अपभ्रंश शैली (जैन शैली) (11वीं सदी से 15वीं सदी तक)


10वीं सदी से 15वीं सदी के बीच अपभ्रंश शैली का विकास जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय (मत) को मानने वाले साधु तीर्थंकरांे एवं अनुयायीयों के द्वारा किया गया। इस शैली मंे निमिर्त अधिकांश चित्र जैन धर्म से सम्बन्धित रहे और इनकों बनाने वाले चित्रकार भी संभवतः जैन साधु रहे होंगे। उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यांे, मूतर्न , एलोरा एवं दक्षिणी भारत के मंदिरों के भित्तिचित्रांे के आकार-प्रकार के द्वारा यह बात स्पष्ट होती है कि बाह्य आक्रमणों के फलस्वरूप धामिर्क प्रचार-प्रसार के चित्रण माध्यम के रूप में विकृत शारीरिक भंगिमाओ एवं प्रतीकात्मक रंगाकन से युक्त एक नवीन शैली का उदय हुआ जो जैन शैली के नाम से पुकारी जाने लगी। चित्रकला में रेखीय विकृतता, आकारगत रूपविकार सम्भवतया पूर्व मध्यकालीन जैन मंिदरों मंे उत्कीर्ण मूर्ति शिल्पों से प्रेरित जान पड़ता है। इन मंदिरों में मूर्ति शिल्पों में अतिभंग, कोणिय तराश, वक्षस्थलों मंे सदृश्य उभार, पतली नासिका, छोटी चिबुक, क्षीण कटि, भारी नितम्ब एवं लम्बवत विशाल नेत्रों का मूर्तन इस काल की कला की विशेषता रही। इसके पश्चात तीर्थंकरों की प्रतिमाओं पर आँख ऊपर से धातु निर्मित या रत्न जड़ित लगायी जाने लगी। मूर्तन के यही अतिशयात्मक रूप चित्रकला मंे अपभ्रंश शैली के रूप में मुखरित हुआ। इस शैली के विकास का मुख्य आधार जैन धर्म को मानने वाला एक नवीन वर्ग बना। गुुजरात एवं मालवा के क्षेत्रों में उभरे इस वर्ग का व्यापार एवं वाणिज्य पर आधिपत्य सा हो गया। जिन्हांेने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अधिकाधिक धार्मिक साहित्य को चित्रित करवाकर जैन उपाश्रयों, मंदिरों और ज्ञान भण्डारों को भंटे स्वरूप प्रदान किये धार्मिक साहित्यांे के चित्रण की परिपाटी 14वीं सदी के अंत तक आते-आते परिपक्व अवस्था मंे पहुंच कर क्षेत्रीय विस्तार के कारण गुजरात से बाहर भी विकसित हुई। कालान्तर मंे उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही इसके नामाकरण के प्रति मतभेद प्रकट हुए।

शैली की खोज एवं नामाकरण

अपभ्रंश चित्रण परम्परा की खोज के संदर्भ में 1913 ई. मंे हरमेन ग्वेट्स का लेख महत्वपूर्ण है जो बर्लिन संग्रहालय में सुरक्षित कल्पसूत्र के चित्रण विधान को रेखांकित करता है। इसके पश्चात् 1924 में बोस्टन संग्रहालय के कल्पसूत्र पर आधारित डाॅ. आनन्द कुमारस्वामी, 1925 ई. मंे एन.सी. मेहता, 1928 ई. मंे अजीत घोष और 1929 ई. में डाॅ. पर्सी ब्राउन के लेखों और शोध अध्ययनों से इस शैली को एक नया विस्तार मिला। इसके पश्चात डाॅ. ओ.सी. गांगुली, हीरानन्द शास्त्री, विजयमुनि, डाॅ. मोतीचन्द्र खजांची, रायकृष्ण दास, कार्ल खण्डालवाला और सरयुदोषी आदि विद्वानांे के लेखों एवं पुस्तकों के द्वारा इस चित्रांकन परम्परा को कला इतिहास मंे एक उचित स्थान प्राप्त हो सका। लेकिन इसके नामकरण को लेकर विद्वानांे मंे मतभेद विद्यमान रहे।

