जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी{Jagannath Murlidhar Ahivasi}

Prof. MADHAVACHARYA SHASTRI: पं.जगन्नाथ मुरलीधर ...
"जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी"
जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी का जन्म 1901 में ब्रज मंडल के गोकुल में हुआ। इनके पिता पं मुरलीधर अहिवासी अपने समय के मशहूर कथाबचक एबं भजनगायक थे । जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी आध्यात्मिक रहस्यकार की गरिमा से ओतप्रोत भारतीय जीवन-दर्शन और विचार-तत्त्व को निजी कला में ढाल कर राजपूत कला की रंगीनी और उसके महत्त्वपूर्ण कला रूपों से अधिक प्रेरित हुए । इन्होंने टेकनीक और विषय वस्तु में बंगाल कला मेे रूढ़िवादिता को अस्वीकार करके उन संकेत बिन्दुओं को चुना जो सीमाहीन दिशा में अविराम जीवन-गति से सामंजस्य स्थापित करने में सर्वथा उन्मुक्ति बरत सकें । इन्हें दीवारों की श्वेतिमा में रंगबिरंगे चित्र बनाना अथवा भवनों और इमारतों में मीनाकारी पद्धति पर पेंट करने में विशेषता हासिल है। इनकी प्राथमिक भित्तिचित्र प्रेम-सन्देश चित्र सज्जा लाक्षणिक अथवा प्रतिरूपक पद्धति पर होती थी। दिल्ली के सचिवालय भवन की भीतरी छत पर पेंट किये हुए चन्द्राकार स्थल जो हालाँकि इतने दूर के समय की मार से धुमिल और निषप्रभ होते जा रहे हैं तथापि उनमें भी वही प्रतिरूपक पद्धति अख्तियार की गई है। इनके परवर्ती कृतित्व पर यथार्थवाद की छाप पड़ी है, लेकिन किसी भी मतवाद की जड़ता अथवा किन्हीं भी सीमित दायरों में इन्होंने अपनी सशक्त चेतना को कभी बन्दी नहीं बनाया। पूर्वी और पश्चिमी विचारधारा इनकी कला का सम्बल बनी और उससे इनका मौलिक चितन एवं सिद्धान्त मुखर हुए । कला की विशिष्ट उपलब्धियों और समन्वयात्मक समुत्थान के लिए वांछित वातावरण और साधन-संभार प्रवर्द्धनशील हो तो प्रबोधन एवं विकास के सबल आधार मिल सकते हैं। यही ध्यान में रख कर इनकी दृष्टि व्यापक होती गई, किन्तु नारी की पैनल-पेंटिग में राजपूत शैली अपनाकर भी ये यथार्थवाद से आक्रान्त हो उठे हैं।
अहिवासी की जीवन-दृष्टि न सिर्फ गहरी और संवेदनशील, बल्कि संयत मार्मिकता की भी व्यंजक है। अंतिम रूप से वे किसी विश्वास तक नहीं पहुंचे हैं, परन्तु अपने अन्तर्नुभूत विश्वासों की उपलब्धि के लिए वे प्रयत्नशील अवश्य हैं । अपनी कला-साधना के प्रति विश्वास और निष्ठा के फलस्वरूप उन्होंने अपनी अंतरात्मा में गहरी डुबकी लगाई, लेकिन एक विशिष्ट शिल्प-विधान अपना कर भी उनके विचार और निर्माण में विरूपता या बेढंगापन नहीं आ पाया है । "प्रेम संदेश "में विशदता और फैलाव के बावजूद समस्त कार्य-पद्धति में परिपक्वता दृष्टिगोचर होती है। प्रेम की बेधक धारा दो प्रेमियों में अन्त में समान रूप से संचरित हो मादक और लयमय वातावरण सृष्ट करती हुई प्रभावान्विति में अत्यन्त सघन रूप से अनुशासित है । नाटकीय वस्तुविन्यास और गत्यात्मक व्याप्ति में  "श्रीकृष्ण का नामकरण" चित्र अधिक सफल बन पड़ा है, इस निर्माण में बौद्ध आख्यानों और उनके चित्रण करने के तौर-तरीकों का प्रभाव लक्षित होता है। इस तरह के चित्र-विचित्र और रंग-बिरंगे डिजाइनों में सौंदर्य एवं सूक्ष्मता की इकाई के साथ-साथ सशक्त अवतारणा हुई है, किन्तु  "मीरा के प्रयाण" में उतनी सफल व्यंजना और रसवत्ता नहीं है । फिर भी वह चित्र इतना लोकप्रिय हुआ कि लंदन, यूनेस्को, फ्रांस और थाइलैंड की प्रदर्शिनियों में सम्मानित हुआ और तत्पश्चात् चीन सरकार ने इसे संरक्षण प्रदान किया।
