विनायक मासोजी
बंगाल कला आन्दोलन के पुनरुत्थान के दौरान जिन कलाकारों के हाथों शांतिनिकेतन शैली का प्रवर्तन हुआ उनमें विनायक मासोजी का अन्यतम स्थान है। जब कला-शैलियाँ रूढ़ होने लगती हैं तो मौलिक प्रतिभा के धनी कलाकार निजी अनुभव की विविधता और उस अनुभव को रूपायित करने के लिए शिल्प और आकार को विविध रूपों में प्रस्तुत करने की सामर्थ्ता लेकर आगे आते हैं । बंगाल स्कूल की रूढ़ शैली के समानान्तर शांतिनिकेतन शैली में जो सजीव तत्त्व उभरे वे मासोजी जैसे कतिपय कला-साधकों की अनवरत चेष्टाओं का परिणाम है जो विघटनकारी शोषक तत्त्वों से पोषक तत्त्वों की ओर उन्मुख हुए, उसे गति प्रदान कर सके और अपनी समाधानकारी पूर्णता की उपलब्धि के लिए रचनात्मक पथ पर अग्रसर कर उसके क्षेत्र को व्यापक बना सके ।
मासोजी की कला की विशेषता है-उनकी कला में आत्मरस की सहज अविरल व्याप्ति और अभिव्यंजना पद्धति में लालित्यमयी तरलता। प्रारम्भ से ही अपने दृष्टिकोण में वे वस्तून्मुखी, जीवनोन्मुखो रहे हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं कि उनका वस्तुवाद अध्यात्म सत्ता में विश्वास नहीं करता। मासोजी बेहद आस्तिक प्रकृति के व्यक्ति हैं। इन्होंने ईसाई पादरी परिवार में जन्म लिया । इनके पिता अपने बच्चे को भी उसी पथ का अनुगामी बनाना चाहते थे, किन्तु इनकी अभिरुचि तो कला की ओर थी । ये अधिकांश समय चित्र बनाने में ही लगाते । इसके लिए विरोध-वैषम्य और कडी भर्त्सनाओं का शिकार भी इन्हें बनना पड़ा। किन्तु अपनी कला-साधना के पथ से ये विरत न हुए । इन्होंने जीवन की चुनौती को दृढ़ता पूर्वक स्वीकार कर उससे टक्कर लेने की ठान ली और अनवरत श्रम, संघर्ष और प्रयास से ध्येय की पूर्ति में जटे रहे । विश्वास की नींव पर इन्होंने अपने भावी सपनों की इमारत खडी की और उस समय इन्हें लगा कि ये घरेलू वातावरण और परिस्थितियों से पराङमख सबसे भिन्न रुचि के हैं। जिस विश्वास को साथ लिये इन्होंने अपने परिवार का मोह छोडा वह कभी खंडित नहीं हो पाया । यद्यपि इनके पास पैसों का अभाव या फिर भी ये बम्बई रवाना होगए और सर जे. जे. स्कूल आफ आर्ट्स में दाखिला ले लिया । कई वर्षों तक ये वहीं चित्रकला का प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे। अपने सीमित साधनों से इन्होंने कला को असीमित शक्तियों को उजागर किया, उसे गहराई से समझा और अनेक संभावित शैलियों का पता लगाया। महती प्रेरणायों के कारण ही ये सब कुछ सहन कर सकते थे, वह इनके अभावग्रस्त बीहड़ जीवन पथ पर आलोक की किरण बनकर छा गई । कला ने ही दरअसल इन्हें कष्ट और मुसीबतों को झेलने का बल प्रदान किया और उसी के सहारे इन्होंने अपने जीवन का दायरा कभी संकुचित न होने दिया ।
