मनीष दे { Manish De }

मनीष दे
मुकुल चन्द्र दे के लघु बन्ध मनीष दे की प्रकृति अपने भाई से सर्वथा भिन्न है। किसी एक कला-शैली, निश्चित टेकनीक या रूढ़िवादिता को इन्होंने प्रश्रय नहीं दिया, अपितु गोचर जगत् के अभिव्यंजक तत्त्व इतने अस्थिर और विशृंखल रूप में प्रकट हुए कि उनकी कला का उभार अपनी सीमानों के भीतर किसी एक सामान्य परिस्थिति पर कभी न टिका । अपनी प्रारम्भिक शृंगारिक कोमल वत्ति से कठोर यथार्थवाद तक आते-आते उनके चित्रों में कितनी ही डांवाडोल मनःस्थितियों का दिग्दर्शन हुआ । श्पनघट की ओरश्, श्वंशीरवश्, श्मयूरश्, श्पुलश्, और श्नारीश् की विविध भंगिमाओं व दृश्य-चित्रणों में जहाँ उनकी सृजन-चेतना अतिशय कोमल और आर्द्र हो उठी है, वहाँ श्बंगाली शरणार्थीश् आदि जीवन की विभीषिकाओं से प्रेरित चित्रों में उतनी ही कठोर एवं विद्रूपमयी। अपने चतुर्दिक वातावरण से प्रभावित होते हुए भी अपने जीवन को वे एक-दूसरे ढंग से ही बिताते थे। परिवार से कटकर कुछ भूले-भटके से किसी दूसरी दुनिया की कल्पना में वे सदा डबे रहते । सभी कला-मर्मज्ञों के वे प्रशंसक और प्रेमी थे, किन्तु एक व्यक्ति और कलाकार के नाते उनका जीवन उन सबसे भिन्न था, उन्होंने अपने में एक विशिष्ट व्यक्तित्व का निर्माण किया था। एक स्थल पर वे लिखते हैं रू ष्मेरी माँ ने मुझे अपना दुग्धपान कराया, किन्तु मैंने कभी भी अपनी माँ के सदश बनने की चेष्टा नहीं की, मेरे भ्राता ने मुझे चित्रकारी सिखाई, किन्तु कभी भी मैंने उनकी समानता का गुमान नहीं किया।ष् मस्त, मनमौजी, अल्हड़, दुनिया से बेखबर, जब-जब मनीषी दे को उनकी असावधानी और प्रमाद के लिये सचेत किया जाता, तब-तब वे अत्यन्त भोलेपन और प्रमत्तता से मुस्कराकर कहते, श्मुझे तो गुरुदेव भी सुपथ पर लाने में असफल रहे, फिर अन्य व्यक्तियों की तो गणना ही क्या है।श् बाल्यावस्था में माता-पिता को उनकी ओर से निराशा ही रही, क्योंकि वे अत्यन्त स्वच्छन्द एवं अन्तर्मुखी पलायन मनोवृत्ति के व्यक्ति थे। उनका जीवन संतुलन कभी सम न हो सका । अभी तक,आयु की प्रौढ़ता में भी उनमें बालकों जैसी हठ और स्वेच्छाचारिता है। वे सदैव जीवन में विद्रोही ही बने रहे।।
किन्तु इस सब के बावजूद वे भारतीय कलाकारों की दृष्टि में अत्यन्त सम्मानित एवं श्रद्धा के पात्र हैं। यद्यपि इनकी शिक्षा-दीक्षा शांतिनिकेतन में हुई और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर उनके प्रथम शिक्षक थे, फिर भी वे बंगाली कलाकार क्षितीन्द्र मजूमदार और सुरेनकार की भाँति उनके प्रथम अनुयायी होने का गौरव प्राप्त न कर सके। उनकी प्रारम्भिक कृतियों में तो उनके शिक्षक के प्रभाव की झलक मिलती है, किन्तु शीघ्र ही वे एक विभिन्न दिशा की ओर अग्रसर हुए, उन्होंने अपने लिए एक-दूसरा ही मार्ग चुना, जिसमें कि चित्रकला की बहुविध सम्मिश्रित प्रवृत्तियों का आभास मिलता है। वास्तविक बात यह है कि मनीषी दे ने चित्रकला का अध्ययन कभी भी गम्भीरता पूर्वक नहीं किया, चित्रकला तो उनके लिये श्हाबीश् थी, मनोरंजन की वस्तु, वे इससे खेलते, मन बहलाते और आमोद-प्रमोद करते थे, इसमें उनकी अन्तर्वृत्तियाँ विश्राम पाती थीं, लय हो जाती थीं।