सर जे. जे. स्कूल आफ आर्ट के अनेक होनहार कलाकारों में ये प्रमुख हैं, वरन् इन्होंने अपने अनवरत परिश्रम और अध्यवसाय से कला का पुननिर्माण कर प्राचार्य-पद प्राप्त किया। 1932 ई० में जब भारतीय चित्रकला के स्वतन्त्र विभाग के रूप में "इंडियन डिजाइनिंग क्लास" की स्थापना हुई तो इन्हीं को उसके संरक्षण, शिक्षण एवं संचालन का भार सौंपा गया । भूतपूर्व प्रिंसिपल सर ग्लैडस्टोन सोलोमन ने इनकी सर्जनात्मक शक्तियों को शुरू में ही पहिचान लिया था और अवकाश ग्रहण करते हुए उन्होंने इनके कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी तथा इन्हें ही एक ऐसा उपयुक्त व्यक्ति समझा जिसे वे समूचा कार्यभार सौंप गए । भित्ति-चित्रण इनका प्रमुख विषय है।
विगत 24 वर्षों की अटूट और अथक कला-साधना के दौरान कितने ही युवक कलाकार इनके सम्पर्क में अपनी नैसर्गिक कलाभिरुचियों को उचित दिशाओं में यत्नशील करते रहे हैं। कितनों का ही इन्होंने पथ-प्रदर्शन किया है और कितने ही कला-अभ्यासी इनसे प्रेरणा प्राप्त कर यशस्वी और सफल चित्रकार बने हैं।  लैण्डस्केप, प्रतिरूपक चित्र, स्केच, रेखांकन और पोर्टेट-चित्रों-सभी में सुकुमार भावाभिव्यंजना के साथ भारतीय वातावरण सजीव हो उठा है। अतीत भारत, बौद्धकालोन और कांगड़ा चित्रशैली का प्रभाव भी इनकी कला पर द्रष्टव्य है । इनकी रेखाएं बहुत ही सुकुमार, कोमल व्यंजना लिये होती है। ये रेखाएँ न केवल सौंदर्यबोध की द्योतक, अपितु भाव-सम्पन्नता और मन में उठने वाली हर उद्दाम अनुभूति की दिग्दर्शक भी है-मानो कलाकार की अंतरंग प्राणवत्ता उनमें लय होकर विभिन्न रूपाकारों में ढल कर उभरी हो । विभोर करने वाली मादकता, नई उमंग, नया उत्साह व जोश, नई इच्छाग्राकांक्षाओं के साथ-साथ कितनी ही गमगीन चेष्टाएं जो हर रंग की सीमारेखा और हर रेखा की रंगमयता, तिस पर जीवन तत्त्वों से संश्लिष्ट होकर अपने आप में पूर्ण व एक दूसरे में घुलमिल कर आकार धारण करती हैं. वे ही कलाकार की महत्तर चेतना की परिचायक हैं। यही कारण है कि अहिवासी हमेशा साथ मे स्केचबुक रखने के हामी हैं। स्केचबुक में कलाकार का बंधनहीन मन विचारगत भेद-प्रभेदों के आधार पर किसी भी कल्पनालोक को सिरजने से पहले उसकी रूपरेखा प्रस्तुत करता है और फिर उसी में रंग ढालकर प्राणों का संचार करता है । इंगलैण्ड, फ्रान्स, चीन, थाइलैण्ड आदि कतिपय देशों के कला-संग्रहालय में इनके चित्र सुरक्षित है और भारत में तथा अन्यत्र इन्हें अनेक पारितोपिक प्रदान किये गए हैं। अपनी वर्षों की कला-साधना द्वारा पाश्चात्य कला की विशेषताओं को अपनी भारतीय कला से संयक्त कर कलात्मक परम्पराओं को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया है।
मृत्यु . 29 दिसम्बर 1973 ई को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निवास में निधन हुआ
कुछ प्रसिद्ध  कृतियों में "संदेश" "सुभद्रा और अर्जुन" "मीरा का प्रस्थान"  आदि प्रमुख  है ।

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