सुधीर खास्तगीर {Sudhir Khastagir}


कलाकार बन्धनों से मुक्त है, उसकी उन्मुक्ति ही कला की सत्यता की कसौटी है। सुधीर खास्तगीर का विशिष्ट गुण है कि उनका सृजन किसी एक दिशा में बद्ध नहीं है । उनके व्यंजना-कौशल ने प्रेरणा के इतने भिन्न बहुमुखी छोरों को छुआ है कि इनकी कला बड़ी ही प्राणवान सिद्ध हुई है। चित्रण, मुर्तिकला, लिनोकट, चारकोल-चित्रण, कैनवास-पेंटिंग, तैल-चित्र, पेंसिलस्केच तथा कोई भी रंग, रेखा,शैली नहीं जो इनकी तूली से अछूती हो। इनके सर्वोत्तम चित्रों में बड़ी ही तन्मय, प्रेरक निष्ठा और अंतस्तल को आन्दोलित करने वाली व्यंजना है । चित्रों में एक नई रूह फूंक दी गई है और कूची के सहज संस्पर्श से वे गतिमय हो उठे हैं।
खास्तगीर के लिए कला चिन्तनीय और रचनात्मक दोनों है। रेखायों अथवा मिट्टी को आकार देने के पूर्व वे अपने चिन्तन को बौद्धिक रूप से नहीं बल्कि अन्तर्भाव से ग्रहण करते हैं। अन्तर्नुभूत सौंदर्य को प्रकट करने में वे सदैव सचेष्ट रहे हैं और चिन्त्य वस्तु के साथ उनकी भावनाओं का तादात्म्य सा हो जाता है। कल्पना की रंगीन रेखाएं कागज, कैनवास अथवा मिट्टी में उतरने से पूर्व उनके मन के क्षितिज पर उद्भासित हो उठती हैं और भीतर विलय होकर उनकी कल्पना को मूर्त करती हैं। द्रष्टा को लगभग वही अनुभव होता है जो स्रष्टा ने सृजन करते हुए महसूस किया होगा।
राबर्ट ब्रिजेज के शब्दों में श् कला आत्मा की तस्वीर एवं जीवन की अभिव्यंजना है। श् वस्तुतः जीवन के सुख-दुरूख, आशा-निराशा, हास्य-रुदन और अति सूक्ष्म क्रिया-कम्पन कलाकार के हृदय में पुलक और प्राणों में स्पन्दन भर देते हैं और इन सूक्ष्म साधनों की दिव्य अनुभूति ही सच्ची कला का आधार बनती है। उसकी सारग्राहिणी सूक्ष्म कल्पना आंतर अनुभूति में पैठकर जीवन से सम्पर्क रखने वाली वस्तुओं पर दृष्टिपात करती है और उनमें भावना और औत्सुक्य जाग्रत करती है। प्रकृति की विभूतियों को देख कर कलाकार उन पर मुग्ध हो जाता है और फिर वह सौन्दर्य के सृजन में क्या कुछ नहीं लुटाता ? कभी तो ज्योतिर्पथ में बिखरे अगणित तारे उसे अपनी ओर आकर्षित कर लेते है, कभी शरद्कालीन चन्द्रिका, प्रभात की प्रथम रश्मि के संस्पर्श से विहंगिनी के कलकंठ से फूटे गान, गंगा की चपल लहरों पर आकाश का प्रतिबिम्ब, शुभ्र चट्टानों के वृक्ष पर मचलते झरने, प्रकृति की क्रीड़ाक्रोड़ के अनगिनत रंगों का जादू भरा आकर्षण, हरीभरी यौवन से इठलाती लतिकाएँ, लहलहाते खेत, झूमते हुए वृक्ष, धीमे-धीमे अविरल गति से बहते हुए वायु के झोंके उसकी प्रेरणा के उत्स बनते हैं और कभी उसका भावुक और कोमल हृदय मानव-पीड़ा से क्षुब्ध होकर उसी में रम जाने को मचल उठता है। प्रकृति की प्रत्येक वस्तू मानो मौन निमंत्रण द्वारा उसे अपने पास बुलाती है और दृश्यजगत् के नाना रूप और व्यापार उसे विस्मय-विभोर कर लेते हैं।