जन्मजात विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों की भाँति उनमें चित्र बनाने की कभी-कभी बलवती आकांक्षा जाग्रत होती और इस धुन में वे विभिन्न शैलियों एवं विभिन्न विधाओं पर दर्जनों चित्र बना डालते। मस्तिष्क की बौखलाहट में किसी एक पद्धति का अनुसरण उन्होंने कभी नहीं किया। प्रायः उन्हें यह भी ज्ञात नहीं होता था कि वे किस विषय को चित्रित करेंगें। अपने इच्छित विषय एवं अभिप्रेत वस्तु की कल्पना वे कभी-कभी ही कर पाते थे। उन्होंने व्यर्थ सोचने में कभी अपना दिमाग नहीं खपाया। अपनी तुलिका और रंगों से वे तब असंख्य चित्र बनाते और बिगाड़ते थे। कभी-कभी रंगों को इस खूबी से फैलाते कि किसी मनोरम वनस्थली को एक सुन्दरी, संकोचशीला नारी के रूप में परिणत कर देते अथवा नारी के सौंदर्य के परिप्रेक्ष्य में वहाँ के वातावरण को आँकते और उसमें कमनीय सौंदर्य सुमनों की सुगंध बिखेर देते। उनके जीवन में एक ऐसा भी समय था जबकि वे इन खेलचित्रों के अतिरिक्त और कुछ भी पसन्द नहीं करते थे।
उनके अस्थिर और उच्छृखल जीवन की भाँति उनका चित्रकारी करने का तरीका भी बहुत ही विचित्र और अस्थिर होता था। प्रायः वे किसी-किसी चित्र पर घण्टों परिश्रम करते, किन्तु अपनी स्थिर चित्तवृत्ति के कारण वे उसे बिना सोचे-समझे ही फाड़ डालते अथवा क्षणिक आवेश में अपनी अन्तरंग सहजात परोपकार वृत्ति से प्रेरित होकर मन की प्रसन्नता के लिए वे अपनी सर्वोत्कृष्ट चित्रकारी को भी किसी को देने में न हिचकते थे।  वे अत्यन्त भावुक और चंचल प्रकृति के थे । उनका न तो कोई निश्चित ठिकाना ही था और न कोई निश्चित पता ही। वे खुश मिजाज, निश्चिन्त और मनमौजी थे। आज यहाँ तो कल वहाँ कृयही उनका सदैव जीवन-क्रम रहा। वे जिससे भी मिलते-दिल खोल कर, वह उनके सौजन्य से मुग्ध हुए बिना नहीं रहता।
कभी किसी ने उन्हें धोखा नहीं दिया। जिन्होंने सदैव उन्हें अपने पाँवों पर खड़े होने की सीख दी। उन्होंने मनीषी दे को व्यावसायिक कलाकार होने का प्रोत्साहन दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने विज्ञापन के नमूनों का एक नया तरीका खोज निकाला और उनकी पोस्टर तस्वीरें समस्त देश में चित्रकला का आदर्श प्रस्तुत करने में समर्थ हुईं। भारतीय नारी की विविध भंगिमाओं एवं मुद्राओं का इन्हें इतना सुन्दर और गहरा अध्ययन है कि लोगों ने ऐसे चित्रों को बहुत अधिक पसन्द किया और उनकी खब माँग की। 
