रामकिंकर बैज {Ramkinkar Baij}

रामकिंकर बैज

रामकिंकर बैज का जन्म 26 मई 1906 ईसवी में पश्चिम बंगाल के निकट बागुंडा जिले में जुगीपाड़ा नामक गांव में हुआ 
रामकिंकर बैज की शिक्षा विश्व भारती विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन में गुरु नंदलाल बोस से हुई 
रामकिंकर बैज की मूर्ति शिल्प पर अभिव्यंजनावाद का प्रभाव है रामकिंकर बैज के चित्रों की प्रथम एकल प्रदर्शनी सन 1942 ईस्वी में दिल्ली में लगी  
रामकिंकर बैज के गुण प्रकृति मूर्तिकार तथा चित्रकार
रामकिंकर बैज का माध्यम कास्य जल रंग तेल रंग सीमेंट कंक्रीट काला पत्थर 
रामकिंकर बैज के व्यक्तित्व पर बंगाल उपन्यासकार समरेश बसु ने एक उपन्यास व डॉक्यूमेंट्री "देखि ए नाइ फिरे" (नेवर लुक बैक) बनाई
कला के विकासशील रूप तथा उसके विकास की प्रानुक्रमिकता के तथ्य का पूर्ण आकलन करने के लिए रामकिंकर बैज ने चित्रण और मूत्र्ति-निर्माण इन दोनों की समान महत्ता स्वीकार की है, यद्यपि मूत्र्तिकला के व्यक्त, मूर्त विकास में उनकी अपनी मूल आत्मिक एवं भौतिक, संतुलन और संस्थिति का अधिक पर्यवसान हुआ है। शांतिनिकेतन के कलाभवन में जहाँ इन्होंने कला की शिक्षा पाई है ये मूर्तिकला विभाग के अध्यक्ष पद पर सुशोभित रहे। इनके द्वारा निर्मित कतिपय रूपाकार यत्र-तत्र शांतिनिकेतन को सुसज्जित कर रहे हैं और इन मूर्तियों में इस गम्भीर साधक के अपूर्व कलाअनुष्ठान की सहज ही झाँकी देखने को मिलती है।
चित्र हों अथवा मूर्तियाँ-उनमें सर्वत्र पलायन, अन्तर्मुखता और रहस्यात्मक आत्मतुष्टि का आभास मिलता है, मानो कला के इन दोनों पक्षों की संयुक्त क्रियाशीलता में स्वरूप विधान की अपेक्षा इनकी अर्द्धजागृत भावनाएँ भीतर की सूक्ष्म चेतना में भावात्मक और अनुभूतिमूलक विश्रांति खोजने का अधिक प्रयास कर रही हैं। कान्दिस्की और मार्क्स क्ली की भाँति इनकी शिल्प दृष्टि अत्यधिक अन्तर्दर्शी है। कुछ के मत में इनकी कुंठित आत्माभिव्यक्ति में असमय प्रौढ़ का सा दुराग्रह और रूढ़िवादिता है, फलतः इनकी कलाकृतियाँ कभी-कभी भावशून्य और अग्राह्य सी हो जाती हैं। रूप-व्यापार-विधान में इनका प्रत्यक्ष बोध न होकर आत्मगत भाव है, अपनी अन्तस्सत्ता को विस्मृत कर ये वस्तु की भावात्मक सत्ता में खो जाते हैं । "शीतकालीन मैदान" "मेघाच्छन्न संध्या" और "निर्माण" (कम्पोजीशन) आदि चित्रों का ज्यामितिक रेखांकन अजीबोगरीब हैं जिनमें इनकी सौंदर्य-मान्यता का व्यंजक विश्लेषण तार्किक पद्धति पर साध्य है। "मा बेटा" और "कृष्ण जन्म"आदि चित्रों में रामकिकर ने श्घनाकृतिवादश् (क्युबिज्म) का प्रश्रय लिया है। असामान्य चितक के सचेत प्रमाद में डबी इनकी निष्प्रभ खोयी-खोयी सी आँखें और कार्यव्यस्त उंगलियाँ भावना. अनुभूति और संवेदना से प्रचालित होकर यों सौंदर्य का अन्वेषण करती प्रतीत होती हैं कि अंतःरूपों का उलझाव बाहरी वैविध्य में आत्मसात् हुआ सा लगता है। पर यही सचमुच इनके चित्रों का आकर्षण और मार्मिक कचोट है ।