जनै धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से संबद्व सचित्र गं्रथंे मंे ताड़पत्रीय ग्रंथ, कागज ग्रंथ और कपड़े के पट चित्र पाटन, खम्भात, अहमदाबाद, जैसलमेर, बीकानेर एवं जोधपुर आदि स्थानांे के जैन उपाश्रयों, मंदिरों एवं ज्ञान-भण्डारों में सुरक्षित है। इनमें उपलब्ध सचित्र ग्रंथों की ताड़पत्रीय श्रृंखला में 11वीं सदी से 12वीं सदी के ग्रंथों में प्रमुखतः 1. निशीथ चूर्णी 1100 ई., 2. ज्ञात सूत्र 1127 ई, 3. अंगसूत्र 1127 ई., 4. कालकाचार्य कथा - 1285 ई., 5. औधनिर्युतिवृति 1650 ई. जैसलमेर, 6. महावीरचरित्र 1236 ई., 7. त्रिष्ठाश्लाकाचरित 1242 ई. आदि। कालकाचार्य कथा, कल्पसूत्र और सुपासनाचर्यम आदि ग्रंथों के आधार पर डाॅ. हरमेन ग्वेट्स डाॅ. आनन्द कुमारस्वामी, अजीत घोष, साराभाई नवाब और पर्सीब्राउन आदि ने इसे जैन शैली के नाम से सम्बोधित किया लेकिन कालान्तर में अजैन गं्रथांे में बालगोपाल स्तुति, दुर्गासप्तशती, रतिरहस्य, लोरचंदा, चैरपंचासिका एवं गीतगोविन्द की उपलब्धता और पाटन, खम्भात से प्राप्त पटचित्र व अहमदाबाद से प्राप्त एन.सी. मेहता के निजी सगं्रह ‘से प्राप्त बसंत-विलास’ नामक चित्र के आधार पर इसे एन.सी. मेहता, डाॅ. मोतीचन्द्र खजांची आदि ने गुजरात शैली के नाम से सम्बोधित किया। लेकिन इसके पश्चात जैन और अजैन गं्रथांे की विभिन्न प्रतियाँ गुजरात के अतिरिक्त मालवा, मांडू, जौनपुर, अवध, काशी और भारत के अन्य पश्चिमी भागों से उपलब्ध तथ्यात्मक साक्ष्यों के आधार पर डाॅ. आनन्द के. कुमार स्वामी, अजीत घोष, कार्लखण्डालावाला, सरयूदोषी आदि ने इसे पश्चिमी शैली के नाम से स्थापित करने की पैरवी की। नामाकरण से उत्पन्न विरोधाभास के प्रति विद्वानांे के एक मत होने का एक मात्र आधार शैलीगत गुणों की समानता एवं विषयगत एकरूपता अथार्त विकृत अंग-प्रत्यंगों से युक्त भावहीन मुद्राओं, शारीरिक भंगिमाओं मंे अतिभंग और एक अजीब सा अधोपतन व अस्थिरता शैलीगत विशेषता बन गई, जिसके आधार पर रायकृष्णदास, ओ.सी. गांगुली और अन्य विद्वानों ने इसको अपभ्रंश शैली के रूप में नामित करने का प्रस्ताव रखा जिसको सभी ने एक मत से स्वीकार किया। उसके पश्चात यह शैली अपभ्रंश के नाम से विख्यात हुई। 

विशेषताएँ
1. इस शैली के चित्र आकार संयोजन की दृष्टि से पाल शैली के समान अर्थात स्थान की सीमितता के कारण लम्बवत आलेख्य स्थान के मध्य में आकार रचना, दोनों आरे सुन्दर लिपि और किनारे सुन्दर हाशियों के रूप में सुसज्जित चित्रित किये जाते थे।
2. चित्रण माध्यम मंे ताडप़त्र, कागज एवं कपड़े के पटट् व काष्ठपट्टिकाओं का प्रयोग हुआ है।
3. चित्र मंे आकृितयांँ शारीरिक दृष्टि से अनुपातहीन बनी जिनमें विचारमग्न जकड़ी आसन मुद्राएँ, भावशून्य भंगिमा, छोटी चिबुक, पतली नासिका, सवाचश्म चहेरे और परवल की फाँक सी आँख और परली आँख बाहर निकली हुई, अत्याधिक उभरा वक्ष स्थल, क्षीणकटि, भारी नितम्ब और कमजोर हस्तमुद्राओं से युक्त चित्रित किया गया है।
4. रंग-विधान में लाल पृष्ठ भूमि पर पीली और सिंदूरी आकृतयों को काली स्याही से सीमांकित किया गया है। रंगों का प्रयोग सपाट समतल हुआ है।
5. जैन शैली के प्रारम्भिक चित्रों में रूप-अंतराल का अभाव है लेकिन उत्तरकाल के चित्रांे मंे वास्तु एवं प्रकृति चित्रण का प्रतीकात्मक अंकन हुआ। हाशियों मंे स्वर्ण रंगों का प्रयागे होने लगा। चित्रों का आकार एक निश्चित स्वरूप लिए हुये अर्थात् (10ष् ग् 3ष्) रहा।
6. चित्रों की विषयवस्तु मुख्यतः जैन धर्म से सम्बन्धित रही। लेकिन उत्तर कालीन चित्रों में अजैन विषयक सचित्र गं्रथांे की रचना भी विशेष उल्लेखनीय है।

