अवनीन्द्र नाथ ठाकुर
भारतीय चित्रकला की सर्वांगीण उन्नति के लिए एक महाशक्ति के रूप में प्राचार्य अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का अभ्युदय उस समय हुआ था जब कि यहाँ चिर-सृजनाकांक्षा उन्मुक्त विचरण छोड़ कर विदेशी कंचनकारा में आबद्ध हो चुकी थी। वर्तमान कला-धारा का कोई ऐसा प्रमुख पक्ष नहीं है जिसका श्रीगणेश इस कला-साधक के हाथों न हुआ हो। अवनी बाबू की मौलिक प्रेरणा इतनी जागरूक थी कि जब पाश्चात्य और पौर्वात्य कलारूपों में अंतविरोध उठ खड़ा हुआ था और विदेशी दासता भारतीय कला की आत्मा पर पदाघात कर चुकी थी तो उन्होंने साहस पूर्वक आगे बढ़ कर उसका नेतृत्व किया। उन्होंने यहाँ की शिथिल, जर्जर कला-सम्पद् को पतन के गर्त से ही नहीं उबारा, वरन् उसका नवीन संस्करण कर उसमें गहराई और अभिनव सौन्दर्य भी भरा। उन की बहुमुखी कला-चेतना भारतीय चित्रकला के व्यक्तित्व के साथ इस परिपूर्णता से समाहित हुई सी लगती है कि कला का कोई भी पहलू ऐसा अछूता नहीं बचा है जिसकी मूल सत्ता से उनका तादात्म्य न हुआ हो ।
कलकत्ता के इटालियन प्रिंसिपल सिन्योर प्रो. गिलहार्डी तथा एक अन्य अंग्रेज आर्टिस्ट चार्ल्स पामर के तत्त्वावधान में उन्होंने पैस्टेल और तैल-चित्र बनाने का अभ्यास किया, लेकिन इससे उन्हें संतोष न हुआ। पाश्चात्य कला टेकनीक के वे प्रशंसक तो थे, पर वह उनके अंतर में न धंस सकी थी। देशी झाँकियाँ और वे मधुर स्वप्न जो उनके भीतर बचपन से संचित होते गए थे कालान्तर में उनकी आत्मा के सच्चे प्रतीक बन कर रंग और रेखाओं में बिखर गए। उन्होंने स्वयं लिखा है, श्जोड़ासाँको भवन के अंतःपुर में प्रसाधन के समय जो सुन्दर मुख दिखाई देते थे मन ने उन सबका संग्रह कर लिया। तुम उनमें से कइयों को मेरे श्दुलहन का शृंगारश् चित्र में पाओगे। सुख-स्वप्न को तोड़ने वाली जो दाह है उसने भी मेरे मन के उस संचय को श्शाहजहाँ की मृत्यु-शय्याश् में उड़ेल दिया। इत्रवाला यहूदी गैब्रियल साहब आया करता था। उसे देख कर यों लगता था जैसे शाइलोक का चित्र सजीव होकर जोड़ासाँको के दक्षिण बरामदे में इस्ताम्बूल का इत्र बेचने उतर आया हो। गैब्रियल साहब की ढीली अचकन और चूड़ीदार आस्तीन, पतले-पतले बटनों की कतार की जगमगाहट--इन सबको मैंने औरंगजेब के चित्र में ज्यों का त्यों उतार दिया। बाल्यावस्था में इन्हें अपने भाई गगनेन्द्र नाथ ठाकुर और रवि काका अर्थात् रवीन्द्रनाथ ठाकुर से चित्रांकन की प्रेरणा मिली थी। वे लिखते हैं-श्एक दिन मेरी चित्रशाला में आकर रवि काका ने चित्र बनाने का आदेश दिया। श्चित्रांगदाश् उस समय ताजा ही लिखा गया था। रवि काका ने कहा-उसके चित्र प्रस्तुत करने हैं। मुझ में भी हिम्मत आई। उत्तर दिया--तैयार हूँ और श्चित्रांगदाश् के सब चित्र तैयार कर डाले। उनकी प्रतिकृति सहित श्चित्रांगदाश् प्रकाशित हुई। उन चित्रों को निहार कर आज तो निःसन्देह हँसी आती है, किन्तु रवि काका के साथ मेरे कला-सम्बन्धों का यह प्रथम संकेत है। तब से लेकर आज तक कितनी ही बार रवि काका के साथ इस दिशा में कार्य किया। उनसे प्रेरणा पाई । आज तक मैं जो कुछ कर सका हूँ उसके मूल में उनकी ही प्रेरणा रही है।