उनके जीवन की यह भी एक विचित्र घटना है । यह ही समय ऐसा था, जब कि उन्हें खूब आर्थिक लाभ हुआ। किन्तु इन सब बातों से उनका चित्त अशान्त रहता था। उन्हें अपनी आत्मा से भीषण संघर्ष करना पड़ रहा था। और अपनी विद्रोही प्रकृति को दूसरी दिशा में बरबस मोड़ना पड़ रहा था, किन्तु तत्काल ही उन्होंने जीविकोपार्जन का मोह छोड़ दिया और इस प्रकार धन कमाने के लिए अपनी आत्मा का हनन नहीं किया । गलियों में भटकते हुए, भूख-प्यासे रह कर और रात्रि में बिजली के खम्भों के सहारे बैठ कर वे अपनी कला का विकास करने में अधिक गौरव एवं सुख का अनुभव करते।  व्यावसायिक कला उनका उद्देश्य नहीं था। उन्हें इस व्यापार से घृणा थी, यद्यपि उन्हें इस दिशा में पर्याप्त सफलता मिली। उनकी सर्वोत्कृष्ट कृतियाँ उस समय की हैं, जब कि वे दक्षिण भारत अर्थात् बम्बई और ग्वालियर में रहा करते थे। उस समय उन्होंने मानव-जीवन और प्रकृति का सूक्ष्म चित्रण किया और भारतीय नारियों की विविध भावभंगी एवं मुद्राओं को प्रदर्शित किया।
उनके बम्बई के प्रवास का समय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उनकी विलक्षण प्रतिभा एवं कला की गहराई का लोगों को उसी समय परिज्ञान हुआ। इस अवधि में उन्होंने अत्यधिक चित्रकारी की, विविध विषयों एवं विभिन्न शीर्षकों को लेकर उन्होंने छोटे-बड़े सभी प्रकार के चित्र बनाए। कुछ तो समाप्त भी नहीं होने पाते थे कि लोग उन्हें उठा ले जाते। आजकल उनके बनाये अनेक चित्र मि० नौराजी, मि० जे० एन० दानी और श्टाइम्स आफ सीलोनश् के सम्पादक मि० एफ० आर० मुरेज के चित्र-संग्रह में मिलते हैं। इस समय समरंगों का प्रयोग उन्हें अधिक रुचता था। श्शृंगारश् इस प्रकार की चित्रकारी का सुन्दर उदाहरण है । किसी भी कला भवन को सजाने में यह पूर्ण समर्थ है। इनके अनेक चित्रों में संवेदनशील मन की महिमान्वित गरिमा एवं आत्मा की करुण चीत्कार है।  अपने ग्वालियर के प्रवास में इन्होंने प्राचीन रूढ़ियों को तोड़ कर एक नवीन मार्ग का अनुसरण किया और अपनी सर्वोत्तम कृतियों से सभी को चकित कर दिया । अनेक चित्रों में इनकी परिपक्व कार्य पद्धति, सशक्त रेखाओं एवं रंगों को प्रयोग करने की उनको अद्भुत क्षमता और चित्रण में बड़ी ही मोहक संयत संस्थिति दृष्टिगत होती है, आधुनिक कलाकारों की भाँति उनमें विरूपता एवं भौंडापन नहीं मिलता। साठ वर्ष की ढलती आयु में मनीषी दे आज भी स्वस्थ एवं समर्थ हैं। उनमें जोश है, उत्साह है, कार्य करने की क्षमता है। अपने हृदय की मूक अनुभूतियों को, जीवन के क्लान्त उल्लास और तरंगित संगीत को अपनी तुलिका एवं रंगों द्वारा व्यक्त करने में वे आज और भी सजग एवं सचेष्ट हैं। अपने जीवन के बहुमुखी पहलुओं पर दृष्टिपात करते हुए इन्होंने निम्न शब्दों में अपने उद्गार व्यक्त किये।
"ष्जब मेरा जन्म हुआ था तो भयंकर पानी और तूफानी हवा के झोंके समस्त वातावरण को चंचल कर रहे थे, वही तूफान मेरे लिए जन्मघूटी का कार्य कर गया । समूचा जीवन इसी प्रकार तूफानवत् चला आ रहा है और संभवतः इसी प्रकार अन्त तक रहेगा।"