सुधीर खास्तगीर की कला में भिन्न-भिन्न मनःस्थितियों के अगणित चित्र भरे पड़े है। इस महान् कलाकार की सूक्ष्म अन्तर्भेदिनी दृष्टि जीवन-रहस्यों के अनुसंधान में, शाश्वत शक्ति के समष्टि-चितन में, जग के क्रन्दन, उत्पीड़न, आशा-आकांक्षाओं की सहज उद्धृति में उसके प्राणों को चीर कर, उसकी चेतना-परिधि को तोड़ कर दूर, बहुत दूर तक फैल गई है।
उसका दृष्टिकोण सार्वजनीक है, वह चारों ओर देखता है, अपने हृद्गत भावों का चित्र उतारने में वह सफल हृआ है। वह अपने अन्तरतम की सिहरन, स्पन्दन और कम्पन को रंगों एवं तूलिका की सहायता से कागज पर उतारने में समर्थ हुआ है । लगता है उसकी चित्रकृतियाँ निरंतन अनुभूतियों की अमर गाथाएँ हैं, अनुभावित सत्य हैं जो कल्पनामय छायालोक से पृथ्वी पर उतर कर अस्पष्ट धुंधले में सिमट जाती हैं। एक चतुर चितेरे की भाँति अपनी तूलिका से वह असंख्य चित्र बनाता और बिगाड़ता है। उसकी एक-एक रेखा में नूतन से नूतन अनुभव और सरस भाव अन्तर्निहित है । उसकी चेतना ने जीवन का तल स्पर्श किया है। इन चित्रों को देख कर दर्शक अनुभव करता है कि इस दुनिया के पीछे छिपी हुई एक और भी दुनिया है जो भावोन्माद, सृजनात्मक शिल्प-शक्ति और सौंदर्य-बोध की भित्तियों पर स्थित है।
सुधीर खास्तगीर की कला में पूर्व और पश्चिम दोनों का समन्वय है-अन्तर है व्यवहार-रीतियों में । एक स्थल पर वे लिखते हैं- ष्आधुनिकतावादी प्रयोगों ने कला के जगत में उथल पुथल मचा दी है। यह नहीं कि वहाँ की उथल पुथल का धक्का हमारे समुद्र तट तक पहुंचा ही नहीं, यहाँ जो लोग नरम शिथिल रूप से खड़े थे और जिनकी जड़ें कमजोर थीं और जो अपने मुंह से अपने को प्रगतिशील, सार्वदेशिक और न जाने क्या-क्या बताते थे, उखड़ कर ढह गए, पर जो लोग इस तूफान में थमे रहे, वे तो वे ही थे जो परम्परा के अनुयायी थे । इस तूफान से कुछ बिगड़ा नहीं, बल्कि अपनी अभिज्ञता से उन्होंने कुछ सीखा ही। उन्हीं के लिये पाश्चात्य कला तथा संस्कृति का अन्ध अनुकरण संभव है जिनमें व्यक्तित्व का कुछ बोध नहीं है, और जिन्होंने कभी भारतीय कला तथा संस्कृति के ऐश्वर्य का अनुभव नहीं किया। वे मूर्खतावश अपने को दीवालिया समझते हैं, और जो भी कूड़ा-कर्कट मिल गया उसे अपने झोले में डाल लेते हैं। 
कुछ साल पहले तक-और यदि युद्ध न छिड़ जाता तो अब भी ऐसा ही रहता-यह एक फैशन सा हो रहा था कि भारत से कला के छात्र अपने देश की कला का अध्ययन समाप्त किये बगैर ही विदेशों को विशेषकर यूरोप की यात्रा इसलिए करते थे कि पाश्चात्य कला तथा कला की टेकनीक का अध्ययन करें । मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली ही गलत है। इस प्रकार से अपनी संस्कृति में अपनी कला की जड़ों को गहराई तक जाने दिये बगैर ही विदेशी कलाकारों की टेकनीक तथा शैली का अनुकरण करने से भारतीय कला का ह्राम होगा।