बम्बई में अपने चित्रों द्वारा इन्होंने पर्याप्त प्रसिद्धि पाई। किन्तु वहाँ की नित-नई कला-प्रणालियाँ और देशी-विदेशी प्रभावों की धकापेल से भारतीय आदर्शों में ढली कला की काल्पनिक मुत्र्ति के इस एकान्त उपासक का प्रासन डोल गया । वे गुरुदेव द्वारा स्थापित शांतिनिकेतन जैसी साधना-भूमि में रह कर अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को विकसित करना चाहते थे। धन के पक्के मासोजी ने शीघ्र ही वहाँ पहुँचने का माध्यम खोज लिया। वे अपने पिता के एक हितैषी मित्र द्वारा दीनबन्धु एण्ड जे के नाम परिचय पत्र लेकर शांतिनिकेतन पहुँच गए और नन्दलाल वसु का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। कला की सूक्ष्मताओं में बैठकर ये अपनी निजी मौलिक प्रणालियों को लेकर अग्रसर हुए । पहले इन्हें शांतिनिकेतन के क्राफ्ट्स सेक्शन का डायरेक्टर नियुक्त कर दिया गया, तत्पश्चात् फाइन आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स डिपार्टमेंट के वाइस प्रिंसिपल का पद-भार इन्हें सौंपा गया। शांतिनिकेतन के कला-भवन और चीन-भवन में अजंता के चित्रों की प्रतिकृति अंकित करते हुए इन्होंने अनेक भित्ति चित्रों का निर्माण किया। सन् 1956 में जबलपुर में शहीद स्मारक के लिए "राष्ट्रध्वज का जन्म" दिग्दर्शक एक विशाल भित्ति चित्र को बनाने के लिए इन्हें आमंत्रित किया गया जो बड़ी ही प्रसिद्ध कृति है ।
अपने प्रकृति-प्रेम और यायावर वृत्ति से प्रेरित होकर इन्होंने हिमालय, तिब्बत और लंका आदि देशों का भ्रमण किया। फलतः इनके दृश्य-चित्रों में आँखों देखी यथार्थ व्यंजना है। हिमालय के प्राकृतिक नजारे, उच्च शृंगों की हिमानी शोभा, कैलाश और मानसरोवर के आकर्षक दृश्य-चित्र, राजगिरि का आत्मविभोर करने वाला दृश्यांकन तथा विभिन्न दृश्यों पर आधारित इन्होंने कितने ही लैण्डस्केप बनाये । "भगवान मेरे संरक्षक" में एक निरीह मृगछोने को किसी व्यक्ति ने अनायास अपनी गोद में उठाकर पाश्रय दिया है। "शांतिनिकेतन में सूर्यास्त का दृश्य चित्र" बड़ी ही सजीवता लिये है, एक चित्र में बैलगाडी में बैठकर एक ग्रामीण परिवार यात्रा के लिए प्रस्थान कर रहा है, मानो यह बैलगाड़ो उन्हें अभिप्रेत मंजिल तक पहुँचाएगी, फिर भी यह निश्चित नहीं कि उनकी मंजिल आखिर है कहाँ ? पनघट पर गागर के साथ नारी भंगिमा की हूबहू झाँकी प्रस्तुत करता है, इसी प्रकार "कैलाश के पथ पर" "मंजिल के निकट" "बलिदान" आदि चित्रों में इनकी परिपक्व प्रतिभा और उत्कृष्ट कला-नैपुण्य का आभास मिलता है।"बापू का महाप्रयाण" चित्र में प्राणों की एकतानता है जो मन को छूती है। महात्मा ईसा और ईसाई संतों के जीवन-प्रसंगों को लेकर इन्होंने कितने ही मर्मस्पर्शी चित्र बनाये हैं। आस्तिकप्रकृति और धर्म में निष्ठा होने के कारण ऐसे चित्र बड़ी ही अछूती और प्रांतरिक भक्ति-भावना का दिग्दर्शन कराने वाले हैं।