तत्पश्चात् कलकत्ता के गवर्नमेंट स्कूल आफ आर्ट के प्रिसिंपल और गवर्नमेंट आर्ट गैलरी के क्यूरेटर ई० बी० हेवेल ने, जो भारतीय कला-परम्पराओं के संधान में उन दिनों विशेष दिलचस्पी ले रहे थे और आर्ट गैलरी के यूरोपियन चित्रों को हटाकर मुगल, राजपूत और फारसी शैली के चित्रों को अधिक सम्मान प्रदान कर चुके थे, अवनी बाबू को निजी देशीय कला अपनाने और इस दिशा में अगुवा बनने को प्रोत्साहित किया। उन्होंने अपने साथ कार्य करने के लिए उन्हें आर्ट स्कूल का उपाध्यक्ष नियुक्त कर लिया। अवनी बाबू हेवेल द्वारा सौंपे गए इम महान् उत्तरदायित्व को संभाल सके और भारतीय चित्रकला के ऐश्वर्य में झांकते ही उनका पथ प्रशस्त हो गया। रामायण, महाभारत, पुराण, दर्शन और अन्य महत्त्वपूर्ण धार्मिक एवं ऐतिहामिक आख्यानों से उन्होंने कितने ही ऐसे विषय चुने जो रंग और तुलिका के योग मे एक दम सजीव हो उठे हैं। बहुत पहले ही अवनी बाबू यह बखूबी ममझ गए थे कि भारतीय कला उन तत्वों को लेकर जियेगी जो उसके हैं और उसकी जान है। उन्होने यहाँ की सांस्कृतिक परम्परा के अनुरूप देशी ढंग अख्तियार किया, यों उसमें नवयुग की मांग के अनुसार नई बौद्धिक पीठिका, नये विषय, पाश्चात्य कला टेकनीक को भी, जहाँ ठीक समझा, उचित समन्वय कर नई कल्पनाएँ दीं। उनकी सरम आस्थाबान प्रकृति ने उन्हें इतना पारदर्शक बना दिया था कि कोरी कल्पनाओं और स्वप्नों में न रम कर वे जीवन - की संयत शक्ति को कला में रूपायित देखना चाहते थे । उनकी दृढ़ धारणा थी-कला अन्तर की वस्तु है। आन्तर प्रेरणा ही अभिव्यक्ति और सृजनात्मक प्रतिभा को जागरूक करती है। जहाँ अन्तर्नुभूति न होगी वहाँ ऊपरी लीपापोती से होगा ही क्या ?
अंतर्मन की सूक्ष्मता उनके व्यक्तित्व के साथ इस प्रकार अंतगूढ थी कि उन्होंने स्वयं में और अपने शिष्यों में इसी चीज को समझा-परखा । अपने संस्मरण श्जोड़ासाँकार धारेश् में उन्होंने अपने प्रिय शिष्य नन्दलाल बसु के सम्बन्ध में एक प्रसंग की चर्चा की है--श्एक बार की बात सुनाता है। नन्दलाल ने श्उमा की तपस्याश् नामक एक बड़ा चित्र बनाया। पहाड़ पर खड़ी-खड़ी उमा शिव के लिए तप कर रही है। उसके पार्श्व में मस्तक के पीछे चन्द्र की पतली सी रेखा है। इस चित्र में रंग जैसी कोई विशेष वस्तु नहीं थी। समूचे चित्र में गेरुए रंग का आभास था। मैंने कहा श्नन्दलाल ! इस चित्र में थोड़ा भी रंग नहीं रखा। इसकी तरफ देखते हुए हृदय में कुछ हो जाता है। अधिक नहीं तो उमा को जरा सजा दे। इसके भाल पर जरा चन्दन लगा दे । कम से कम एक चम्पा का फूल।