्ते हैं, अपना एक पृथक् तरीका है । इनकी कुछ निजी धारणाएँ ऐसी दृढ़ हैं कि अपने प्रति सच्चे रहकर इन्होंने निर्भीक और निश्चित बुद्धि से कला-सृजन में योग दिया है।
वेंकटप्पा में कलाकार की अहम्मन्यता है, पर कृत्रिमता नही। इनकी आन्तरिक निष्ठा और अटूट विश्वास इनके कृतित्व में द्रष्टव्य है जिससे सामान्य दर्शक प्रभावित ही नहीं-अभिभूत हो जाता है। इनकी विचारों की उच्चता, व्यक्तित्त्व की उत्कटता और जीवन के मार्मिक सत्य ने ही इनकी कला को स्फूर्ती और प्रेरित किया है, उसमें रस दिया है, सौंदर्य भरा है । तथा दैनंदिन जीवन की क्षुद्रतानों से ऊपर उठा कर इन्हें कला-साधना के कठिन पथ का राही बनाया है। इनके जीवन का स्वप्न स्वयं कला-साधक बनकर दूसरों को भी इसी ओर प्रेरित करना है। इनका स्वप्न बहुत कुछ अंशों में सत्य हा है और यद्यपि वृद्धावस्था ने इनकी शक्ति को क्षीण किया है, तथापि कला को सशक्त और समृद्ध बनाने में ये आज भी प्रयत्नशील हैं।

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