मासोजी विशुद्ध देशी पद्धति के कायल हैं, अधिकतर टेम्परा, वाश, जलरंग, तैलरंग आदि के प्रयोग द्वारा इन्होंने बड़े ही सधे-संयत रंगों को उभारा है। कृत्रिमता और दूसरों के अनुकरण पर आँके गए, साथ ही अनेक वादों के पाश में जकड़ी कला से इन्हें सख्त नफरत है । आधुनिक शैली की अनाकर्षक अवतारणा और भौंडे आकार-प्रकार उन्हें कतई पसन्द नहीं । जिस तूफानी वेग से कला आगे बढ़ रही है और बाहरी प्रभावों ने भारतीय कलादर्शों में जो गहरी क्रान्ति उपस्थित कर दी है इनकी राय में उसकी अभी कोई सुनिश्चित दिशा नहीं है । वादों के बवण्डर में उसकी जड़ें हिल गई हैं । न वह भारतीय कलादर्शों को अपना रही है और न ही बाहरी तत्त्वों को आत्मसात् कर उन्हें अपना बना पा रही है। इस शंकाकुल परिस्थिति में बड़ी ही ऊहापोहभरी अस्तव्यस्तता दीख पड़ती है। अपनी सन्तुलित आदर्शवादी दृष्टि के कारण इन्होंने ऐसे कलारूपों की प्रताड़ना की है जो अत्याधुनिक की झोंक में कुत्सा और कुरुचि को प्रश्रय देते हैं। अपने अन्तर में वेदना लिये कुछ चित्रों में इन्होंने संवेदना का स्वर गुजरित किया है तो कुछ में सौंदर्यबोध की व्यापक चेतना के साथ उत्तरोत्तर कला की मल महती भावनाओं का केन्द्रीकरण । उन में भावुकता जन्य उत्तेजना नहीं है, वरन ऊर्जस्वी भावबोध के पैमाने पर समग्र दिशाव्यापी सौंदर्य को पकड़ने का प्रयास है । इनके कितने ही चित्रों में मनुष्य के गहन अन्तर्द्वन्द्व और गढ़ मर्म का सजीव अंकन है। कलात्मक अभिव्यंजना और सरलतम देशी पद्धति से इन्होंने श्टेम्पराश् और श्वाशश् में अधिकांश चित्रों का निर्माण किया है। सन् 1933 में नागपुर, 1934 में करांची और 1948 में शान्तिनिकेतन में इनके चित्रों की प्रदर्शनियाँ आयोजित की गईं। देश-विदेशों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भी इन्होंने भाग लिया।
मासोजी साधु प्रकृति के अत्यन्त विनम्र और शीलवान व्यक्ति हैं । नागपुर की घनी बस्ती से दूर एक निर्जन कोने में एक बहुत छोटे से कुटियानुमा घर में वे रहते हैं जहाँ इनके चित्रों को रखने तक का स्थान नहीं है। लकड़ी के सामान्य बक्सों में इनकी अमूल्य कलानिधियाँ छिपी पड़ी हैं जहाँ सदैव दीमकों और कीड़े-मकोड़ों का भय बना रहता है।
कला के इस मूक साधक के अभावग्रस्त जीवन का ये चित्र ही सम्बल है । मन जब दर्द या व्यथा की ठोकर खाता है तो कला की प्रशान्त क्रोड़ में इनकी उत्प्रेरक चेष्टाएँ विश्रान्ति पा जाती हैं। इनके मत में कर्त्तव्य और निष्ठा की सीढ़ी पर ही हम फिसल पड़े तो हमारी प्रगति की दिशागामी प्रवृत्तियों का अन्त बड़ा ही मार्मिक और हृदयवेधी होगा । अतएव कला के परिपोषक बीजांकूर जिस भारत की मिट्टी की खाद पर सदा पल्लवित होते रहे हैं वह पच्छिमी खाद के आयात से फीकी न पड़ जायकृइसी चिन्ता को लेकर यह वृद्ध कलायोगी आज भी कला के सर्वदेशीय तत्त्वों को सजाने-सँवारने में आश्वस्त है।