अवश्य ही पारस्परिक लेनदेन की भावना से जो विनिमय होता है, वह वांछनीय है, पर इस सम्बन्ध में यह स्मरण रखना चाहिए कि जिनके पास आवश्यकता से अधिक है, वे ही इस प्रकार के खटराग से फायदा उठा सकते हैं। बिसलर ने चीनी ढंग पर आँके गए आलेख्यों का चित्रण किया। उन्होंने बहुत कुछ लिया, पर वे भिखारी नहीं थे। वे ग्रहण की कला से इस कदर परिचित थे कि उनकी महत्ता ऐसी थी जिस पर दो रायें नहीं हो सकतीं। 
आज की भारतीय कला को विश्व की कला को एक विशेष दान देना है, और इसके वर्तमान तथा भविष्य के रूप के आधार तथा बीज को इसके अपने कलात्मक इतिहास में ढूंढ़ना पड़ेगा, और ऐसा तभी हो सकेगा जब हम इसके सांस्कृतिक उत्तराधिकार के मूल्य को समझें और अपनाएं, और न कि इससे घृणा करें या इसके स्थान पर विदेशी वस्तुओं को ग्रहण करें।
इन्होंने जो कुछ जहाँ से पाया, समझा-बुझा वही अपनी विशिष्ट शैली में व्यक्त कर दिया। भारतीय कला के साथ यूरोपीय कला का स्वस्थ मिश्रण उनकी कला की सफलता का द्योतक है। सुधीर खास्तगीर की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे वस्तु को चित्रित करने से पूर्व उसकी आत्मा में झाँक कर देख लेते हैं। उनके हाथ काम  करते जाते हैं, किन्तु बुद्धि गहन चितन-रत होती है। चाहे कागज हो, चाहे कैन्वास या मिट्टी के लोंदे पर ही मूत्र्ति-निर्माण क्यों न करना हो, वे पहले से ही दृश्य-वस्तु की कल्पना कर लेते हैं और वाह्य प्रसाधनों की सहायता से अन्तस्थ की गुह्यतम स्थिति का यथार्थ अवलोकन करा देते हैं। "भिक्षुणी", "माँ", "गरीब की दुनिया", "विधवा", "दुःख", "तूफान" -सभी में मर्मस्थल को स्पर्श करने वाली सूक्ष्मता से भावों की सृष्टि हुई है। "बाँसुरी बजाने वाले में", जिसे अविराम गति से बाँसुरी का स्वर लहराता ज्ञात होता है उतनी ही त्वरा से राधा-कृष्ण की भंगिमाएँ अंकित हुई हैं। स्वर, लय, ताल एकाकार होकर रंग, रेखाओं और आकर्षक चित्र-सज्जा के साथ समाहित हुए से लगते हैं। "ढोलिए" में भी यही त्वरा और प्रभावोत्पादक सौंदर्य है। कतिपय चित्रों में कमनीय कोमलता और करुणा से प्राप्लावित राग है जो रंगों के मिश्रण से भीतर की नीरव विह्वलता में रम गया है । "नवबधू", "बसन्त", "स्रोत" सभी में जीवन का निगढ़ सत्य व्यंजित हा सा लगता है। कभी-कभी सांसारिक थपेड़े कलाकार के मन को विचलित कर देते हैं और एक क्लांत उदासी उसे आच्छन्न कर लेती है। पत्नी के असमय निधन ने उसके अन्तर को झकझोरा था, जिसकी व्यथा कितने ही चित्रों में साकार होकर उभरी। "विधवा", "दुःख", "गरीब की दुनिया माधुनिक शिक्षा के भार से विपन्न कन्याएँ" निराश और भग्न हृदय की झांकियाँ हैं।