श् घर आ गया, परन्तु रात को नींद नहीं आई, रह-रह कर मस्तिष्क में प्रश्न उठने लगा । मैंने इतना अधिक नन्दलाल को क्यों कह डाला ? कदाचित् उमा को उसने मेरी तरह न देखा हो। कदाचित् उसने उमा का यह रूप ही निहारा हो जिसमें उमा पाषाण सी दृढ़ है और कठिन तप करते करते उसका रंग, रूप, रस सब कुछ चला गया है। इसी से तो श्उमा का तपश् देखते हुए हृदय फटा जाता है। फिर वह किस प्रकार चन्दन लगाए ? उस रात नींद नहीं आई। कब प्रभात होता है यही सोचते-सोचते तड़पता रहा। प्रातःकाल होते ही नन्दलाल के पास दौड़ा गया। डर था कि उसने मेरी बात सुनकर कदाचित् रात में ही उस पर हाथ चलाया हो। जाकर देखा तो नन्दलाल चित्र के सामने बैठकर उस पर कुची फेरने से पूर्व विचार कर रहा था। मैंने कहा, श्क्या करते हो, नन्दलाल ! ठहरो ठहरो, मैं कैसी भूल कर रहा था। तुम्हारी उमा ठीक ही है । अब उस पर अधिक हाथ चलाने की आवश्यकता नही ।श्नन्दलाल ने कहा, श्आप कह गए थे कि उमा को जरा सजा दे। सारी रात मैं भी इस पर विचार करता रहा, इस समय भी इस पर विचार कर रहा था।श् कैसा सर्वनाश कर बैठता मैं ? जरा देर लगती तो ऐसा सुन्दर चित्र नष्ट हो जाता। तब से मैं बहुत सावधान हो गया हूँ और समझ गया हूँ कि चित्र तो सबका अपना अपना सृजन है।श्
अवनी बाबू की यह प्रांतर प्रेरणा इतनी उदात्त थी कि बहतों की प्रेरणा के निकट रह कर भी वे इतनी उच्च स्थिति में जा पहुंचे थे कि सामान्य व्यक्ति की पकड़ से बाहर थे। उनका भोक्ता मन सृजन-प्रक्रिया से विलगाव लिये था। कितनी बार उन्होंने उन चित्रों को मिटाया जिनपर घण्टों वे कूची फेरते रहे थे। वे कहते थे-यदि चित्र में किसी प्रकार की त्रुटि रह जाय तो उसे नये सिरे से बनाना चाहिए। पुनरू पुनरू एक ही विषय को लेकर चित्रण किया जाय तो हानि क्या है। किसी ... चीज को एक ही ढंग से ऑका जाय--यह दुराग्रह ठीक नहीं है। चित्रकर्म साधना से सफल बनाना चाहिए। अवनी बाबू के चित्रों में उनकी आत्मा प्रतिबिम्बित हो उठी और अतर के रम में डूब कर श्भारत माताश् श्राधाकृष्णश् और श्उमरखैय्यामश् की चित्रावली ‘तिक्ष्यरक्षिताश्, श्शकुन्तलाश् श्कजरीश्, श्देवदामीश्, श्अभिसारिकाश्, श्भगवान तथागतश्, श्हर पार्वतीश्, श्सतीश्, श्गणेशजननीश्, श्दुर्गाश्, श्कमलाश्, श्अर्जुनश्, श्विरही यक्षश्, श्पनिहारिनश्, श्माँश् श्सन्थाल युवतीश्, श्बालकश्, श्मयूरश्, श्नर्तकियाँश्ए श्अंजनाश्, श्मॉझीश्, श्वियोगिनीश्, श्ध्यान मग्नाश्, श्प्रेयसीश्, श्पुजारिनश्, श्सुप्ताश्, श्युवतीश्, श्एक युवती और दो सखियाँश्, श्स्वतन्त्रता का स्वप्नश्, श्पद्म पत्र में अश्रुबिन्दुश्, श्वैतालिकश्, श्रेगिस्तान में संध्याश्, श्औरंगजेब का बुढ़ापाश्, श्रवीन्द्रनाथ का महा प्रयाणश्, श्दीनबन्धु ऐण्ड्र जीश्, श्गाँधी जी की दांडी यात्राश्, श्कृष्ण मंगलश् के तैतीस चित्र--इस प्रकार कितनी ही उत्कृष्ट कृतियाँ उनकी भावनाओं की सच्ची प्रतीक बनकर प्रकट हुई जो कलाकारो का सदैव पथप्रदर्शन करती रहेंगी।
चित्रों में सहज, सरल, स्वाभाविक विश्वासों को उतार देना, यहाँ तक कि मानव-मन की गहराइयों में पैठ कर सूक्ष्मतम भावों की अभिव्यंजना करना ही उनका ध्येय रहा। हर चीज को वे मौलिक रूप में ग्रहण करते थे। जो उनका अपना न था उसे भी वे आत्मीय भाव से ग्रहण करते और अपना बना लेते। जापानी कलाकार टाइकान और हिषिदा से भी वे प्रभावित हुए थे, फलतः जापानी, ईरानी, चीनी और अन्य विदेशी तत्त्वों को प्रात्मसात् करके वे उस रूप-विधान में समर्थ हुए जो भारतीय कला को नई दिशा, नई कल्पना, नया अर्थ और