कहना न होगा-रामकिंकर की प्राथमिक उत्फुल्लता क्रमशः हास को प्राप्त होकर इतिवृत्तिमयी गति से समाच्छन्न नीरसता में परिणत होती गई है। इनकी पहले की चित्रकृति "कन्या और कुत्ता" में जो आकर्षण और सादगी है तथा श्पिकनिक ड में जो ताजगी और स्निग्ध चितनशीलता है वह इधर की नई कलाकृतियों में वर्ण्य सी हो गई है, लगता है जैसे नैराश्योन्मुख सघनता और अंतर की कुण्ठा के कारण कलाकार की कोमलता पर मुर्दनी छा गई है । उनकी सौंन्दर्य-वृत्तियों में भी तनाव आ गया है, भय है कि चित्रण को परिप्लावित करने वाला इनकी भावनाओं का स्रोत सूख कर सर्वथा बंजर मरुभूमि न हो जाये और इनकी उत्तरोत्तर बढ़ती अंतर्मुखता एवं गम्भीर अभिव्यक्ति इनके चित्रों को नितान्त शून्य और अर्थहीन न बना दे। लेकिन जहाँ श्रमिकों और मेहनती किसानों का चित्रण इन्होंने प्रस्तुत किया है, वहाँ इनके कृतित्व में सजीव यथार्थता के दर्शन होते हैं। "फसल के बाद दोपहर का विश्राम" "संथाल परिवार" में शोषण-दैन्य के मानव प्रतिरूपों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। इनकी यथार्थ की पकड़ खरी उतरी है और सामान्य जनजीवन का इन्होंने बड़ा ही स्वस्थ चित्रण किया है। पर निःसन्देह चित्रों की अपेक्षा मूत्र्तियों में अपने संकल्प पिकनिक और ज्वलंत चिंतन को ये अधिक सफलता से प्रतिफलित कर सके हैं । मिट्टी, बालू, प्रस्तर, कंकरीट, मसाले आदि पर टाँकी और छेनी से जो विभिन्न आकृतियाँ उत्कीर्ण की हैं वे इनकी सच्ची लगन, अध्यवसाय और तन्मयता की द्योतक हैं। मूत्र्ति-निर्माण की ओर इनका स्वाभाविक झुकाव है और यह इन्होंने अपने प्रयत्न से साधा है। प्रतिमाओं की गढ़न, शरीर-रचना, अनुपात, अंग-प्रत्यंग के उभार, सुस्पष्ट गठन और उनकी स्थितिजन्य लघुता एवं दीर्घता में एक सुविचारित योजना है, फिर भी रामकिंकर की रेखाओं की वक्रता में कुछ ऐसा ढंग अख्तियार किया गया है जो कुतूहल जगाता है। व्यक्तियों के रूपाकारों के अनुचित्रण भले ही वास्तविकता की कसौटी पर मूर्तिकला के प्रतिपादित लक्षणों के अनुरूप न उतरे हों, पर यह तो निर्विवाद है कि यथातथ्य के संश्लिष्ट साम्य में वे बाहरी समता नहीं खोजते । भाव और व्यंजना में रामकिंकर एकदम मौलिक हैं और मौलिकता की झोंक में कितने ही बाल के आकार बनाते और मिटाते रहते हैं। कुछ आलोचकों की राय में उन पर श् सरियलिज्म श् (अतिवस्तुवाद) का प्रभाव है, लेकिन यही संगत शब्दों में कलाकार का निष्पक्ष, निर्मम बुद्धिवादी दृष्टिकोण कहा जा सकता है। किसी भी वस्तु का मूल्य क्या है, आधार क्या है-इसकी इन्होंने कभी भी पर्वाह नहीं की। प्रस्तुत साधनों व उपकरणों में प्रत्यक्ष रूप-विधान को वे उतना महत्त्व नहीं देते जितना कि अनुभूत रूपों को कल्पना द्वारा प्रत्यक्ष से कुछ भिन्न अथवा अभिनव रूप में व्यंजित करने में। 
