क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार (Kshitindranath Majumdar)


क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार का "जन्म 31 जुलाई सन 1891 ई०" मे 'पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के नीमतीता गाॅव' मे हुआ
आधुनिक कला के क्षेत्र में अध्यात्म को आधार मानकर जीवन की सर्वात्मकता एवं समग्रता के आन्तरिक ऐक्य में प्रास्था रखने वाले कलाकारों में क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार अग्रगणी कलाकार हैं । ये भी अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रधान शिष्यों में से बंगाल स्कूल के सहयोगी और कला की पुनर्जागति में योग देने वालों में से एक हैं । शुरू से ही इन्होंने एक सहज निजी अनुभूत दर्शन अपना लिया था । अपने स्वभाव की सरल कोमलता अंतर्मुखी वृत्ति एवं भीतरी तृप्ति के कारण विरोधाभासों और द्वन्द्वात्मक अनुभूति का परित्याग कर ये बहुत पहले ही जीवन के समत्व पर आ टिके थे। अतएव कभी भी अपनी कला को इन्होंने वादग्रस्त नहीं बनाया । अभिव्यक्ति में वे उस सुषमा के संधान में लीन हो गए जो आध्यात्मिक आनन्दानुभूति की मधुरिमा से ओतप्रोत थी।
एक सजग प्रेक्षक की भाँति इनके काम करने की पृथक् प्रणाली है । इनकी रस-संवेदना इतनी विकसित हो चुकी है कि आत्मा और देह में विभेद किये बगैर इन्होंने जीवन के पूर्णतम सत्य से प्रिय को पुचकारते हुए साक्षात्कार किया है. तभी तो वे चैतन्य महाप्रभु के आध्यात्मिक व्यक्तित्व और राधा-कृष्ण की सैंकड़ों लिलाओं का रहस्यात्मक ढंग से चित्रांकन कर सके हैं । मजूमदार की अधिकांश उत्कृष्ट मौलिक कृतियाँ बंगाल के इसी महान संत की जीवन-धारा से प्रेरित हुई हैं । कलाकार की रेखाएँ अनुभव की गहराईयों में डुबकर प्रकट हुई हैं, स्निग्धता और मरमता के कगारों को छूकर वे कोमल करुण के संस्पर्श से मानों प्रकम्पित सी हो उठी हैं । कौन सी रेखा है जो करुणा तरलता से मिक्त नहीं है कौन सा ऐसा उल्लसित विराट भाव है जो भीतर अनन्त प्रकाश की व्यापकता में नहीं रम गया है और कौन सी ऐमी व्यंजित भंगिमा है जो निलिप्त व अतिमानवीय सौंदर्य की सृष्टि नहीं कर रही है । क्षितीन्द्र मजूमदार कट्टर वैष्णव हैं । अपने दुर्बल शरीर, दूर भटकती दृष्टि, अनासक्त भाव और हवा में फहराते बालों से वे साधनानिष्ठ योगी से लगते हैं जिन्होंने अपने आराध्य को पाने के लिए जीवन उत्सर्ग किया है। उनकी चेतना अपने द्वारा सृजित विश्व में निरीह शिशु सी विचरती है। कल्पना के कलेवर को भावाच्छन्न करके वे अपनी शक्ति और स्फूति को केन्द्रित कर जीवन के भीतर झाँका करते हैं।
यद्यपि वे सदैव प्रभावों में पले और शिक्षा भी उन्हें पूरी न मिल सकी, तथापि बचपन से ही उनका रुझान कला की ओर था। प्रारम्भ से ही ये अत्यधिक संकोची और बहुत कम बातचीत करते थे। चुपचाप किसी कोने में कागज व कूंची लेकर बैठना और काम करना उन्हें रुचिकर था। उन्हें ख्याति या किसी के द्वारा पीठ ठोके जाने की कतई पर्वाह न थी। भावना की सचाई, अध्यात्म की खोज, सामंजस्य का ध्यान और कलाकार की आश्चर्यजनक संवेदना ने ऐसे धार्मिक विषयों को चुना है, साथ ही ऐसे वातावरण की भी सृष्टि की है जो अपार्थिव और अपनी समग्रता में डूबा हुआ है । तरल संयत रेखाओं और धुमिल रंगों में रामलीला का अपूर्व दृश्य-चित्र जबकि रामराज कृष्ण की अभ्यर्थना में मदमत्त गोपियाँ ज्ञात और अज्ञात से अभय, श्रेय और उनके अलसाये अलमस्त राग भू-नभ की सर्वव्यापी अनंतता को अपने आप में समेटते हुए रुपहली रात्रि की स्पहणीय सुशमा में प्रोतप्रोत पुष्पों की आकर्षक रूपाभा और मलयज मारुत की तन्द्रिल सुरभि के अजस्र अनंत प्रवाह में सबको हतचेतन सा कर रहे हैं। कलाकार क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार की अनुभूति की तीव्रता ने समस्त गोचर उपकरणों को सहज संवेदनीय और वरेण्य बना दिया है। रासलीला की दो आकर्पक भंगिभाएँ प्रस्तुत की गई हैं जिनमें प्रेम और अखंड चेतना भक्ति और श्रृंगार का मोहक सौन्दर्य झरता हुआ मनो भावना और पावनता विखेर रहा है। रासलीला के एक दृश्य में नृत्य करती हुई प्रत्येक गोपिका के साथ कृष्ण दिखाये गए हैं, समची मंडली मानों उन्माद की सी स्थिति में तन्मय होकर थिरक रही है। दूसरे दृश्य में कृष्ण मध्य में खड़े है और गोपिकाएँ एक दूसरे का हाथ पकड़े गोल घेरा बनाये हुए आनन्द-सागर में निसज्जित सी हो रही हैं। वृन्दावन की इन भोली-भाली व्रजांगनाओं में दिव्य प्रेम का स्रोत प्रस्फुरित है, मानों उनकी समस्त प्राभक्ति-अनाभक्ति अपने प्रिय की अचिन्त्य रूप माधुरी में खो गई है । सौन्दर्य और निष्ठा का यह कैसा द्युतिमान दृश्य है।
