शांतिनिकेतन {Santiniketan}

बम्बई को छोड़ कर बंगाल स्कूल की विशिष्ट कला-प्रवृत्तियों का व्यापक रूप से प्रभाव पड़ा था। उक्त कला-आंदोलन ने गहरी कला-चेतना जगाकर और अपनी विचार-पद्धति को रूपान्तरित कर कला के रूपतंत्र में सम्पूर्ण रूप से क्रान्ति ला दी थी, पर उसका ऐतिहासिक उद्देश्य समाप्त होते ही कालान्तर में उसके बहुमुखी विकास में गतिरोध उत्पन्न हो गया।
यद्यपि बंगाल स्कूल से ही प्रेरित है-शांतिनिकेतन शैली, तथापि दोनों में पर्याप्त अन्तर है । सन् 1867 में बंगाल स्कूल की स्थापना उस समय हुई थी जब कि अवनीन्द्र नाथ ठाकूर के तत्त्वावधान में नन्दलाल वसू और उनका समसामयिक सहयोगी दल प्राच्य और पाश्चात्य प्रणालियों में समन्वय स्थापित करने में जुटा था। यूरोपीय, जापानी और मुगल कला के समन्वित प्रभाव ने आलंकारिकता और चटक रंगों को प्रश्रय तो दिया, परन्तु इन सब प्रभावों को पचानने के लिए उनमें सूक्ष्म अंकन-विधान, ड्राइंग की परिपक्वता और सृजन-दक्षता न थी, फलतः परवर्ती पीढ़ी के कलाकारों में वाश पद्धति, वातावरण का प्राभास (स्पेस) और दृश्य-चित्रण एक निष्प्राण रूढि बनकर रह गई जिसके बाद में आकृष्ट करने वाले तत्त्व क्रमशः क्षीण होते गए। कुछ अर्से तक ऐसा लगा जैसे कला के सहज विकास में गत्यवरोध उत्पन्न हो गया हो । इस बहुमुखी विकासमान और भिन्न चित्रण परम्परा की ओर उन्मुख करने में कुछ नव्यता का पूट आवश्यक था। फलतः गुरुदेव की साधना-भूमि शांतिनिकेतन स्थित कलाभवन की कोड़ में तात्कालिक सृजन-प्रक्रिया को अनुकूल भूमि एवं दिशा प्राप्त हुई । प्रकृति का निकट साहचर्य, उन्मुक्त वातावरण और उसकी हरी भरी क्रीड़ास्थली में कला के महोत्थान का बिम्ब अधिक प्रखर एवं सुस्पष्ट होकर उभरा । प्राचार्य नन्दलाल बसु के सहयोग और प्रयत्नों ने कला-क्षितिज को अधिक विस्तृत बनाया । यद्यपि उन्होंने समय की मांग और अनुकूलता की दृष्टि से बंगाल की प्रवृत्तियों को अंगीकार किया था, फिर भी नवीन संघर्ष के प्रतिनिधित्व के साथ-साथ परम्परागत आदि-मध्य और वर्तमान की रीति-नीति का निर्वाह करते हुए उनकी प्रखर रूप-चेतना जीवन के विविधमुखी अनुभवों को समोये बड़ी स्फूर्ति और सचेष्टता के साथ एक निर्णयात्मक गन्तव्य का संधान करती रही। चित्रकला और मूत्र्तिशिल्प के अलावा बातिक, बुडकट, इचिंग, ग्राफिक, शिल्पकला के नये-नये डिजाइन, हस्तकला, मांगलिक सज्जा (अल्पना) और लोककला की कितनी ही शैलियों की खोज की गई। एक निपूण शिल्पी की भाँति नन्द बाबू ने अपनी सहज संवेदनशील संग्राहक बुद्धि से कला के क्षेत्र को अधिक व्यापक और विस्तीर्ण बनाने का प्रयास किया जिसका अनिवार्य परिणाम यह हुआ कि उनकी उत्तराधिकारी कलाकार-परम्परा में ऐसे प्रबुद्ध व्यक्ति सम्पर्क में पाए जो उत्तरोत्तर प्रगति के मार्ग पर आरूढ़ हैं और कला के रूप-तंत्र में नित-नये प्रयोग कर रहे हैं।

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