रथिन मित्रा का जन्म 1926 ईस्वी में हावड़ा पश्चिम बंगाल कोलकाता में हुआ रथिन मित्रा की शिक्षा गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट कोलकाता से हुई रथिन मित्रा ने कला के उक्त नवीन स्वरूप की संभावना पर सबसे पहले दुष्टिपात किया । अंतर्मन की प्रेरक शक्ति के कारण उनमें जागरूक सतर्कता और स्वाधीन मतवाद स्थापित करने की सहज जिज्ञासा थी। उन्होंने सामयिक वातावरण की टटोल की, किन्तु इसके ये मानी नहीं कि सहज बौद्धिकता से सामंजस्य स्थापित कर उनमें निरी रिक्तता अथवा ऐसी नीरसता आ गई हो जो हृदय में न घुले। इसके विपरीत युगीन समस्याओं के नये पहल, नये संकेत, नये तकाजे लेकर भी उनमें कलाकार की सहज सरलता, घनीभूत भावुकता और रस से ओतप्रोत भावप्रवणता थी। गंभीर मौलिक चिन्तन लिये उनके रंग-शिल्प में राजपूत कला का सौष्ठव और भाव-निरूपण में बंगाल लोक कला का प्रभाव द्रष्टव्य है। रेखांकन में जितना ही सरल, मुक्त चातुर्य है, रंगों में हल्की सी सिहरन लिये उतनी ही समृद्ध चारुता । अधिक गहरे रंगों से इन्होंने अभिप्रेत वातावरण की सृष्टि की है और मानव-मन की अंतरंग भावनाओं का दिग्दर्शन कराया है। "संथाल नृत्य", "बंगाल का नौका दौड़ उत्सव" "काश्मीर की मुसीबतें" , "गुलदस्ता लिये लड़की" , "पुनर्मिलन" आदि चित्रों में श्रमशील संयोजन, साथ ही अभिप्रेत वस्तु का गहन उद्देश्य और उसकी मूल भावना में निहित उच्चस्तरीय कलात्मकता भी दृष्टिगोचर होती है। मित्रा ने युग की समस्याओं और परिवत्तित कोणों पर भी दृष्टिपात किया है । परिणामस्वरूप द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के क्रांतिकारी सिद्धान्तों की छाप इनकी कला पर पड़ी है। शोषित वर्ग की नकारात्मक स्थिति, उनकी परमुखापेक्षिता और सामाजिक बंधनों एवं परम्परागत संस्कारों में जकड़ी अवश परिस्थितियों का चित्रण, यथाकठिन श्रम से थक कर चूर हुआ रिक्शा-चालक या बैल गाड़ीवान, अथवा मिल-कारखानों में काम करने वाले मजदूर, खेत-खलिहानों में खून-पसीना बहाने वाले किसान या तो ऐसे लोग जिनके चेहरे पर मायूसी झलकती है या मजबूरी की छाप है। ऐसे भी चित्र हैं, जिनमें कितने ही संघर्षों, आघातों और दायित्यों से गुजर कर एक विराट् अन्तहीन भागदौड़ दिन-रात चल रही है, कहीं बेगार खट रही है तो कहीं असह्य उदभ्रान्ति है, फिर भी उनके चित्रण में निरा संत्रस्त अवसाद न होकर एक विशिष्ट गतिशीलता विद्यमान है जिससे स्पष्ट है कि आज का कलाकार जीवन और उमसे सम्बन्धित मत्यों को पहले की अपेक्षा अधिक प्रात्मस्थ करता है, साथ ही यथार्थ की व्याप्त स्वीकृति ने उसमें दायित्त्वों को वहन करने की अटूट आस्था और क्षमता प्रदान की है । लंदन, काबुल और आस्ट्रेलिया में मित्रा कितने ही चित्र प्रशंसित हुए हैं, किन्तु निर्माण प्रक्रिया आजकल तो ये विचित्र प्रयोगों में लगे हैं, प्रकृति की क्रोड़ में इन्हें जो कुछ ऊबड़-खाबड़, टेढ़ा मेढ़ा या बेढंगा मिलता है उसे रूप प्रदान कर ये बिल्कुल सजीव बना देते हैं और बहुविध रंगों से उनमें प्राप्त डाल देते हैं। उदाहरणार्थ--पेड़ों की लंटों, सूखी बेलों, उपेक्षित तिनकों, टूटी टहनियों और बेकार पड़ी लकड़ियों को तराश कर इन्होंने कितने ही रूपाकारों की सृष्टि की है जो आश्चर्य में डाल देती हैं । थोड़े से परिश्रम से उनमें अभूत पूर्व भावाभिव्यक्ति हई है। प्रकृति की हरीतिमा और नेत्ररंजक दश्यों से इन्होंने रंग-विन्यास और रूप-चमत्कार की प्रेरणा प्राप्त की अर्थात रंगों के नैसर्गिक सौन्दर्य में पैठने की विशिष्ट क्षमता इन्होंने अपने घुमक्कड़ स्वभाब के कारण ही अजित की। आज एक प्रमुख रंगशिल्पी के रूप में इनकी तूलिका ने यथार्थ चित्रण में कमाल हासिल किया है। इसका कारण है--इनकी उन्मुक्त्त जिज्ञासा जो बहुत कुछ समेटकर भी सदैव किसी टोह में रहती है और भीतर के उन्मेष से बाहर की दृश्यमान वस्तुओं का सामंजस्य खोजती रहती है। ये नित-नये प्रयोग ही इनको कला के संबल हैं जो अटूट साधना और निष्ठा से अहर्निश कला में रत रह कर अपने स्वप्नों को बड़े ही मोहक और आकर्षक ढंग से ये साकार कर रहे हैं।
माध्यम :- पेन तथा इंक जल रंग
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