मुर्ति के रूप में निर्मित "महाकवि" और  "विचारक" में कलाकार का अन्तर का चिंतन फूट पड़ा है। जो सूझबूझ और कौशल उनके चित्रों में द्रष्टव्य है वही सजीवता और सच्चाई उनकी मूत्तियों में भी फलित हुई है। उनके लाइन-चिन्न चाहे काले या सफेद अथवा इकरंगे हों बहुत ही स्पष्टता एवं सुनिश्चितता लिये होते हैं । श्पछवाई हवाश् में तरुणी बाला के लहरात बाल और निरावरण शरीर की अस्तव्यस्त स्थिति इकरंगी रेखाओं द्वारा इतनी सजीवता से आँकी गई है कि कलाकार की उदात्त अनभति इस विस्मयकारी निर्माण में आत्मसात् हुई सी प्रतीत होती है । चारकोल पेंटिंग, ब्रुश-ड्राइंग तथा पत्थर चित्रकारी सभी में सुन्दर सजीव चित्रण है। प्रत्येक दृश्य-चित्र कलाकार की आँखों के द्वार से सीधा मानस तक पहुंच जाता है। उसकी कल्पना-शक्ति इतनी विकसित हो गई है कि प्रत्येक छोटे से छोटे, सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ भी मूर्त रूप में उसके समक्ष खिंच जाते हैं और वह अपनी स्वर्णाकांक्षा का प्रदीप लिये उस प्रकाश को खोजता है, जो लोकोत्तर और दिव्य है।
सुधीर खास्तगीर का जीवन, आचार-विचार, कल्पना और चिंतन-शक्ति जीवन के प्रति, जगत् के प्रति, प्रकृति के रहस्यलोक के प्रति इतनी सजग और उबुद्ध है कि आनन्दोल्लास की भव्यता में उनका मन चित्रकला की मूक भाषा से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वातावरण की उल्लासपूर्ण रूपच्छटा ने उनके उत्फुल्ल हृदय को गुदगुदाया है तो जीवन की कशमकश और संघर्षों ने भी उन्हें प्रेरणा प्रदान की है। उच्च अट्टालिकाओं और महलों में उनकी वृत्ति रमी है तो झोपड़ियों में बसे श्रमिकों ने भी उनका ध्यान आकर्षित किया है ।
देहरादून के सुप्रसिद्ध दून स्कूल में कलाविभाग के अध्यक्ष के रूप में खास्तगीर वर्षों कला की अविरत साधना में रत रहे हैं। आजकल लखनऊ के गवर्नमेंट कालेज आफ आर्ट स एण्ड क्राफ्ट्स के प्रिंसिपल हैं। भारत की सभी प्रमुख कला-प्रदर्शिनियों में इन्होंने भाग लिया है और इनके चित्रों ने आकर्षक भंगिमाओं और मोहक रंगच्छटाओं से दर्शकों के मन को अभिभूत किया है। स्टडी टूर पर इन्होंने समूचे भारत और विदेशों की यात्रा की है। लन्दन में दो बार और अमरीका में एक बार इन्होंने अपने चित्रों की प्रदर्शनी भी की है। ये ललित कला अकादमी की जनरल कौंसिल के सदस्य हैं,  "पदश्री" की उपाधि से विभूषित हैं और उत्तर प्रदेशीय कलाकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं । कला के प्रति सहज लगाव ने इन्हें विविध कला-पद्धतियों के अध्ययन की प्रेरणा दी है
और बहतों को अपना अनुयायी बना इन्होंने कला के प्रगति-पथ पर उन्हें अग्रसर किया है।

Post a Comment

أحدث أقدم