एक दुसरे चित्र भेटत राधा स्याम तमालहि में राधा भावावेश में तमाल वृक्ष की श्यामता पर मुग्ध हो उसे कृष्ण के रंग से मिलता-जुलता जानकर चिपट जाती है। राधा-कृष्ण और गोप-गोपियों के बड़े ही हृदयस्पर्शी अनूठे प्रसंग इनकी तूलिका से निस्मृत हुए हैं । कहीं वे प्रेम-संदेश भेज रही हैं कहीं प्रिय की स्मृति में अपनी सुधबुध खोये हुए हैं कहीं कृष्ण की किसी भी वस्तु का स्मृण करके व्याकुल हो जाती हैं, कहीं चित्र में उनके सुन्दर मुखड़े को निहार रही हैं और कहीं अन्न-जल आभूषण-वस्त्र सब कुछ भूलकर श्याम के प्रेम में दीवानी हो रही हैं । चैतन्य महाप्रभु के जीवन-प्रसंग भी उतने ही कारुणिक और मर्मस्पर्शी हैं। चैतन्य की चटशाला गुरु के द्वार पर चैतन्य का गृह परित्याग संत के रूप में, कृष्ण प्रेम में विभोर, पर साथ ही उनके घर की शुन्यता और पत्नी का दैन्य यों भिन्न-भिन्न स्थितियों में एक सरल आकर्पण लेकर ये चित्र प्रकट हुए हैं । बरबस सिमटी करुणा दीनता अथवा प्रतिकूल वातावरण को भी वे अपनी सरस स्निग्धता से दिव्य बना देते हैं। यमुना चित्र में सौम्य आकर्षण के साथ-साथ इन्होंने आलंकारिक सज्जा की प्रवृत्ति भी दर्शायी है । शकुन्तला में रंगमय मोहक वातावरण विषय के प्राणों को प्रस्फुरित करता हुआ रंगों की ताजगी में घुलमिल जाता है। शकुन्तला की शारीरिक भंगिमा में शृंगारिक पुट है जो अत्यन्त कौशल से व्यंजित हुआ है।
क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार के चित्रों की विशेषता है कि इनकी रंग और रेखाएँ किसी रूप विशेष की द्योतक न होकर इनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति में तदरूप हो उठी हैं। हरे पीले बैंगनी रंगों का हल्का, तरल फैलाव इनके चित्रों को सहज आकर्षण और रहस्यमयता से ओतप्रोत कर देता है। ये एक अन्तर्दर्शी कलाकार तो हैं ही कवि हृदय भी रखते हैं। उतमारो की स्वप्नमयी नारियों की भाँति मजूमदार की नायिकाएँ और देवियाँ रंग-रूप के अपार्थिव लोक में विचरती हैं। इनके चित्रों में मानवीय आकृतियाँ अद्भुत लुनाई और चारुता लिये हैं
यद्यपि अनभ्यस्त आँखों को यदाकदा वे दुर्बल क्षीण और वुभुक्षित सी प्रतीत होती हैं। उनके झुके हुए शीश पतली लम्बी मुड़ी हुई उंगलियाँ और शरीर के मोड़ तोड़ में इस दुनिया से परे किसी अपर लोक की झाँकी है।
मजूमदार उन थोड़े से कलाकारों में से हैं जिन्हें सच्ची अन्तर्रेरणा की अनुभूति हुई है। यही कारण है कि उन्होंने कला में एक नई दिशा चुनी है और अभिव्यक्ति का नूतन ढंग अपनाया है। उन्होंने कभी किसी की अनुकृति नहीं की, पर इससे उनकी कला ऊसर भागों में नहीं भटकी । पैनी दृष्टि दुर्दम्य इच्छाशक्ति और अपने निराले दृष्टिकोणों से इन्होंने उस भव्य कल्पना को साकार किया जो प्रिय पक्षी उनको अत्यन्त प्रान्तर कोमलता की परिचायक है। वर्षों से तीर्थराज प्रयाग में रहकर वे कला-साधना में प्रवृत्त हैं। वे प्रात्म-प्रचार की ओछी भावनाओं से परे हैं और तुच्छताएँ उन्हें छू नहीं पातीं। एकान्त में मूक साधक होकर भी वे इस युग के श्रेष्ठ, प्रतिभाशाली कलाकारों की कोटि में आ चुके हैं कि जिनकी कलात्मक उपलब्धियाँ आज अशान्त कोलाहलपूर्ण वातावरण में भी शानदार गरिमा के साथ मुखर दीख पड़ती हैं।
लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्से तक ये फाइन आर्टस में लेक्चरार के पद पर कार्य करते रहे। कलकत्ता म्यूजियम, भारत कलाभवन, वाराणसी, कलकत्ता की आशुतोष म्यूजियम, नेशनल गैलरी ऑफ माडर्न आर्ट आदि कला-संग्रहालयों में इनके चित्र सुरक्षित हैं ।
क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार की "मृत्यु 09 फरवरी 1975 ई०" को 'इलाहाबाद' मे हुई।
प्रसिद्ध चित्र - तपस्वीध्रुव तारा , राधा का अभिसार , चेतन्य का ग्रह त्याग , अभिसारीका , समर्पण और मीराबाई , जयदेव व पदमावती

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