जब टैगोर का पोर्टेट इन्होंने तैयार किया था तो स्वयं टैगोर ने इनसे कहा था- : "रामकिंकर बैज, अब पीछे पलट कर मत देखो, आगे बढ़ जाओ। और सचमुच बिना पीछे मुड़े ये आगे बढ़ गए थे। वे कहते हैं मूर्तिकार बनने के लिए जब तक खुद मिट्टी तैयार न करो, खुद बनाओबिगाड़ो, जब तक तसल्ली न हो खुद साँचे को ढालो, पत्थर काटो, लकड़ी काटो, लोहे के तारों से कुश्ती करो तब तक इस कला में निष्णात होना कठिन है । एक अन्य स्थल पर इन्होंने कहा है--"देवी-देवताओं की मूर्ति बनाने मे पूर्व देवी-देवताओं को मन में प्रासन दो, वरना बनाते हैं-सरस्वती और मन में है राक्षस ।" वे वस्तु का सम्बन्ध वाह्य से नहीं अभ्यन्तर से मानते हैं, अतएव जब तक वे विषय को आत्मसात् नहीं कर लेते, उसमें रम नहीं जाते तब तक उन्हें कार्य करना नहीं रुचता । किसी भी कला की प्रचलित परिपाटी के संकुचित दायरे से बाहर वे नूतनता की सृष्टि में प्रयत्नशील रहते हैं। उन्हें कला की बंधी लीक से नफरत है । 
रामकिंकर बैज को भारतीय आधुनिक मूर्तिकला का पितामह जनक कहा जाता है 
विषय:संथाल लोगों का जीवन , दृश्य चित्र , दैनिक जीवन तथा वीरभूमि की प्रकृति शोभा का  चित्रण किया है 
2 अगस्त 1980 ईस्वी को रामकिंकर बेज का देहांत हो गया



⭐ मूर्ति शिल्प 
1. संथाल परिवार {1938} : सर्वश्रेष्ठ मूर्ति है जो सीमेंट कंक्रीट द्वारा बनाई गई यह मूर्ति शिल्प शांति निकेतन के प्रांगण में 427 सेंटीमीटर ऊंची है 
2. यक्ष यक्षी :
3. गांधी का मूर्ति शिल्प : कला भवन के परिसर में सीमेंट कंक्रीट द्वारा बनाई गई यह मूर्ति शिल्प दांडी मार्च का है 
अन्य मूर्तियां 
1. सुजाता 
2. कन्या और कुत्ता 
3. मिथुन 
4. दुर्गा 
5 रविंद्र नाथ टैगोर का कांस्य आवकक्ष मूर्ति षिल्प रविंद्र भवन दिल्ली में रखा है।
चित्र 
1 टू बाथर्स (स्नान करती दो आकृतियां) 
2 संथाल परिवार 
3 यक्ष यक्षी 
4 अनाज की ओसाई (दा हार्वेस्ट) 
5 कॉल ऑफ द मील ललित कला अकादमी नई दिल्ली में रखा है 
उपाधि
सन 1976 ईस्वी में ललित कला अकादमी नई दिल्ली द्वारा रतन सदस्यता मिली 
सन 1976 ईस्वी में विश्व भारती विश्वविद्यालय द्वारा देशी कोत्तम की उपाधि मिली 
सन 1979 ईस्वी में रविंद्र भारती विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट की उपाधि मिली 

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