अप्रभ्रंश शैली के प्रमुख चित्र

 
चित्र 4 - गणधर, अपभ्रंश शैली

उपरोक्त चित्र में गणधर सुधरमा प्रवचन देते हुए चित्रित किये गये है। भिक्षु को सफेद वस्त्र पहने हुए दिखाया हैं। ऊपर मोर पक्षी बैठे हुए हैं। नीचे कमल पुष्प हैं सिर के पीछे भी आभामण्डल के लिए कमल पुष्प दिखाया गया हैं। पृष्ठभूमी मंे लाल रंगों का प्रयोग अधिक किया गया हैं। गणधर को पीले रंगो से चित्रित किया गया हैं। लाल पृष्ठभुमि मंे पीले, नीले व सफेद रंग की प्रधानता है। चित्र की विषय वस्तु जैन धर्म से सम्बन्धित है। चित्र में आकृितयाँं शारीरिक दृष्टि से अनुपातहीन बनी है, विचारमग्न जकड़ी हुई आसन की मुद्राएँ चित्रित की गई है। अग्रभुमि मंे भी कमल पुष्प को लालिमा लिए हुए आसन के नीचे संयोजित किया है। हाशिए में नील वर्ण से बले-बूटांे को समानुवर्तिता लिए हुए सपाट व समतल रंगों से सुसज्जित किया गया है। संयोजन के मध्य भाग मंे मुख्य मुद्रा की रचना की गई है। मुख्य आकृति के अनुपात में सेवकों को छोटा चित्रित किया गया है। गणधर के चेहरे की भंगीमा भावशुन्य, कानों मंे लम्बे कुण्डल, शरीर पर अधोवस्त्र को सपाट रंगांे द्वारा चित्रित किया गया है।
 
चित्र 5 - षिषु जिना महावीर: चित्र कल्पसूत्र पांडुलिपी से 14 वीं षताब्दी उत्तरार्द्ध।

शिशु जिना महावीर की घुति नामक चित्र कल्पसूत्र पांडुलिपी से 14 वीं षताब्दी उत्तरार्द्ध में पष्चिमी भारतीय षैली का हैं। यह एक लोकप्रिय विषय जन्म के समय महावीर का स्नान पर आधारित हैं। जिना को दो घुटना टेककर बैंल की जोड़ी के रूप मंे दिखाया हैं। षिषु पीठासीन देवता इन्द्र की गोद मंे बैठा हैं। दो परिचर देवताआंे ने अपने पहले स्नान की प्रत्याषा में हाथांे के उपरद्युत वाहिकाआंे को पकड़ रखा हैं। 

महत्वपूर्ण बिंदु

1. लघुचित्रण परम्परा का प्रारम्भ पाल शैली से माना जाता है। यह पूर्णतया ताड़पत्रीय चित्रण परम्परा थी।
2. पाल राजवंश से शासक धर्मपाल एवं देवपाल ने इस शैली को उत्कर्ष पर पहुंँचाया। पाल शैली के प्रमुख चित्रकारों मंे धीमन और वितपाल थे।
3. पाल शैली के चित्रित ग्रंथों ने बौद्ध धर्म के प्रमुख ग्रंथ प्रज्ञापारमिता, पिंगलमत, साधनमाला, महामयूरी, बहुचरितम, नन्दाव्यूह, ममाकी, हीरूका आदि है।
4. पाल शैली की रंग योजना सरल, प्राथमिक एवं प्रतीकात्मक है।
5. अपभ्रंश शैली के रूप में जैन शैली का उद्भव जैन मुनियों एवं अनुयायी के द्वारा हुआ जो कालान्तर में जैन, पश्चिमी एवं अपभ्रंश शैली के नाम से पुकारी जाने लगी।
6. अपभ्रंश शैली में ताड़पत्रीय ग्रंथांे के अलावा कागज, कपडे़ एवं काष्ठ पटिट्काओं पर भी चित्रण हुआ।
7. जैन शैली के नामकरण को लेकर विद्वानों में मत भिन्नता दृष्टव्य है लेकिन ‘अपभ्रंश’ नाम से प्रस्ताव को सभी ने स्वीकार किया।
8. शैली की मुख्य विशेषताओं मंे सवाचश्म चेहरे में परली आंँख को पूर्ण बनाया गया तथा आकृतियां अतिभंग लिए, कोणीय तराश युक्त बनायी गई।
9. रंगों का प्रतीकात्मक अंकन एवं सपाट प्रयोग इस शैली को आधुनिक शैली के समकक्ष लाता है। लाल पीले, नीले, काले एवं स्वर्ण रंगों का चित्र में बाहुल्य है।

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