कला का शौक तो बचपन से ही मेरे खिलवाड़ के रूप में रहा । लकड़ी या मिट्टी के खिलौने बड़े प्यार से सजाना ओर कागज या भूमि पर खड़िया, मिट्टी, कोयला आदि की सहायता से तरह-तरह को आकृतियाँ बनाना ही मेरा खेल था। इसी प्रकार धीरे-धीरे शौक बढ़ा । पहले-पहल शान्तिनिकेतन के ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा पाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। लेकिन पाठ्य-पुस्तकों में दूरन्त शिशु का मनोनिवेश किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हुआ। इसीलिए फेल होकर कठिनाई से किसी प्रकार मैट्रिक तक पहुँचे । परीक्षा के बाद रिजल्ट लिस्ट में भी अपने को नहीं पाया। मन ने कहा अब स्कूल की पढ़ाई क्या काम की, चलो निकल चलें और बस चल पड़ा। उसी जन्मजात झंझा के प्रभाव ने खींच कर आदर्श-मत्ति शिल्पाचार्य श्री अवनीन्द्रनाथ टैगोर की शरण में छोड़ दिया। उन्हीं के आशीर्वाद और पथ-प्रदर्शन ने मुझे आज इस योग्य बनाया कि कुछ कर सकें। ऐसे गुरुदेव का सम्मिलन भी सौभाग्य की बात थी । गुरु का दान-भण्डार पूर्ण था. दाता भी महान था, मगर लेने वाले पात्र की ही कमजोरी थी। वे जितना देना चाहते थे वह मेरी शक्ति के बाहर था। मैं न ले पाया, जो कुछ थोड़ा सा पाया उसी में आनन्द विभोर हो गया । कहीं अधिक पाया होता तो शायद पागल हो जाता। जो कुछ भी प्राप्त किया उसी सम्बल को लेकर मैं वहाँ से निकल पड़ा और आज 27 साल के भ्रमण की अनुभूतियों तथा निरन्तर कार्य में ही मुझे पूर्णता की सार्थकता का अनुभव हुआ।"
अपने भ्रमणकाल की अनुभूतियों का आकलन करते हुए उन्होंने कहा है भ्रमण का मुख्य उद्देश्य था शतधार जीवन को एकमुखी करना। यह एकमुखी जीवन ही मेरे लिए आदर्श रूप चित्रमुखी जीवन है। इस 27 साल में बहुत से देश, विदेश, जिले, नगर-ग्राम, पंडित-मूर्ख, नशा. पेशा. मन्दिर-मठ -अखाड़ा, धनी-गरीब, महल - झोपड़ी, गली-सड़क, बगीचा - जंगल, भूख-प्यास, नाना प्रकार के सुख-दुःख सभी देखे। किसी भी अवस्था का निरादर नहीं किया। सभी परिस्थितियों में घुस कर जीवन का नाना रूप देखा। प्रखर ग्रीष्म, आँधी, वर्षा, शीत, न जाने कितनी ही बार आये और चले गये। मगर मेरे कार्य क्षेत्र पर विशेष प्रभाव न जमा सके। कितने ही रोड़े आये और चले गए । संघर्षपूर्ण रात्रि का जन्म, संघर्षमय जीवन के रूप में आज तक संघर्ष ही करता चला आया। इस समस्त गत समय की अनुभूतियाँ मानव ही नहीं जीव मात्र के साथ एक विचित्र उदार प्रीति के रूप में परिणत हुई। इस कोलाहलमय संसार में भी एक विचित्र शान्ति, विचित्र रस है। उस रस को मैंने जीव मात्र की उदार प्रीति के रूप में अनुभव किया। उसी उदार प्रेम से मेरा जो सम्बन्ध है उसी सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिए मेरे चित्र हैं। प्रीति के अनेक रूपान्तरों को प्रकट करने के लिए विभिन्न रीतियों से अंकित हर प्रकार के चित्र हैं। यों तो सभी चित्रमात्र समान हैं, मगर मेरे विचार से उन्हीं चित्रों को मैं सबसे बड़े चित्र कहूँगा, जिन्हें हृदय स्वीकार करे, जिनसे बुद्धि का विकास हो, चित्त को शान्ति मिले, दृष्टि का प्रसार हो । इधर देखने में आता है कि कुछ आधुनिक प्रगतिशील कलाकार माडर्न आर्ट के रूप में जो भी अंकित करते हैं उसमें उक्त चारों गुणों का अभाव ही दृष्टगोचर होता है । भयावह यन्त्र-दानव को देखकर मनुष्य आज उद्भ्रान्त हो गया है । साथ ही हमारे मिन चित्रकार-मण्डल की मति भी भ्रान्त हो रही है। उस उद्भ्रान्त मति-भ्रम का स्पष्ट निदर्शन ही माडर्न आर्ट है ।ष् कला के सम्बन्ध में इनका दृष्टिकोण है ष्कला सत्य पर प्रतिष्ठित है। उस सत्य के मार्ग पर भाव का प्रकाश डालना ही सचमुच कलाकार का उद्देश्य है । सभ्यता मनुष्य का अन्तर्हित अधिकार है । मनुष्य की सभ्यता देश का अलंकार है और शान्ति का अग्रदूत सौन्दर्य है। इसी बहुरूपी सौन्दर्य का खेल ही सृष्टि है । इसो सृष्टि को कला की विशेष दृष्टिभंगी से रंग-रेखा द्वारा अपरूप-रूपेण प्रदर्शित कर मानव समाज के हितार्थ प्रस्तुत करना कलाकार का धर्म है और उस धर्म की रक्षा ही कलाकार की कला-साधना है।"
कला की एकाग्र साधना ही आगे बढ़ाने की एकमात्र कसौटी है। यह किसी शिक्षक से नहीं अंतरंग प्रेरणा द्वारा ग्राह्य होती है, शिक्षक तो मात्र दिशानिर्देश कर सकता है । उन्हीं के शब्दों में ष्किसी भी शिक्षार्थी को कोई शिक्षक इस साधना की पूर्ण शिक्षा नहीं दे सकता । भाग्यवान शिक्षार्थी भाग्य-गुण से गुरु द्वारा इस साधना का पथ मात्र देख सकता है। गुरु-कृपा, श्रद्धा और एकाग्रता ही एकमात्र पथ-सम्बल है। इसी प्रकार गुरु द्वारा प्रदर्शित पथ पर निरन्तर चलते हुए जो कुछ देखे, जो कुछ अनुभव करे, जो कुछ स्पर्श करे, जो कुछ सुने, पग-पग पर, साधना-पथ पर चलते-चलते मन की झोली में उस अनुभति का संग्रह करना उचित है। इसी संग्रहकरण को श्स्केच करनाश् कहते हैं। स्केच की यही स्वच्छ परिभाषा है। इसी प्रकार निरन्तर भ्रमण के बाद मार्ग के किसी भी वृक्ष की शीतल छाया में जब कलाकार विश्राम करेगा तो उसी समय याद करेगा, सोचेगा और मन की झोली में देखेगा कि इस मार्ग में मैंने क्या पाया और क्या देखा, तो मन का पाया हुआ वही संचित रूप मन की भाषा में कागज पर रंग-रेखा से स्वतः खिल उठेगा।
इस पथ का कोई अन्त नहीं है। इस आनन्द की कोई सीमा भी नहीं है। देखने की अनेक वस्तुओं में से जिसे भी तुम सत्य रूप से देखोगे उसी में तुम चिरन्तन सत्य को उपलब्ध करोगे । मन-प्राण, निरहंकार, गम्भीर आनन्द से पूर्ण हो उठेगा। तभी यह जीवन शान्तिमय हो सकेगा।"

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