गहराई दे सका। उनकी कला का सर्वश्रेष्ठ अवदान है भारतीय कला को, उसके इतिहास को, उसके गौरव को समझना, प्राचीनता और नवीनता का सामंजस्य करके अभिव्यक्ति को सबल और समयानुकूल बनाना। अवनी बाबू ने पूरी शक्ति से कला के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करके एक समन्वयशील पथ अपनाया था। वे सृजन को एकदेशीय अथवा किसी प्रकार की संकीर्ण परिधि में बन्दी न बनाना चाहते थे। अनुभति और विश्वास साधना से प्राप्त होते हैं और गंभीर साधना से ही कला की सच्ची उपलब्धि होती है।
उनके चित्रों में प्रेम, आकर्षण, भक्ति, वात्सल्य और पार्थिव-अपार्थिव सम्मोहक भाव हल्के-गहरे रंगों में उभर आए हैं । कहीं रूमानी, कही विचित्र नीरव रहस्यात्मक कुहासा, कहीं उच्छ्वसित तरंगित भाव और कहीं अवसाद की धूमिलता उनकी सर्जना में एक गरिमामयी छन्दोबद्धता के साथ लहर लहर उठती है। उनमें यदि एक युगद्रष्टा कलाकार की जागृति और एक महान् सर्जक की चेतना थी तो एक साधक की समन्वयता और अनन्यता भी। चित्रों में उनकी मानवता और उदार समन्वयशील प्रवृत्तियाँ इतनी खुलकर व्यक्त हुई कि जीवन के अनेकों स्तरों में उनका अवतरण हुआ।
अपने लघुचित्रों में अवनी बाबू ने मुगल, राजपूत और पहाड़ी चित्रशैली के अनुरूप रंगों को ढाला, किन्तु ऐसे चित्रों में रूप, कल्पना, रंग-रेखाएं और सधा चित्रण मुगल, राजपूत और पहाड़ी कलाविदों को भी मात कर गया। उनकी कला-टेकनीक, दृष्टिभंगी और विषयों के चुनाव का इतना व्यापक फैलाव था कि किसी एक सीमा में उसे आबद्ध नहीं किया जा सकता। जीवन के विविध रूप, चिंतन, दार्शनिकता, वैचारिक संघर्ष, सत्य-असत्य और नश्वर-अनश्वर को इस कला-शिल्पी ने बड़ी सूक्ष्म तूलिका से अंकित किया है। उनकी समन्वयशील बुद्धि दूर तक रमी, इतनी शैलियों और देशी-विदेशी कला-परम्पराओं को समेटती गई कि बहतों को उनमें विसंगतियाँ नजर आई। उनकी कला-शैली का काफी दिनों तक विरोध हुआ और उन्हें जीवन में उपेक्षा भी सहनी पड़ी।
वद्धावस्था में उन्हें चित्रण से अधिक खिलौनों के निर्माण और लकड़ी के टुकड़ांे, टहनियों, घास के तिनकों से विविध आकृत्तियाँ बनाना अच्छा लगता था। वे कहा करते थे श्वृद्धावस्था दूसरी बाल्यावस्था है। इसलिए मुझे खिलौना बनाने में बहुत ही मजा आता है।श् लकड़ी के टुकड़ों को छीलकर उसमें किंचित तराश और कटाव करके वे उसमंे आँख लगा देते और तत्क्षण वह घड़ियाल या अन्य कोई जानवर बन जाता। बाँस की गाँठ और पेड की ठंुठ से उन्होंने सिंह आदि कितनी ही पशुओं की मुखाकृतियाँ बनाई थीं। मिट्टी के हल्के-फुल्के खिलौनों में भी उन्होंने अंतर का वह उल्लास व्यक्त किया जो खेल-खेल में नये प्रयोग बन गए। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों मे-श्जब कभी मैं सोचता हूँ कि बंगाल में सर्वाधिक सम्मान का अधिकारी कौन है तो मेरे समक्ष सबसे पहला नाम अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का आता है। उन्होंने देश की कला चेतना को पुनः जाग्रत कर एक नवीन युग का समारम्भ किया। उन्ही से भारत ने अपने विस्मत अतीत के गौरव का नया पाठ पढ़ा है।